संस्कृत श्लोक: "न योजनशतं दूरं वाह्यमानस्य तृष्णया" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "न योजनशतं दूरं वाह्यमानस्य तृष्णया" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "न योजनशतं दूरं वाह्यमानस्य तृष्णया" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद


संस्कृत श्लोक: "न योजनशतं दूरं वाह्यमानस्य तृष्णया" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

🙏जय श्री राम🌹सुप्रभातम्🙏
 चयनित नीति-श्लोक अत्यंत गहन अर्थ वाला है — यह तृष्णा और संतोष के बीच का स्पष्ट अन्तर दिखाता है। नीचे इसका विस्तृत पाठ, शाब्दिक विश्लेषण, व्याकरणिक विवेचन, भावार्थ एवं आधुनिक सन्दर्भ सहित विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है:


श्लोक (संस्कृत):

न योजनशतं दूरं वाह्यमानस्य तृष्णया ।
सन्तुष्टस्य करप्राप्तेऽप्यर्थे भवति नादरः ॥


शाब्दिक विश्लेषण:

पद अर्थ
नहीं
योजनशतम् सौ योजन (१ योजना ≈ १२–१५ किमी)
दूरम् दूर
वाह्यमानस्य घसीटे जा रहे, खींचे जा रहे व्यक्ति का
तृष्णया तृष्णा द्वारा, लोभ से
सन्तुष्टस्य संतुष्ट व्यक्ति का
करप्राप्तेऽपि हाथ में प्राप्त होने पर भी
अर्थे धन या पदार्थ में
भवति होता है
न आदरः कोई आदर नहीं होता, कोई मोह नहीं

व्याकरणिक विश्लेषण:

  • वाह्यमानस्य — कर्मणि वर्तमान कृदन्त (passive present participle)
  • करप्राप्तेऽपि — “कर” = हाथ, “प्राप्ते” = प्राप्त हुए (सप्तमी), “अपि” = होने पर भी
  • तृष्णया / सन्तुष्टस्य — तृतीया/षष्ठी विभक्ति में कारक और कर्ता का बोध

हिन्दी भावार्थ (सरल भाषा में):

जो व्यक्ति तृष्णा के वश में होता है,
उसके लिए सौ योजन (यानी सैकड़ों किलोमीटर) की दूरी भी कम लगती है —
वह लोभ के पीछे दौड़ता ही चला जाता है।

परंतु जो संतुष्ट व्यक्ति होता है,
वह तो हाथ में आए हुए धन को भी महत्व नहीं देता।
उसे धन का लोभ नहीं होता, क्योंकि वह पहले से ही पूर्ण अनुभव करता है।


आधुनिक सन्दर्भ में व्याख्या:

  • आज के उपभोक्तावादी युग में तृष्णा की कोई सीमा नहीं रह गई है।
    व्यक्ति अधिक कमाने, और अधिक पाने के लिए नौकरी बदलता है, देश बदलता है, जीवन बदलता है, फिर भी संतुष्ट नहीं होता।

  • इसके विपरीत, संतोषी व्यक्ति सादा जीवन जीता है।
    उसे अपने पास जो है, उसी में आनंद आता है।
    वह सुख को बाह्य साधनों से नहीं, अंतर्मन से अनुभव करता है।

  • यह नीति श्लोक हमें बताता है कि:
    "सुख पाने के लिए दूरी या साधन की आवश्यकता नहीं, मन की शांति और संतोष चाहिए।"


नैतिक संदेश:

तृष्णा व्यक्ति को हर दिशा में खींचती है,
पर संतोष व्यक्ति को स्थिर और शांत बनाता है।


प्रेरक संवादात्मक नीति-कथा (संक्षेप में):

एक बार दो मित्रों ने यात्रा शुरू की —
एक का नाम तृष्णु, और दूसरा संतोष

तृष्णु दूर-दूर तक दौड़ता रहा, सोना, भूमि, पद, प्रतिष्ठा, सब पाने के लिए।
संतोष अपने घर के आंगन में तुलसी जलाता रहा,
पढ़ता रहा, रचता रहा, और प्रसन्न रहता रहा।

आखिर में तृष्णु थका-हारा लौट आया —
और देखा संतोष के पास जो शांति है, वह उसे हजार योजन दौड़ने पर भी नहीं मिली

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