Matru Panchak of Adi Shankaracharya reveals a sannyasi’s deep grief for his mother. A rare emotional stotra explaining motherhood, renunciation and pain.
मातृपञ्चक शंकराचार्य द्वारा रचित सबसे करुण स्तोत्र है। जानिए एक संन्यासी के हृदय का शोक, मातृत्व का ऋण और अंतिम क्षणों की वेदना।
एक संन्यासी का शोकगीत | Matru Panchak of Adi Shankaracharya – The Untold Pain of a Saint
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| एक संन्यासी का शोकगीत | Matru Panchak of Adi Shankaracharya – The Untold Pain of a Saint |
एक संन्यासी का शोकगीत
मातृपञ्चक : भगवत्पाद शंकराचार्य की करुण गाथा
1. भूमिका : पाँच पञ्चकों का संक्षिप्त परिचय
भगवत्पाद आदि शंकराचार्य ने पाँच प्रसिद्ध पञ्चकों की रचना की है—
- मनीषापञ्चक
- साधनापञ्चक
- काशीपञ्चक
- यतिपञ्चक
- मातृपञ्चक
इनमें प्रथम चार पञ्चकों का पारायण, विवेचन एवं चिन्तन साधक और जिज्ञासु प्रायः करते हैं, परन्तु मातृपञ्चक अपेक्षाकृत अल्पचर्चित है।
वास्तव में, शंकराचार्य के सम्पूर्ण स्तोत्र-साहित्य में यह पञ्चक सर्वाधिक मार्मिक और करुण रचनाओं में से एक है।
2. मातृपञ्चक की रचना-परिस्थिति : एक विषम क्षण
मातृपञ्चक की रचना किसी शास्त्रीय सभा या दार्शनिक विमर्श के बीच नहीं, बल्कि अत्यंत विषम और हृदयविदारक परिस्थिति में हुई।
भारत-भ्रमण पूर्ण करने के पश्चात् आचार्य दक्षिण की ओर लौट रहे थे।
कर्नाटक में सम्राट सुधन्वा के साथ मिलकर कापालिकों की समस्या का समाधान करने के बाद, केरल की सीमा पर पहुँचकर उन्होंने अपने शिष्यों को श्रृंगेरी भेज दिया और स्वयं कालड़ी की ओर प्रस्थान किया।
उन्होंने कहा—
“मेरी माता के देहावसान का समय आ गया है।मैंने उन्हें वचन दिया था कि उनके अंतिम समय में उनके साथ रहूँगा।”
3. माता आर्याम्बा का अंतिम समय
जब आचार्य अपने घर पहुँचे, तब माता आर्याम्बा मृत्युशैय्या पर थीं।
आचार्य ने उन्हें—
- उनके इष्टदेव भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कराया
- आत्मतत्त्व का उपदेश दिया
ठीक दोपहर के समय माता ने शरीर त्याग दिया।
4. शोक का विस्फोट : शुष्क तण्डुल का दान
माता की प्रदक्षिणा करते हुए, शव के मुख में अक्षत (शुष्क तण्डुल) डालते समय उस महायोगी का संयम टूट गया।
उनके रुंधे कंठ से करुण श्लोक फूट पड़ा—
श्लोक 1
मुक्तामणि त्वं नयनं ममेतिराजेति जीवेति चिरं सुत त्वम्।इत्युक्तवत्यास्तव वाचि मातःददाम्यहं तण्डुलमेव शुष्कम् ॥
भावार्थ
माँ! जिस मुख से तुम मुझे अपनी आँखों का तारा कहा करती थीं—
“मेरे राजदुलारे, सदा जीते रहो”—
उसी मुख में आज मैं केवल शुष्क तण्डुल ही डाल सका।
यह मेरा दुर्भाग्य है।
5. जन्म की स्मृति और मातृवेदना
श्लोक 2
अंबेति तातेति शिवेति तस्मिन्प्रसूतिकाले यदवोच उच्चैः।कृष्णेति गोविन्द हरे मुकुन्दइति जनन्यै अहो रचितोऽयमञ्जलिः॥
भावार्थ
माँ! मेरे जन्म के समय
“हे माँ! हे पिता! हे शिव! हे कृष्ण! हे गोविंद! हे मुकुंद!”
कहते हुए तुमने कितनी पीड़ा सही थी।
आज मैं बार-बार तुम्हें प्रणाम करता हूँ।
6. मातृत्व का ऋण : जिसका कोई प्रतिदान नहीं
श्लोक 3
आस्तं तावदियं प्रसूतिसमये दुर्वारशूलव्यथानैरुच्यं तनुशोषणं मलमयी शय्या च संवत्सरी।एकस्यापि न गर्भभारभरणक्लेशस्य यस्याक्षमःदातुं निष्कृतिमुन्नतोऽपि तनयस्तस्यै जनन्यै नमः॥
भावार्थ
माँ!
तुमने जन्म के समय असहनीय पीड़ा सही,
एक वर्ष तक रोग, दुर्बलता और मलिन शय्या पर पड़ी रहीं—
पर कभी शिकायत नहीं की।
जिस गर्भभार के कष्ट का प्रतिदान
कोई पुत्र—even महान होकर भी—नहीं दे सकता,
ऐसी माता को मेरा नमन।
7. वह स्वप्न, वह दृश्य, वह विलाप
श्लोक 4
गुरुकुलमुपसृत्य स्वप्नकाले तु दृष्ट्वायतिसमुचितवेशं प्रारुदो मां त्वमुच्चैः।गुरुकुलमथ सर्वं प्रारुदत्ते समक्षंसपदि चरणयोस्ते मातरस्तु प्रणामः॥
भावार्थ
माँ!
जब तुमने स्वप्न में मुझे संन्यासी के वेश में देखा था,
तो व्याकुल होकर गुरुकुल आ गई थीं।
मुझे गले लगाकर फूट-फूट कर रो पड़ी थीं
और तुम्हारे साथ पूरा गुरुकुल रो पड़ा था।
आज उस दृश्य को स्मरण कर
मैं तुम्हारे चरणों में बार-बार प्रणाम करता हूँ।
8. सबसे बड़ा अपराध : अंतिम कर्तव्यों की असमर्थता
श्लोक 5
न दत्तं मातस्ते मरणसमये तोयमपिवास्वधा वा नो दत्ता मरणदिवसे श्राद्धविधिना।न जप्त्वा मातस्ते मरणसमये तारकमनुरकाले सम्प्राप्ते मयि कुरु दयां मातुरतुलाम् ॥
भावार्थ
माँ!
मैं न तुम्हारे मुख में गंगाजल डाल सका,
न श्राद्ध-विधि कर सका,
न ही तुम्हारे कानों में तारक मंत्र जप सका।
मेरे इस महापराध को क्षमा करना
और मुझ पर करुणा करना, माँ।
9. अंतिम दृश्य : पूर्ण एकाकी संन्यासी
आचार्य की उस समय की मनोदशा की कल्पना कर पाना असंभव है।
पड़ोसियों ने शव को छूने से मना कर दिया।
- कोई सहायक नहीं
- कोई सहभागी नहीं
- पूर्ण एकाकी युवा संन्यासी
घर के द्वार पर स्वयं चिता बनाकर
माता के शव को रखते हुए
आचार्य शंकर की वह छवि
मन को विचित्र शून्यदशा में ले जाती है।
10. उपसंहार : वैराग्य भी जहाँ रो पड़ता है
मातृपञ्चक यह सिखाता है कि—
संन्यास वैराग्य का शिखर हो सकता है,
पर मातृत्व के ऋण के आगे
ज्ञान, योग और अद्वैत भी मौन हो जाते हैं।
यह शोकगीत नहीं,
एक संन्यासी का हृदय-विलाप है।
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