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जिमि सरिता सागर महुं जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।। तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएं। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएं।।

ramcharitmanas ki chaupai   यद्यपि समुद्र ने जल की कभी कामना नहीं की तथापि नदियाँ स्वतः ही उसमें समा जाती है एवं वह सदा जल से भरा ही रहता है...

ramcharitmanas ki chaupai

 यद्यपि समुद्र ने जल की कभी कामना नहीं की तथापि नदियाँ स्वतः ही उसमें समा जाती है एवं वह सदा जल से भरा ही रहता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति धर्म का पालन कर अपने को सुयोग्य बना ले तो उसे सुपात्र जान कर धन संपत्ति स्वयं ही उसके पास आ जाती है।

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावहः ॥

अपने स्वाभाविक नियत कर्म को करना, भले ही उसमें दोष हों, दूसरे के नियत कर्म को, भले ही वह पूर्णतः अच्छा हो, करने से कहीं अधिक श्रेष्ठ है। वस्तुतः, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मर जाना, दूसरे के मार्ग पर चलने से, जो कि खतरे से भरा है, अधिक श्रेष्ठ है।

काल, व्यक्ति और देश भेद से ईश्वर अपनी बात को कहने का स्वरुप और पात्रों को भले ही बदल दे, पर मूल लक्ष्य एक ही रहता है। अपने भक्त को अपनी शरण में रखकर उसको निर्भीक, निर्द्वन्द और अदम्य पुरुषार्थ कराकर भी यह बताना कि तुम केवल यंत्र मात्र हो। ईश्वर के संकल्प में जो पहले ही हो जाता है, व्यक्ति उसको बाद में कर्ता दिखता है।

 भगवान कृष्ण यह कहना चाहते हैं कि ज्ञान धर्म की सरिता को, कर्म धर्म की सरिता को और भक्ति धर्म की सरिता को, ईश्वर की शरणागति के महासागर में जब तक मिला नहीं दिया जाता हैं तब तक अहं बिकार बना ही रहेगा। फिर वो चाहे नाम रुप में वहाँ रहे या गुण रुप में। जब वे अर्जुन से यह कहते हैं कि अब तुम सारे धर्मों की व्याख्या सुनने के पश्चात सब धर्मों को छोड़ दो। परित्याग कर दो सब धर्मों का। तो फिर प्रभु हमें क्या करना है?

तब भगवान ने कहा!, 'जो तुम करने वाले बन रहे थे, वह भूत, और यह मतिभ्रम का वर्तमान है,।' जिसके लिए तुम आतंकित हो रहे हो उस भविष्य की चिंता को छोड़ दो, वस्तुत: जिसको हम भूत वर्तमान और भविष्य कहते हैं, वे त्रिकाल और त्रिकाल में सत्य रुप तो भगवान ही हैं, भगवान कहते हैं वह मैं ही हूँ, यह मानकर मुझ सागर में मिल जाओ, और फिर सागर से उठकर जब बादल के रुप में तुम वर्षा का कर्म करोगे तो वह जल मीठा होगा, नहीं तो मैं अर्जुन हूँ, और सामने मेरे सब सम्बन्धी हैं तो ये देहभाव का खारापन मैं मेरा और तू तेरा ये बना ही रहेगा , और संसार में इसको कोई भी नहीं पियेगा, तो अर्जुन ! अब भगवान ने अर्जुन के जीवन में अपने उपदेश के द्वारा भगवद्गीता के उस अमृत कलश को दे दिया जिस में से न जाने कितने ज्ञान के समुद्र निकल कर असंख्य मुखों से ज्ञान, भक्ति, कर्म और शरणागति की बरसात करके अनंत भक्तों के ह्रदय भूमि को पुष्पित और पल्लवित करके रसपान करा रहे हैं, अर्जुन ने कहा कि प्रभु हम वह कैसे बनें जो आप चाहते हैं? तब भगवान ने यह निचोड़ कहा कि -

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं वृज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥

प्रिय बन्धुओं जब हम कॉलेज में पढ़ते थे तो थ्योरी और प्रैक्टिकल दोनों होता था। भगवान श्री कृष्ण जी ने जो कहा है गीता हमारे जीवन की थ्योरी है और भगवान श्री राम ने जो किया है वह हमारे लिए प्रैक्टिकल है। भगवान राम हनुमान जी से उसी शरणागति की बात को प्रथम मिलन में उपदेश कर रहे हैं। 

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।

मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥

और हे हनुमान! अनन्य वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ और यह चराचर (जड़-चेतन) जगत्‌ मेरे स्वामी भगवान्‌ का रूप है॥

वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1. अन्नमय, 2. प्राणमय, 3. मनोमय, 4. विज्ञानमय और 5. आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही पाँच तरह का शरीर भी कहा गया है।

आनंदमय कोश : ईश्वर और जगत के मध्य की कड़ी है आनंदमय कोश। एक तरफ जड़, प्राण, मन, और बुद्धि (विज्ञानमय कोश) है तो दूसरी ओर ईश्वर है और इन दोनों के बीच खड़ा है।

 क्यों कि जब आनंदमय कोष के सहित सभी पंच कोषादि बिकार हैं, मात्र इस कारण से की वे अल्पायु हैं,नष्ट हो जाते है, उनकी सत्ता सत्य नहीं है, तो ज्ञानी होने का ज्ञान ,भक्ति करने का भान, कर्म करने का कर्तृत्त्व ये सब बिकार ही तो है, जब तक सरिताओं का नाम रुप गुण रहेगा तब तक वे अधूरी हैं ,पूर्णता तो महासागर में मिल जाने में है, बस यही है।

कोउ किछु कहई न कोउ किछु पूँछा।

प्रेम भरा मन निज गति हूँछा ॥

उस समय न तो कोई कुछ कहता है, न कोई कुछ पूछता है! मन प्रेम से परिपूर्ण है, वह अपनी गति से ख़ाली है (अर्थात् संकल्प-विकल्प और चांचल्य से शून्य है)

पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं।

भूतल परे लकुट की नाईं॥

  यही शरणागति होती है, भरत जी के साथ जो अयोध्या से जो लोग साथ आये हुए हैं वे गुरु, माताऐं,मंत्री, भाई, सब भूल जाये, तब बने बात।

द्वापर में जो शरणागति पर अठारह अध्याय भगवान को बोलने पड़े ,त्रेता में एक शब्द बोले बिना वह सिद्ध शरणागति हो गई, वह शरणागति हुई चित्रकूट में, जहाँ पर चित्त वृत्ति का सहज निरोध हो गया, पर यहाँ अर्जुन को अंत तक याद रहा कि हम कौन हैं और हमारे कौन हैं? और भरत को तो राम के बनगमन की बात सुनकर ही पिता की मृत्यु तक भूल गई,भूल गई -

भरतहि बिसरेउ पितु मरन, सुनत राम बन गौन।

हेतु अपनपउँ जानि जिए थकित रहे धरि मौन॥

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भागवत दर्शन: जिमि सरिता सागर महुं जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।। तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएं। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएं।।
जिमि सरिता सागर महुं जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।। तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएं। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएं।।
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