याज्ञवल्क्य - उषस्त संवाद (शत.१४ /३/४/१)

Sooraj Krishna Shastri
By -
1

 

याज्ञवल्क्य - उषस्त संवाद
याज्ञवल्क्य - उषस्त संवाद

  यह आत्मा सर्वान्तर है, विज्ञानमय है, इसी से सारे प्राण अनुप्राणित है। यह चक्षु श्रौत्रादि का अविषय भूत है। वह दृष्टि का भी द्रष्टा, श्रुति का भी श्रोता, मति का भी मन्ता, विज्ञप्ति का भी विज्ञाता है। इससे भिन्न सब अति हैं।

याज्ञवल्क्य से उषस्त चाकायण ने पूछा - हे याज्ञवल्क्य । जो साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म और सर्वान्तरात्मा है उसकी मेरे प्रति व्याख्या करो। 

याज्ञवल्क्य ने कहा - यह तेरा आत्मा ही सर्वान्तर है। 

उषस्त - याज्ञवल्क्य यह सर्वान्तर कौन सा है

याज्ञवल्क्य - जो प्राण से प्राणक्रिया करता है वह तेरा आत्मा सर्वान्तर है, जो व्यान से व्यान क्रिया करता है, तेरा आत्मा सर्वान्तर है, यह तेरा आत्मा सर्वान्तर है। 

उषस्तचाक्रयण ने कहा - जिस प्रकार कोई गौ और अश्व बताने का संकल्प करके धावनरूप लिंग दिखाकर कहे कि यह जो चलता है गौ: है जो दौडता है घोड़ा है, उसी प्रकार तुम्हारा ब्रह्मोपदेश है अतः साक्षात् अपरोक्षब्रह्म और सर्वान्तरात्मा का स्पष्ट उपदेश करो। याज्ञवल्क्य यह तेरा आत्मा सर्वान्तर है। 

उषस्त- याज्ञवल्क्य, सर्वान्तर कौन है? 

याज्ञवल्क्य - तुम दृष्टि के द्रष्टा को नहीं देख सकते, श्रुति के श्रोता को नहीं सुन सकते मति के मत्ता का मनन नहीं कर सकते। विज्ञप्ति के विज्ञाता को नहीं जान सकते। तुम्हारा यह आत्मा सर्वान्तर है । इससे भिन्न वस्तु विनाशशील है। तब उषस्त चाक्रायण चुप रह गया।

Post a Comment

1 Comments

  1. बहुत ही सुंदर संवाद

    ReplyDelete
Post a Comment

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!