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संस्कृत श्लोक: "न श्रेयो सततं तेजो न नित्यं श्रेयसी क्षमा" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "न श्रेयो सततं तेजो न नित्यं श्रेयसी क्षमा" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
🙏जय श्री राम🌷सुप्रभातम्🙏
यह उद्धृत नीति-श्लोक एक गहन जीवन-दर्शन को प्रकट करता है। प्रस्तुत है इसका हिन्दी अनुवाद, शब्दार्थ, व्याकरणीय विश्लेषण एवं आधुनिक सन्दर्भ सहित विस्तृत प्रस्तुतीकरण:
श्लोक:
न श्रेयो सततं तेजो न नित्यं श्रेयसी क्षमा।
तस्मान्नित्यं क्षमा तात पण्डितैरपवादिता॥
शब्दार्थ:
- न – नहीं
- श्रेयः – कल्याणकारी, हितकर
- सततम् – हमेशा, निरन्तर
- तेजः – क्रोध, प्रतिकार की शक्ति, तेजस्विता
- नित्यं – हमेशा, सदैव
- श्रेयसी – श्रेष्ठ, हितकारिणी
- क्षमा – सहिष्णुता, क्षमाशीलता
- तस्मात् – अतः, इसलिए
- तात – हे प्रिय (पुत्रवत शिष्य को संबोधन)
- पण्डितैः – विद्वानों द्वारा
- अपवादिता – अपवाद बताई गई है, कुछ सीमाएं लगाई गई हैं
हिन्दी अनुवाद (भावार्थ):
न तो सदैव क्रोध करना श्रेयस्कर होता है, और न ही हर स्थिति में क्षमा करना हितकारी होता है।
इसलिए हे प्रिय! विद्वानों ने क्षमा को भी कुछ विशेष परिस्थितियों में त्याज्य (अपवाद) माना है।
व्याकरणीय विश्लेषण:
- न श्रेयो सततं तेजः – तेजः (नपुंसकलिंग, एकवचन) का कर्ता रूप; सततम् (क्रिया विशेषण) और न (निषेध) के साथ।
- न नित्यं श्रेयसी क्षमा – क्षमा (स्त्रीलिंग, एकवचन) और श्रेयसी (विशेषण – श्रेष्ठ)।
- तस्मात् – पंचमी विभक्ति, कारणवाचक
- पण्डितैः – तृतीया विभक्ति, कर्तृकारक
- अपवादिता – क्रियापद, अपवाद् धातु से निष्पन्न – 'अपवाद की गई है'।
आधुनिक सन्दर्भ:
इस श्लोक का सार आज के व्यवहारिक जीवन में अत्यंत उपयोगी है:
- हम प्रायः मानते हैं कि क्षमा करना सदैव उत्तम है, परंतु जब अन्याय, अपराध या अत्याचार बारंबार होता है, तब क्षमा करना कमज़ोरी या अंध-सहनशीलता बन जाती है।
- इसी प्रकार, हर समय क्रोध करना या प्रतिकार करना अहंकार को दर्शाता है, जो अंततः विनाश का कारण बनता है।
- इसीलिए जीवन में संतुलन आवश्यक है – कब क्षमा करनी है, और कब तेज दिखाना है – यह विवेक ही तय करता है।
संवादात्मक नीति-कथा
श्लोकाधारित – "न श्रेयो सततं तेजो न नित्यं श्रेयसी क्षमा..."
पात्र:
- गुरु वरदराज – वृद्ध, ज्ञानी तपस्वी
- शिष्य आनन्द – जिज्ञासु, सहनशील युवक
- दुष्टक – गाँव का अहंकारी युवक
[प्रारम्भ – गुरु आश्रम में]
आनन्द (विनम्र भाव से):
गुरुदेव! मुझे क्षमा की महिमा पर बड़ा विश्वास है। मैंने संकल्प किया है कि किसी से कभी क्रोध नहीं करूँगा। सब कुछ सह लूँगा। यही धर्म है ना?
गुरु वरदराज (मुस्कराकर):
पुत्र, क्षमा निश्चित रूप से धर्म है, परंतु उसे अविवेकपूर्वक अपनाना भी अधर्म की ओर ले जाता है।
आनन्द (आश्चर्य से):
परंतु गुरुदेव! क्षमा तो महान है, क्या वह कहीं भी और कभी भी अनुचित हो सकती है?
गुरु (गंभीर होकर):
सुनो एक कथा...
[कथा – गांव के दो युवक]
ग्राम सत्यव्रतपुर में दो युवक रहते थे – सत्यकर्म और दुष्टक।
सत्यकर्म अत्यंत क्षमाशील था, और दुष्टक अत्यंत उद्दंड। दुष्टक बार-बार सत्यकर्म को अपमानित करता, उसकी फसलें रौंद देता, पशु छुड़ा लेता – पर सत्यकर्म हर बार मुस्करा कर कहता,
"क्षमा ही धर्म है।"
एक दिन दुष्टक उसकी बहन को भी अपमानित करने आया। तब गाँव के वृद्ध पण्डित ने सत्यकर्म से कहा:
"वत्स! क्षमा तब तक पुण्य है, जब तक वह अधर्म को पोषित न करे।अधर्म के समक्ष मौन रहना भी अधर्म में सहभागी बनना है।"
तब सत्यकर्म ने साहस कर पंचायत में न्याय की गुहार लगाई, साक्ष्य प्रस्तुत किए और दुष्टक को दण्डित कराया। गाँव में शांति लौटी।
[आश्रम में पुनः]
गुरु वरदराज (शिष्य की ओर देखकर):
"पुत्र! यही तात्पर्य है –
न तो सदैव क्रोध उत्तम है,
न ही सदैव क्षमा श्रेयस्कर।
बुद्धिमान वही है जो अवसर के अनुसार निर्णय करे।"
आनन्द (नत मस्तक होकर):
गुरुदेव! अब समझ गया –
"सहनशीलता यदि धर्म की रक्षा न करे, तो वह कमजोरी है, न कि सद्गुण।"
नीति-सार:
"धर्म विवेक से चलता है, अंधा आदर्श कभी-कभी अधर्म का पोषण कर बैठता है।"