संस्कृत श्लोक: "इहैव नरकव्याधेश्चिकित्सां न करोति यः।" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "इहैव नरकव्याधेश्चिकित्सां न करोति यः।" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "इहैव नरकव्याधेश्चिकित्सां न करोति यः।" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

संस्कृत श्लोक: "इहैव नरकव्याधेश्चिकित्सां न करोति यः।" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

श्लोक:

इहैव नरकव्याधेश्चिकित्सां न करोति यः।
गत्वा निरौषधस्थानं स रोगी किं करिष्यति॥

हिन्दी अनुवाद 

जो व्यक्ति इस संसार में रहते हुए ही नरक रूपी भयंकर रोग (पाप, बुराइयाँ, अधर्म, काम-क्रोध-लोभ आदि विकार) की चिकित्सा नहीं करता,
वह मृत्यु के बाद उस स्थान पर जाकर क्या करेगा, जहाँ कोई औषधि उपलब्ध नहीं होती, अर्थात जहाँ उपचार असंभव हो जाता है?


श्लोक का गहन अर्थ और व्याख्या:

यह श्लोक हमें आत्मसंस्कार, धर्माचरण और सदाचरण की अनिवार्यता की ओर प्रेरित करता है। इसमें कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है:

1. "नरकव्याधि" का अर्थ:

"नरकव्याधि" शब्द को कई रूपों में समझा जा सकता है—

  • कष्टदायक शारीरिक रोग: यदि किसी को कोई गंभीर रोग हो और वह इस जीवन में ही उसका इलाज न कराए, तो मृत्यु के बाद उसका उपचार असंभव हो जाता है।
  • पाप और अधर्म: यदि कोई मनुष्य अपने जीवन में बुराइयों, अनैतिक आचरण, अधर्म, और पाप-कर्मों को सुधारने का प्रयास नहीं करता, तो मृत्यु के बाद वह आत्मकल्याण के लिए कुछ नहीं कर सकता।
  • आध्यात्मिक रोग: यह जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि मानसिक दोषों के रूप में भी देखा जा सकता है। यदि व्यक्ति इन दोषों से मुक्त होने का प्रयास नहीं करता, तो परलोक में पछताने के अलावा कुछ नहीं रह जाता।

2. "चिकित्सा" का अर्थ:

  • जीवन में रहते हुए आत्मसंस्कार, सदाचार, सत्संग, भक्ति, ध्यान, सत्कर्मों के माध्यम से आत्मशुद्धि करना ही वास्तविक चिकित्सा है।
  • धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि इस जीवन का मुख्य उद्देश्य आत्मोन्नति करना है। यदि व्यक्ति जीवन रहते हुए आत्मकल्याण के लिए प्रयत्नशील नहीं होता, तो मृत्यु के बाद उसे इसका दंड भुगतना पड़ता है।

3. "निरौषधस्थान" का अर्थ:

  • श्मशान: मृत्यु के बाद शरीर श्मशान चला जाता है, जहाँ कोई उपचार संभव नहीं होता।
  • परलोक: यदि व्यक्ति पापों से मुक्त हुए बिना संसार से चला जाता है, तो मृत्यु के बाद उसे दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं, और वहाँ कोई सुधार या प्रायश्चित का अवसर नहीं होता।
  • नरक: यदि व्यक्ति अधर्म और पाप में लिप्त रहता है, तो मृत्यु के बाद उसे नरक में कष्ट भोगने पड़ते हैं, जहाँ कोई भी उसे बचाने या सुधारने नहीं आता।

श्लोक से प्राप्त शिक्षा:

  1. जीवन का सदुपयोग करें— हमें इस जीवन में ही अपने दोषों, पापों और बुराइयों का नाश करना चाहिए, क्योंकि मृत्यु के बाद सुधार की कोई संभावना नहीं होती।
  2. आत्मशुद्धि के लिए प्रयास करें— जैसे शरीर के रोग का उपचार आवश्यक है, वैसे ही आत्मा के रोग (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार) का उपचार भी अनिवार्य है।
  3. धर्म और सत्कर्मों का पालन करें— जीवन को नैतिकता, सच्चाई, भक्ति और सेवा से संवारना चाहिए, ताकि मृत्यु के बाद पश्चात्ताप न करना पड़े।
  4. मृत्यु के पहले ही सुधार करें— मृत्यु के बाद प्रायश्चित का कोई लाभ नहीं होता, इसलिए जब तक अवसर है, तब तक सद्गुणों को अपनाकर अपना जीवन श्रेष्ठ बनाना चाहिए।

संशयः 

य इहैव अस्मिन्नेव लोके नरकव्याधेः चिकित्सां न करोति । स रोगी मृत्वा निरौषधस्थानं गत्वा किं करिष्यति। नरकव्याधेर्नाम कष्टकररोगस्य किं वा पापमूलानां कामादिविकाराणां किं वाऽन्यश्चित् कश्चिदर्थः। कष्टकररोगस्येति चेद्धर्मच्युतिभयान्न करोति चिकित्साम् इत्यर्थः किम्। निरौषधस्थानं नाम श्मशानं किं वा परलोकं किं वाऽन्यश्चित् कश्चिदर्थो वा।

संस्कृत भावानुवादः

श्लोकस्य व्याख्या अत्यंत गूढ़ार्थयुक्ता अस्ति। एषः श्लोकः आत्मकल्याणस्य तथा धर्माचरणस्य अनिवार्यता दर्शयति। अत्र "नरकव्याधेः" इत्यस्य बहुविधाः व्याख्याः सम्भवन्ति—

  1. कष्टकररोगः— यदि नरकव्याधेः अर्थः दारुणरोगः स्वीकृतः, तर्हि अस्य चिकित्सायाः अभावः व्यक्ति-जीवनस्य विनाशाय भवति। इह एव शरीरस्थे रोगे यः चिकित्सां न करोति, स मृत्योरनन्तरं निरौषधस्थाने (श्मशाने) गत्वा किं करिष्यति?

  2. कामादिविकाराः— यदि नरकव्याधिः इत्यस्य अर्थः पापजन्य विकाराः (काम, क्रोध, लोभादयः) स्वीक्रियन्ते, तर्हि मनुष्यः यावज्जीवं तेषां परिहारं न करोति चेत् मृत्योः परं किं करिष्यति? परलोकगमनानन्तरं प्रायश्चित्ताय अवसरः नास्ति।

  3. धर्मच्युतिभयात् चिकित्सानिषेधः— यदि कोऽपि व्यक्ति धर्माचरणात् च्युतिं भयात् चिकित्सायाः परित्यागं करोति, तर्हि स जीवनस्य एवं परलोकस्य उभयोरपि हानिं प्राप्नुयात्।

  4. निरौषधस्थानम्— श्मशानं, परलोकं वा। यदि शरीरत्यागानन्तरं व्यक्ति औषधं (प्रायश्चित्तं, आत्मशोधनं) कर्तुं न शक्नोति, तर्हि तेन जीवन एव आत्मकल्याणाय यत्नः कर्तव्यः।

अतः अस्य श्लोकस्य मूलसंदेशः अस्ति— यथासम्भवम् आत्मशुद्धये तथा धर्मपालनाय प्रयत्नः इह एव कर्तव्यः, मृत्योः परं पश्चात्तापेन किं लाभः?

हिन्दी भावानुवाद

यह श्लोक आत्मकल्याण और धर्माचरण की अनिवार्यता को दर्शाता है। इसमें "नरकव्याधि" शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं—

  1. कष्टदायक रोग— यदि "नरकव्याधि" का अर्थ किसी दारुण रोग से लिया जाए, तो जो व्यक्ति इस लोक में रहते हुए उसका इलाज नहीं कराता, वह मरने के बाद निरौषध स्थान (जहाँ कोई औषधि नहीं मिल सकती, अर्थात श्मशान या परलोक) जाकर क्या करेगा?

  2. काम, क्रोध, लोभ आदि विकार— यदि इसे पापजनित विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि) के रूप में समझें, तो जब तक व्यक्ति जीवित है, तब तक वह इनका त्याग करके आत्मशुद्धि कर सकता है। लेकिन यदि वह ऐसा नहीं करता, तो मृत्यु के बाद वह क्या कर सकेगा? परलोक में तो सुधार की कोई संभावना नहीं रहती।

  3. धर्म से पतन का भय— यदि कोई धर्म से विमुख होकर अपने आत्मिक और नैतिक सुधार के प्रयास नहीं करता, तो वह जीवन में भी कष्ट भोगेगा और मृत्यु के बाद भी उसका कल्याण नहीं हो पाएगा।

  4. निरौषध स्थान— इसका अर्थ श्मशान, परलोक या कोई ऐसी स्थिति भी हो सकता है जहाँ कोई उपाय संभव नहीं हो। यदि जीवन में रहते हुए ही उपचार (आत्मसुधार, प्रायश्चित, धर्माचरण) न किया जाए, तो मृत्यु के बाद कुछ भी करना असंभव हो जाता है।

निष्कर्ष:

यह श्लोक हमें चेतावनी देता है कि यदि हम इस जीवन में अपने आध्यात्मिक, नैतिक और मानसिक दोषों को सुधारने का प्रयास नहीं करते, तो मृत्यु के बाद कुछ भी संभव नहीं होगा। इसलिए, जब तक जीवन है, तब तक धर्माचरण, भक्ति, आत्मसुधार और सद्कर्मों के मार्ग पर चलना ही सच्ची बुद्धिमानी है।

इस श्लोक का मुख्य संदेश यही है कि आत्मशुद्धि, धर्माचरण और विकारों से मुक्ति का प्रयास इसी जीवन में करना चाहिए, क्योंकि मृत्यु के बाद पश्चात्ताप करने से कोई लाभ नहीं होगा।


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