Married life: वैवाहिक संबंध गोल्डन हार और कंगन तक

Sooraj Krishna Shastri
By -
0

 

Relationship in modern age of married person. Married life: वैवाहिक संबंध गोल्डन हार और कंगन तक
Relationship in modern age of married person. Married life: वैवाहिक संबंध गोल्डन हार और कंगन तक

Married life: वैवाहिक संबंध गोल्डन हार और कंगन तक

 किसी विश्वास पात्र स्त्री ने आज कहा कि "आजकल शादियाँ उसकी टूट रही हैं जो अपनी बीवी को गोल्ड का हार और कंगन नहीं दे पाते" यह सुनकर मैं दंग रह गया। इस विषय को लेकर आज के समाज की वास्तविकता को दर्शाता एक समाजशास्त्रीय विश्लेषणात्मक लेख प्रकाशित कर रहा हूँ —


प्रस्तावना

समाज में विवाह को एक पवित्र संस्था माना जाता है, जो न केवल दो व्यक्तियों को, बल्कि दो परिवारों को भी जोड़ती है। परंतु जैसे-जैसे समय बदला है, विवाह की परिभाषा और उसमें निहित अपेक्षाएँ भी बदलती गई हैं। आज एक स्त्री द्वारा यह कहना कि "अब शादियाँ उसकी टूट रही हैं जो अपनी बीवी को गोल्ड का हार और कंगन नहीं दे पाते" न केवल एक निजी अनुभव को व्यक्त करता है, बल्कि समाज की बदलती मानसिकता और संबंधों में आ रहे भौतिकता के वर्चस्व को भी उजागर करता है। यह कथन आधुनिक युग में संबंधों की सच्चाई को बेपर्दा करता है और इस पर गंभीर विमर्श की आवश्यकता है।


1. विवाह संस्था का बदलता स्वरूप

परंपरागत भारतीय समाज में विवाह एक संस्कार माना जाता था — सात फेरों, सात वचनों और आजीवन साथ निभाने की शपथ के साथ बंधा हुआ एक पवित्र अनुबंध। परंतु आज विवाह अक्सर सामाजिक प्रदर्शन, आर्थिक हैसियत और उपभोक्तावादी अपेक्षाओं का केंद्र बन गया है। जब किसी पत्नी के लिए सोने के गहने पति की सच्ची भावना और सामर्थ्य से अधिक महत्वपूर्ण हो जाएँ, तो यह विवाह संस्था के सांस्कृतिक और नैतिक विघटन की ओर संकेत करता है।


2. उपभोक्तावादी संस्कृति और विवाह

आज का समाज एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहाँ व्यक्ति की पहचान उसकी वस्तुओं और ब्रांडेड जीवनशैली से बनती है। विवाह अब केवल दो आत्माओं का मिलन नहीं रहा, बल्कि एक प्रकार का सौदा बन गया है जिसमें महंगे गहने, डिज़ाइनर परिधान, डेस्टिनेशन वेडिंग और सोशल मीडिया पर प्रदर्शन को 'प्रेम' का प्रतीक मान लिया गया है। ऐसे में यदि कोई पति सोने का हार या कंगन नहीं दे सके, तो विवाह के आधार ही डगमगाने लगते हैं। इस प्रवृत्ति ने रिश्तों को आर्थिक प्रतिस्पर्धा और सामाजिक तुलना की दौड़ में डाल दिया है।


3. लैंगिक भूमिकाओं का पुनर्परिभाषण

यह कथन पितृसत्तात्मक मानसिकता का भी संकेत है जिसमें पति को कमाने वाला और पत्नी को उपभोग करने वाली भूमिका में बांध दिया गया है। स्त्रियों की स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की चर्चा के बावजूद, यदि एक स्त्री केवल भौतिक उपहारों में प्रेम की अनुभूति करती है, तो यह स्वयं उसकी चेतना की सीमितता को दर्शाता है। यह आवश्यक है कि स्त्री और पुरुष दोनों ही विवाह को केवल आर्थिक परिधि में न परखें, बल्कि इसे एक भावनात्मक, मानसिक और नैतिक साझेदारी मानें।


4. विवाह में असुरक्षा और असंतोष

जब विवाह की नींव भौतिक अपेक्षाओं पर रखी जाती है, तब हर असफलता – जैसे आर्थिक कमजोरी, नौकरी की कठिनाई या व्यवसाय में हानि – संबंधों को खतरे में डाल देती है। इस कथन में छिपी सच्चाई यह है कि अनेक स्त्रियाँ अपने पतियों से केवल 'प्रदर्शनीय प्रेम' की अपेक्षा करती हैं — अर्थात ऐसा प्रेम जिसे दूसरे लोग देख और सराह सकें। परिणामस्वरूप, यदि पति उस स्तर तक न पहुँच सके तो पत्नी को असंतोष होने लगता है और संबंधों में दरार आ जाती है।


5. सामाजिक दबाव और तुलना की संस्कृति

समाज में आज विवाह एक व्यक्तिगत निर्णय न रहकर एक सार्वजनिक तमाशा बन गया है। लोग विवाह को सोशल मीडिया पर इस प्रकार प्रदर्शित करते हैं मानो वे कोई 'इवेंट मैनेजमेंट' कर रहे हों। इस सार्वजनिक प्रदर्शन के कारण पत्नियों पर यह दबाव बनता है कि वे भी अपने पतियों से गहने, उपहार, यात्रा आदि प्राप्त करें, ताकि उनकी स्थिति समाज में 'प्रतिष्ठित' बनी रहे। यह सामाजिक दबाव संबंधों को विषैला बना रहा है।


6. संभावित समाधान

  • संवाद और संवेदना: पति-पत्नी के बीच पारदर्शिता और संवाद होना अत्यंत आवश्यक है ताकि अपेक्षाएँ स्पष्ट हों और समझदारी बनी रहे।
  • संस्कारों का पुनर्स्थापन: विवाह को संस्कार के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करना होगा जहाँ मूल्य, सेवा, धैर्य, और समर्पण को प्राथमिकता मिले।
  • स्त्री की आत्मनिर्भरता: स्त्रियों को केवल उपभोग की भूमिका में न रहकर आत्मनिर्भर बनना चाहिए, ताकि वे प्रेम और संबंधों की गहराई को समझ सकें न कि उन्हें केवल गहनों से तौलें।
  • भौतिक प्रदर्शन से विरक्ति: विवाह को सोशल मीडिया और बाहरी दुनिया के प्रदर्शन से हटाकर निजी और पवित्र अनुभव की तरह जिया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

"आजकल शादियाँ उसकी टूट रही हैं जो अपनी बीवी को गोल्ड का हार और कंगन नहीं दे पाते" — यह कथन एक सामान्य मज़ाक प्रतीत हो सकता है, परंतु इसके पीछे समाज का गहराता नैतिक और भावनात्मक संकट छिपा है। जब रिश्ते केवल गहनों से मापे जाने लगें और प्रेम का मोल केवल उपहारों से तय हो, तो समाज को आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है। विवाह का आधार यदि केवल सोने के हार और कंगन होंगे, तो संबंधों की आत्मा खो जाएगी। अतः आवश्यक है कि हम मूल्यों, समझदारी, और परस्पर समर्पण पर आधारित संबंधों को पुनर्जीवित करें।

Post a Comment

0Comments

thanks for a lovly feedback

Post a Comment (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!