संस्कृत श्लोक: "अनवाप्यं च शोकेन शरीरं चोपतप्यते" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "अनवाप्यं च शोकेन शरीरं चोपतप्यते" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "अनवाप्यं च शोकेन शरीरं चोपतप्यते" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद


संस्कृत श्लोक: "अनवाप्यं च शोकेन शरीरं चोपतप्यते" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

🙏 जय श्री राम 🌷 सुप्रभातम् 🙏

  प्रस्तुत श्लोक अत्यंत सूक्ष्म, गूढ़ और जीवन को दिशा देने वाला है। यह श्लोक मानव मन की भावना (intention/faith) और सिद्धि (attainment/outcome) के बीच के गहरे सम्बन्ध को उजागर करता है।


श्लोकः

मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ॥


शाब्दिक अनुवाद:

  • मन्त्रे – मंत्र में
  • तीर्थे – तीर्थ (पवित्र स्थान) में
  • द्विजे – ब्राह्मण में (जिसने द्विजत्व अर्थात् ज्ञान से पुनर्जन्म लिया है)
  • देवे – देवता में
  • दैवज्ञे – ज्योतिषी में
  • भेषजे – औषधि में
  • गुरौ – गुरु में
  • यादृशी – जैसी
  • भावना – श्रद्धा, निष्ठा, भावना
  • यस्य – जिसकी
  • सिद्धिः – सफलता, फल, सिद्धि
  • भवति – होती है
  • तादृशी – वैसी ही

सरल हिन्दी भावार्थ:

मनुष्य को मंत्र, तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, औषधि और गुरु से जो फल मिलता है, वह पूर्णतः इस पर निर्भर करता है कि उसने उनमें कैसी भावना या श्रद्धा रखी है। जैसी भावना, वैसी ही सिद्धि।


व्याकरणिक विश्लेषण:

  • श्लोक में सप्तमीतत्पुरुष समासों की बहुलता है:
    • मन्त्रे, तीर्थे, द्विजे, देवे, दैवज्ञे, भेषजे, गुरौ — ये सब सप्तमी विभक्ति में हैं, जो स्थान या आश्रय को सूचित करते हैं।
  • यादृशी भावनायदृश + ई = यादृशी स्त्रीलिंग, भावना के अनुसार
  • सिद्धिर्भवति तादृशी — सिद्धि वैसी ही होती है (समानरूपता सूचक)

आधुनिक सन्दर्भ में शिक्षाः

  1. Placebo Effect का सिद्धान्त – चिकित्सा विज्ञान में भी यह सिद्ध हुआ है कि यदि रोगी औषधि पर दृढ़ विश्वास रखता है, तो औषधि अधिक प्रभावी होती है।
  2. मंत्र और पूजा में श्रद्धा का महत्त्व – मंत्र वही कार्य करता है जिसमें श्रद्धा हो, अन्यथा वह केवल ध्वनि है।
  3. गुरु का ज्ञान तभी फलदायी है जब शिष्य में श्रद्धा हो।
  4. तीर्थ यात्रा तब ही पावन बनती है जब यात्रा में भावनात्मक एकत्व और आत्मसमर्पण हो।
  5. ज्ञान व आध्यात्म में विश्वास-रहित अभ्यास केवल सतही होता है, उसमें आत्म-रूपान्तरण संभव नहीं।

प्रेरक कथा – "श्रद्धा और सिद्धि"

एक बार एक शिष्य ने अपने गुरु से पूछा – “गुरुदेव! क्या कोई साधारण मंत्र भी दिव्य फल दे सकता है?”
गुरु बोले – “श्रद्धा हो तो तिनका भी तराजू का पलड़ा झुका सकता है।”

शिष्य ने एक सामान्य से मंत्र पर पूर्ण श्रद्धा रख कर 12 वर्षों तक साधना की। अंततः उस मंत्र से उसे वही फल प्राप्त हुआ, जो प्रचलित ‘सिद्ध’ मंत्रों से होते हैं।


संक्षेप में सूत्र:

"श्रद्धा से शक्ति उत्पन्न होती है। भावना से ब्रह्माण्ड झुकता है।"
"Faith is the key to the lock of the universe."


संवादात्मक नीति-कथा

"श्रद्धा की सिद्धि"

पात्रः

  1. गुरु वाचस्पति – एक वृद्ध, ज्ञानी, धैर्यशील तपस्वी
  2. शिष्य सौमित्र – नवयुवक, जिज्ञासु, किंचित संदेहवादी
  3. चित्रसेन वैद्य – ग्राम का प्रख्यात वैद्य

[दृश्य : आश्रम में गुरु और शिष्य बैठे हैं। शिष्य कुछ उद्विग्न है।]

सौमित्रः (गंभीर स्वर में)
“गुरुदेव! एक प्रश्न है, जो हृदय को विक्षुब्ध करता है। यदि मन्त्र, तीर्थ, वैद्य, देव या गुरु सब हमारे ही भावों पर निर्भर हैं, तो क्या उनका वास्तविक प्रभाव ही कुछ नहीं? केवल हमारी कल्पना ही परिणाम देती है क्या?”

गुरुः वाचस्पतिः (मंद मुस्कान सहित)
“वत्स! तव प्रश्नो गूढः। किन्तु श्रवण कर –
‘मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ॥’*
भावना का अर्थ कल्पना नहीं, अपितु आत्मिक समर्पण है। भावना वह पुल है जो सामान्य को असामान्य से जोड़ता है।”

सौमित्रः
“पर यदि कोई गुरु, या वैद्य असत्य हो, तो भी क्या भावना से फल मिलेगा?”

गुरुः
“निश्चित रूप से नहीं वत्स। परन्तु श्रद्धा से तर्कशून्यता नहीं आती। विचारपूर्वक चयन और श्रद्धा का योग सिद्धि देता है। अब एक दृष्टान्त सुन:”


[कथा आरम्भ – संवाद रूप में]

स्थान – ग्राम वसन्तपुरम्

[चित्रसेन वैद्य के समक्ष एक रोगी बैठा है, नाम: धवल।]

धवलः
“हे वैद्य! मैंने देश-देशांतर की औषधियाँ लीं, किंतु रोग बढ़ता ही गया।”

चित्रसेन वैद्यः
“वत्स! औषधि तभी फलदायिनी होती है जब मन भी उसे ग्रहण करे। तव हृदय संशयपूर्ण है। आज से एक पर्ण-रस दूंगा – यदि श्रद्धया पिबसि, तो सप्तदिने स्वस्थः भवसि।”

धवलः (हँसते हुए)
“यह तो केवल तुलसी व जल है, क्या यह चमत्कार करेगा?”

चित्रसेन (गंभीर हो उठते हैं)
“न तू तुलसी की शक्ति जानता है, न श्रद्धा की। इसीलिए चमत्कार तुझसे विमुख है।”

[धवल विनम्र हो जाता है और औषधि श्रद्धा से लेता है। सप्ताह भर में वह पूर्णतः स्वस्थ हो जाता है।]


[कथा समाप्त – पुनः आश्रम में]

गुरुः
“वत्स सौमित्र! भावना औषधि में न हो तो वह केवल पदार्थ है।
भावना गुरु में न हो, तो वह केवल पुरुष है।
भावना देव में न हो, तो वह केवल मूर्ति है।”

सौमित्रः (नेत्र नम हो जाते हैं) –
“गुरुदेव! अब मैं जान गया – श्रद्धा आत्मा की ज्योति है, जो सबको जीवन देती है।”


नीति-सार:

"सत्य + श्रद्धा = सिद्धि।"
"जिस वस्तु में श्रद्धा रखी जाती है, वही व्यक्ति के लिए शक्तिशाली हो जाती है।"


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