अभिज्ञान-शाकुन्तलम् - चतुर्थ अङ्क श्लोक संख्या 9 (पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं..)

Sooraj Krishna Shastri
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अभिज्ञान-शाकुन्तलम् चतुर्थ अङ्क श्लोक संख्या 9 (पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं..)
अभिज्ञान-शाकुन्तलम् चतुर्थ अङ्क श्लोक संख्या 9 (पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं..)

अभिज्ञान-शाकुन्तलम् चतुर्थ अङ्क श्लोक संख्या 9 (पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं..)

प्रतिष्ठस्वेदानीम्‌ । (सदृष्टिक्षेपम्‌) क्व ते शार्ङ्गरवमिश्राः ।

व्याकरण एवं शब्दार्थ – प्रतिष्ठस्व ~ प्रति+स्था+लोट् म०पु०ए०व० = प्रस्थान करो । स्था" धातु परस्मैपद है, पर श्र उपसर्ग के योग मे समवप्रविभ्यः स्थः" सूत्र से आत्मनेपद हुआ है । सदृष्टिक्षेपम्‌ - दष्टः क्षेपः दृष्टिक्षेपः तेन सह सदृष्टिक्षेपम्‌ (अव्ययीभाव समास) = दृष्टिक्षेपपूवर्कम् अर्थात्‌ दृष्टि घुमाकर । अब प्रस्थान करो । (इधर-उधर दृष्टि डालकर) वे शार्ङ्गरव आदि कहाँ हैं।

(प्रविश्य) शिष्यः-- भगवन्‌ , इमे स्मः । (प्रवेश करके) शिष्य-- भगवन्‌ , ये हम लोग हे ।

व्याकरण एवं शब्दार्थ - स्मः=अस्‌+उ०पु०ब०व ० = हैँ । काञ्यपः- भगिन्यास्ते मार्गमादेशय । कण्व--अपनी बहन शकुन्तला को मार्ग दिखाओ (बताओ) । व्याकरण एवं शब्दार्थ--आदेशय - आनदिश्‌+णिच्‌ म०पु०ए०व० = दिखाओ (बताओ) । शार्ङ्धरव- इत इतो भवती । (सर्वे परिक्रामन्ति) । शाङ्खरव--आप इधर से, इधर से (आइये) । (सभी घूमते है) ।

टिप्पणी- परपत्नी तथा असम्बद्धं स्री को भवतीः सुभगे" तथा भगिनी' शब्द कह कर पुकारना चाहिये-- परपत्नी तु या स्री स्यादसम्बन्द्धा तु योनितः । तां बुयात्‌ भवतीत्येव सुभगे भगिनीति च ॥

काश्यपः- भो भोः, सन्निहितास्तपोवनतरवः ।

व्याकरण एवं शब्दार्थ-- सन्निहिताः - सम्‌+धा+क्त (धा को हि) प्र०ब०व० = यह पद तपोवनतरवः का विशेषण है । तपोवनतरवः - तपोवनस्य तरवः तपोवनतरवः तत्सम्बुद्धौ तपोवनतरवः = तपोवन के वृक्षो ।

कण्व हे हे समीपस्थ तपोवन के वृक्षों,-

पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या

    नादत्ते प्रियमण्डनाऽपि भवतां स्नेहेन या पल्लवम्‌ ।

आद्ये वः कुसुमप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः

  सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम्‌ ।। ९ ।।

अन्वय- युष्मासु अपीतेषु या प्रथमं जलं पातुं न व्यवस्यति, प्रियमण्डना अपि या भवतां स्नेहेन पल्लवं न आदत्ते, वः आधये कुसुमप्रसूतिसमये यस्याः उत्सवः भवति, सा इयं शकुन्तला पतिगृहं याति, सर्वैः अनुज्ञायताम्‌।

शब्दार्थ - युष्मासु = तुम (आप) लोगो के । अपीतेषु = बिना जल पिलाये । या = जो, प्रथमम्‌ = पहले । जलम्‌ = जल । पातुम्‌ = पीने के लिये । न व्यवस्यति = (प्रयत्न) नही करती थी (पवृत्त नहीं होती थी) । प्रियमण्डना = प्रिय हं अलङ्कार (मण्डन) जिसको ऐसी (आभूषण-प्रिया) । अपि = भी । या = जो । भवताम्‌ = आप लोगो के। स्नेहेन = स्नेह (प्रेम) के कारण। पल्लवम्‌ = नये पत्तो को । न = नहीं । आदत्ते = लेती थी (तोडती थी) । वः = तुम (आप) लोग के । आद्ये = प्रथम । कुसुमप्रसूतिसमये = पुष्प निकलने के समय । यस्याः = जिसका । उत्सवः = उत्सव । भवति = होता था। सा = वह । इयम्‌ = यह । शकुन्तला = शकुन्तला । पतिगृहम्‌ = पति के घर (ससुराल) । याति = जा रही हे । सर्वैः = सभी लोगों के द्वारा । अनुज्ञायताम्‌ = अनुमति (स्वीकृति) दी जानी चाहिये (अर्थात्‌ आप सभी लोग जाने की अनुमति दें) ।

अनुवाद- तुम (आप) लोगों को जल पिलाये बिना जो पहले जल पीने के लिये प्रयास नहीं करती थी (अर्थात्‌ आप लोगों को बिना सचे जो जल नहीं पीती थी), आभूषण कौ प्रेमी हने पर भी जो आप लोगो के स्तेह के कारण (आप लोगों के) नये पत्तो को नहीं लेती (तोडती) थी, तुम (आप) लोगो के पहली वार पुष्प निकलने के समय जिसका उत्सव होता था (जो आनन्दित होती थी) वही यह शकुन्तला (अपने) पति के घर (ससुराल) जा रही है। (आप) सभी लोग (उसे) अनुमति (स्वीकृति) प्रदान करे।

संस्कृत व्याख्या-- युष्मासु - भवत्सु तपोवनतरुषु, अपीतेषु - असिक्तेषु, या शकुन्तला, प्रथमं - पूर्वम्‌ , जलं - सलिलम्‌ , पातुं - ग्रहीतुम्‌ , न व्यवस्यति - न प्रवर्तते स्म, प्रियमण्डना अपि - आभूषणप्रियाऽपि, या - शकुन्तला, भवतां - तपोवनतरूणाम्‌, स्नेहेन अनुरागेण, पल्लवं - किसलयम्‌ , न आदत्ते - न गृहणति स्म, वः - युष्माकम्‌ (भवताम्‌), आद्ये - प्रथमे, कुसुमप्रसूतिसमये - पुष्पोद्रमकाले, यस्याः - शकुन्तलायाः उत्सवः आनन्दः भवति जायते स्म सा इयं शकुन्तला-एतादृशी, एषा शकुन्तला, पतिगृहं - भतृभवनं, याति गच्छति, सर्वैः - सकलैः युष्माभिः (भवद्धिः), अनुन्ञायताम्‌ - अनुमन्यताम्‌ पतिगरहगमनायेति शेषः ।

संस्कृत- सरलार्थः--शकुन्तलप्रस्थान-काले तपोवन वृक्षान्‌ आमन्त्रयन्‌ कण्वो वदति या शकुन्तला युष्मासु (भवत्सु) अकृतजलसेकेषु पूर्वं जलं पातुं न यतते, स्म आभूषणप्रिया सत्यपि या भवतां स्नेहवशात्‌ भवत्किसलयं न गृहणाति स्म, भवतां प्रथमपुष्पोद्भवकाले यस्याः आनन्दातिरेको जायते स्म, एतादृशी शकुन्तला (सम्प्रति) पतिभवनं गच्छति - अतो भवद्धिः सर्वैः पतिगृहगमनायानुमतिर्दीयताम्‌ ।

व्याकरण- अपीतेषु - पीतं पानम्‌ अस्ति येषां ते पीताः मत्वर्थ मे (अर्श आदिभ्योऽच्‌, से अच्‌ । न पीताः अपीताः. तेषु = जिन्होने जल नहीं पिया है । यह पद “युस्मासु का विशेषण है । “या' धातु सकर्मक हे अतः कर्तृवाच्य में क्त" प्रत्यय न होने से अपेक्षित अर्थ नही हो सकता । अतः इस प्रकार की व्युत्पत्ति की जाती है । (२) दूसरे प्रकार से यह अर्थ हो सकता है - “पीत शब्द का पीत जल के लिये गौण प्रयोग मानकर यह अर्थ होगा - जिन्होने जल नहीं पिया हे । महाभाष्य में भी कहा गया है । अकारो मत्वर्थीयः । विभक्तमेषामस्तीति पीतमेषामस्तीति पीता अथवा उत्तरपदलोपो द्रष्टव्यः विभक्तधना विभक्त, पीतोदकाः पीताः केवरमते गम्यमानस्या प्रयोग एव लोपोऽभिमतः । व्यवस्यति - वि+अव्‌+लट्‌ प्र०पु०ए०व० । कुसुमप्रसूतिसमये कुसुमानां प्रसूतेः (प्र+सु+क्तिन्‌ समये (तत्पुरुष) । अनुज्ञायताम्‌ - अनु+ज्ञा*यक्‌+लोट् प्र०पुए०व० । प्रियमण्डना = प्रियं मण्डनं यस्याः सा (बहु०स०)

अलङ्कार - (१) अचेतन वृक्षों पर चेतन-व्यवहार (श्रातृभावमूलक व्यवहार) का अरोप होने से "समासोक्ति" अलङ्कार है । (२) वृक्षों के किसलयो को न तोडने में, नादत्ते - स्नेहेन या पल्लवम्‌ में वृक्षों के प्रति शकुन्तला का स्नेह कारण है, अतः "काव्यलिङ्गं अलङ्कार है । (३) वृक्षों के प्रति शकुन्तला के स्नेहाधिक्य का प्रतिपादन करने के लिये प्रथम तीन चरणों में तीन कारणो का उल्लेख होने से "समुच्चय' अलङ्कार है । (४) श्लोक में छेकानुप्रास, वृत्यनुप्रास की भी स्थिति है ।

छन्द--श्लोक में “शार्दूलविक्रीडित' छन्द है ।

टिप्पणी--(१) यह श्लोक शाकुन्तल के चतुर्थं अङ्क के चार उत्तम श्लोकों में परिगणित है । (२) इसमें अचेतन प्रकृति में चेतन जैसे व्यवहार की प्रतीति होने से दोनों के प्रगाढ (घनिष्ठ) सम्बन्ध का बोध होता है । कण्व द्रारा वृक्षों से शकुन्तला के पतिगरह-गमन के लिये अनुमति मांगना यह सिद्ध करता है कि उनके आश्रम मे अचेतन वृक्ष भी चेतन कौ भति मान्य थे । (३) शकुन्तला का वृक्षों को सींचे बिना जलपान न करना, उसके आभूषण प्रिय होने पर भी वृक्षो से किसलयों को न तोड़ना ओर उनके प्रथम पुष्पोद्धव के अवसर पर उसके द्वारा उत्सव का मनाया जाना शकुन्तला के अतिशय प्रकृति प्रेम को प्रकट करता हे । (४) प्रकृति-प्रेम के कारण शकुन्तला न केवल कण्व की ही पुत्री है अपितु वह आश्रम के वृक्षों आदि की भी (पुत्री-बहन) बन गयी है अतः उनसे अनुमति लेना आवश्यक है । (५) प्रथमम्‌ - शकुन्तला प्रतिदिन (प्रातःकाल के समय) पहले वृक्षों को जल देती थी अर्थात्‌ उन्हं सीचती थी तदनतर स्वयं जलपान में प्रवृत्त होती थी । प्रथमं का अभिप्राय यही हे । वह दिन में पहली बार तभी जलपान करती थी जब वृक्षो को सच लेती थी । उसका यह अभिप्राय नहीं हे कि प्रत्येक बार स्वयं जल पीने से पूर्व वृक्षों को सीचती थी ।


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