जिमि अबिबेकी पुरुष शरीरहि ||
लक्ष्मण ने अज्ञानी मनुष्य की भांति अपने शरीर के सुखों की उपेक्षा कर भगवान राम और सीता की सेवा की। जब किसी का मन दिव्यचेतना में स्थित हो जाता है तब वह शारीरिक सुखों की आसक्ति और दुखों की अनुभूति से परे हो जाता है और फिर वह समदृष्टा की अवस्था प्राप्त कर लेता है। यह समदृष्टि शारीरिक कामनाओं का त्याग करने से प्राप्त होती है और मनुष्य को भगवान के समान आचरण वाला बना देती है।
अर्थात ऐसा भी कह सकते हैं कि लक्ष्मणजी भगवान राम और सीताजी की वैसे ही सेवा करते हैं, जैसे अज्ञानी मनुष्य अपने शरीर की सेवा करता है। अपने शरीर की सेवा करना, उसे सुख पहुँचाना समझदारी नहीं है। अपने शरीर की सेवा तो पशु भी करते हैं। जैसे, बंदरी की अपने बच्चे पर इतनी ममता रहती है कि उसके मरने के बाद भी वह उसके शरीर को पकड़े हुए चलती है, छोड़ती नहीं। परंतु जब कोई वस्तु खाने के लिए मिल जाती है, तब वह स्वयं तो खा लेती है, पर बच्चे को नहीं खाने देती। बच्चा खाने की चेष्टा करता है तो उसे ऐसी घुड़की मारती है कि वह चीं-चीं करते भाग जाता है। अतः ममता के रहते हुए समता का आना असंभव है।
भाव में ही सदा अद्वैत होना चाहिए, क्रिया (व्यवहार) में कही नहीं।
जब किसी का मन इस दिव्य चेतना में स्थित होता है, तो शारीरिक सुख और दर्द के प्रति लगाव खत्म हो जाता है, और वह समता की स्थिति में पहुंच जाता है। स्वार्थी शारीरिक इच्छाओं के बलिदान के माध्यम से आने वाली यह समता व्यक्ति को आचरण में ईश्वर तुल्य बनाती है। महाभारत में कहा गया है:
जो इच्छाओं को त्याग देता है वह भगवान के समान हो जाता है।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थित:
जिनका मन दृष्टि की समानता में स्थापित हो जाता है वे इसी जीवन में जन्म और मृत्यु के चक्र पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। उनमें ईश्वर के निर्दोष गुण हैं, और इसलिए वे परम सत्य में विराजमान हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने यहाँ 'सम' शब्द का प्रयोग किया है। किसी मनुष्य द्वारा सभी प्राणियों को समान दृष्टि से देखना है। इसके अतिरिक्त समदृष्टि का अर्थ पसंद और नापसंद, सुख और दुख तथा हर्ष और शोक से ऊपर उठकर देखने से भी है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो समदृष्टि रखते हैं वे 'संसार' अर्थात जन्म और मृत्यु के अनवरत् चक्र से परे हो जाते हैं।
जब तक हम स्वयं को शरीर समझते हैं तब तक हम समदर्शी होने की योग्यता नहीं पा सकते क्योंकि हम शरीर के सुख और दुख के लिए निरन्तर कामनाओं और विमुखता की अनुभूति करेंगे। संत महापुरुष शारीरिक अवधारणा से उपर उठकर सांसारिक मोह माया को त्यागकर अपना मन भगवान में तल्लीन कर लेते हैं।
स गुणांसमतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते
चाहे मनुष्य कर्म योग, ज्ञान योग या ध्यान योग अपनाए, उसे भक्ति, भगवान के प्रति समर्पण का विकास करना चाहिए। यह भक्ति ही सभी योगों के लिए प्राण है। इसके बिना कोई भी आध्यात्मिक प्रगति संभव नहीं है।
शुद्ध भक्ति के लिए सर्वोच्च त्याग की आवश्यकता होती है। मन को पूरी तरह से भगवान में केंद्रित होना चाहिए। सच्चे भक्त के मन में संसार का कोई स्थान नहीं है। केवल भगवान और कुछ नहीं यही भक्त का भाव है। जब यह दृष्टिकोण पुष्ट हो जाता है, तो भक्त आसानी से गुणों से परे चला जाता है, और ब्रह्मनुभूति अपने आप उसके पास आ जाती है।
लगातार भगवान के बारे में सोचते रहना, उनकी अद्भुत शक्ति, सुंदरता, खुशी, शांति, आनंद और आशीर्वाद, उन्हें अपने जीवन के जीवन और अपनी आत्मा की आत्मा के रूप में प्यार करना, उन्हें सभी प्राणियों में, सभी कार्यों में देखना, और विचार करना, उनका नाम और महिमा गाना, उन्हें सब कुछ अर्पित करना - यही भक्ति है। चूंकि भक्ति देहधारी मनुष्यों के लिए अधिक अनुकूल है।
प्रश्न: कोई व्यक्ति उन तीन गुणों से परे कैसे जा सकता है?
दृढ़ भक्ति से मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होता है जो उसे गुणों से परे परमात्मा तक ले जाता है। यह गुणों से परे जाने का मार्ग है।
समता कोई खेल-तमाशा नहीं है, प्रत्युत परमात्मा का साक्षात स्वरूप है। जिनका मन समता में स्थित हो जाता है, वे यहाँ जीते-जी संसार पर विजय प्राप्त कर लेते हैं और परब्रह्म परमात्मा का अनुभव कर लेते हैं। यह समता तब आती है, जब दूसरों का दुःख अपना दुःख और दूसरों का सुख अपना सुख हो जाता है।
गीता में भगवान कहते हैं कि ‘हे अर्जुन जो पुरुष अपने शरीर की तरह सब जगह सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सब जगह सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।’

