संस्कृत श्लोक: "समुन्नतापि गृध्रस्य दृष्टिर्दुर्मांसदर्शिनी" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
By -
संस्कृत श्लोक: "समुन्नतापि गृध्रस्य दृष्टिर्दुर्मांसदर्शिनी" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "समुन्नतापि गृध्रस्य दृष्टिर्दुर्मांसदर्शिनी" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद


संस्कृत श्लोक: "समुन्नतापि गृध्रस्य दृष्टिर्दुर्मांसदर्शिनी" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

🙏 जय श्री राम। सुप्रभातम्।
आपके द्वारा प्रस्तुत श्लोक एक गूढ़ नीति-संदेश समेटे हुए है। आइए इसका विस्तृत विश्लेषण करते हैं —


श्लोकः

समुन्नतापि गृध्रस्य दृष्टिर्दुर्मांसदर्शिनी ।
समुन्नतोऽपि दुर्मेधा हेयकार्यैकचिन्तकः ॥


शाब्दिक अनुवाद:

  • समुन्नता अपि = ऊँचा होने पर भी

  • गृध्रस्य = गिद्ध का

  • दृष्टिः = दृष्टि / दृष्टिकोण

  • दुर्मांसदर्शिनी = सड़े-गले माँस की ओर देखने वाली

  • समुन्नतः अपि = ऊँचे पद पर (या सम्मान में) स्थित होने पर भी

  • दुर्मेधा = दुष्ट बुद्धि वाला

  • हेयकार्यैकचिन्तकः = केवल हेय (त्याज्य/नीच) कार्यों का ही चिंतन करने वाला


हिन्दी भावार्थ:

गिद्ध चाहे जितनी ऊँचाई पर उड़ रहा हो, उसकी दृष्टि सड़े-गले माँस पर ही रहती है।
उसी प्रकार दुष्ट बुद्धि वाला व्यक्ति चाहे कितना भी ऊँचे पद पर क्यों न पहुँच जाए, उसका चिंतन सदैव नीच और हेय कार्यों की ओर ही होता है।


व्याकरणिक विश्लेषण:

  • समुन्नतापि“समुन्नत” (उन्नत, ऊँचा) + “अपि” (भी) = "ऊँचा होते हुए भी" — सप्तमी विभक्ति, एकवचन
  • गृध्रस्य दृष्टिः“गृध्रस्य” (गिद्ध का – षष्ठी) + “दृष्टिः” (नज़र – प्रथमा, एकवचन)
  • दुर्मांसदर्शिनीदुर् (बुरा) + मांस (माँस) + दर्शिनी (देखने वाली – स्त्रीलिंग विशेषण)
  • दुर्मेधादुर् (बुरा) + मेधा (बुद्धि)
  • हेयकार्यैकचिन्तकःहेय (त्याज्य) + कार्य (कर्म) + एकचिन्तकः (केवल उसी का विचार करने वाला)

आधुनिक सन्दर्भ:

आज के संदर्भ में यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि—

  • किसी व्यक्ति का पद, लोकप्रियता, या प्रतिष्ठा उसके चरित्र और चिंतन की गुणवत्ता की गारंटी नहीं है।
  • यदि किसी की बुद्धि दूषित है, तो वह ऊँची स्थिति पर होकर भी सड़ा हुआ सोचता है।
  • जैसे गिद्ध ऊँचाई पर उड़कर भी मृत माँस की खोज करता है, वैसे ही दुष्ट व्यक्ति सदैव दूसरों की कमजोरियाँ, नीच कर्म, या नाशकारी योजनाओं की ओर झुकाव रखता है।

उदाहरण:

  • कोई भ्रष्ट राजनेता, ऊँचे पद पर होने के बावजूद केवल लाभ और षड्यंत्र की योजनाएँ बनाता है।
  • कोई ज्ञानी या प्रोफेसर भी यदि स्वार्थी और हानिप्रद विचार रखता है, तो उसके ज्ञान से समाज को हानि ही होती है।

नीति संदेश:

  • चरित्र और दृष्टिकोण की ऊँचाई ही सच्ची ऊँचाई है, न कि केवल स्थान या प्रतिष्ठा
  • अपने विचारों को ऊँचा रखें; वरना उच्च पद पर रहकर भी आप गिद्ध की तरह हेय प्रवृत्तियों में संलग्न हो सकते हैं।

संवादात्मक नीति-कथा

शीर्षक: "गिद्ध की दृष्टि"

पात्रः

  1. आचार्य वसिष्ठ – एक तपस्वी, नीतिशास्त्र के ज्ञाता
  2. शिष्य अनुराग – जिज्ञासु, युवा विद्यार्थी
  3. राजकुमार वीर्यवंत – राज्य का भावी उत्तराधिकारी
  4. दुर्बुद्धि – राजा का एक चतुर पर धूर्त सलाहकार

[प्रारंभ – गुरुकुल की कक्षा में]

अनुराग:
गुरुदेव! मैं एक बात समझ नहीं पा रहा। दुर्बुद्धि नामक मंत्री बहुत ऊँचे पद पर है, सब उसका सम्मान भी करते हैं, लेकिन मुझे उसके विचार और कर्म सदा दुष्ट प्रतीत होते हैं।

आचार्य वसिष्ठ (मुस्कराते हुए):
तुमने एक गूढ़ सत्य को पहचान लिया है, वत्स। यही नीति का सार है। सुनो, एक श्लोक है—

“समुन्नतापि गृध्रस्य दृष्टिर्दुर्मांसदर्शिनी।
समुन्नतोऽपि दुर्मेधा हेयकार्यैकचिन्तकः॥”

अनुराग:
गुरुदेव! इसका अर्थ क्या है?

आचार्य वसिष्ठ:
जैसे गिद्ध आकाश में ऊँचा उड़ता है, पर उसकी दृष्टि केवल सड़े-गले माँस पर होती है; वैसे ही दुष्ट बुद्धि वाला व्यक्ति चाहे कितने भी ऊँचे पद पर क्यों न पहुँच जाए, वह सदा नीच और अहितकारी कार्यों का ही चिंतन करता है।

अनुराग:
तो क्या ऊँचा पद किसी को महान नहीं बनाता?

आचार्य वसिष्ठ:
बिल्कुल नहीं। पद तो केवल स्थान है। महानता तो विचारों में होती है। यदि विचार भ्रष्ट हैं, तो गिद्ध की तरह वह ऊँचाई पर रहकर भी नीचता को ही देखता है।


[दृश्य परिवर्तन – राजसभा में]

राजकुमार वीर्यवंत:
दुर्बुद्धि! प्रजा ने आरोप लगाया है कि आप उनकी ज़मीन छीनकर महल के लिए उपयोग करवा रहे हैं?

दुर्बुद्धि (कुटिल मुस्कान से):
महाराज! प्रजा तो सदा विलाप करती है। हम ऊँचे उद्देश्य के लिए निर्णय लेते हैं। उन्हें क्या समझ?

वीर्यवंत:
परन्तु आपके आदेशों से अनेक परिवार बेघर हो गए! क्या यह नीति है?

[राजसभा में मौन छा जाता है]


[रात्रि में, आचार्य वसिष्ठ से परामर्श]

वीर्यवंत:
गुरुदेव! आप सही कहते थे। पद नहीं, विचार ही व्यक्ति को ऊँचा बनाते हैं।

आचार्य वसिष्ठ:
वत्स, जो आकाश में जाकर भी केवल गंदगी ढूँढ़ता है, वही गिद्ध कहलाता है। और जो ज़मीन पर रहकर भी सबके हित की सोचता है, वही ऋषि कहलाता है। निर्णय तुम्हें करना है—गिद्ध बनना है या ऋषि।


[अंतिम दृश्य – राजसभा]

राजकुमार वीर्यवंत (दृढ़ स्वर में):
दुर्बुद्धि को उसके पद से हटाया जाता है। राज्य को ऐसे दृष्टिकोण वाले लोगों की आवश्यकता नहीं।

राजसभा में तालियाँ बजती हैं। आचार्य मौन मुस्कान के साथ आशीर्वाद देते हैं।


नीति सारांश:
"दृष्टिकोण की शुद्धता ही सच्ची ऊँचाई है। पद की नहीं, विचारों की महत्ता होती है।"

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!