संस्कृत श्लोक: "निष्णातोऽपि च शास्त्रार्थे साधुत्वं नैति दुर्मतिः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "निष्णातोऽपि च शास्त्रार्थे साधुत्वं नैति दुर्मतिः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

🌸 🙏 जय श्रीराम 🙏 सुप्रभातम् 🌸
 चयनित श्लोक अत्यंत सारगर्भित और नैतिकता से परिपूर्ण है। प्रस्तुत श्लोक मनुष्य के स्वभाव और उसके अंतर्मन की जड़ता पर गहन दृष्टि डालता है —
संस्कृत श्लोक: "निष्णातोऽपि च शास्त्रार्थे साधुत्वं नैति दुर्मतिः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "निष्णातोऽपि च शास्त्रार्थे साधुत्वं नैति दुर्मतिः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद



श्लोकः

निष्णातोऽपि च शास्त्रार्थे साधुत्वं नैति दुर्मतिः ।
आकल्पं जलमग्नापि मार्दवं नैति वै शिला ॥


शब्दार्थ / पदविच्छेदः

  • निष्णातः — कुशल, पारंगत
  • शास्त्रार्थे — शास्त्र के अर्थ में (शास्त्रार्थ में)
  • साधुत्वम् — सज्जनता, सद्गुण
  • नैति — नहीं प्राप्त करता
  • दुर्मतिः — कुटिल बुद्धि वाला, दुष्ट
  • आकल्पम् — कल्प के अंत तक (बहुत लंबा समय)
  • जलमग्ना अपि — जल में डूबी हुई भी
  • मार्दवम् — मृदुता, कोमलता
  • शिला — पत्थर

हिंदी भावार्थ:

जो व्यक्ति स्वभाव से दुष्ट है, वह चाहे जितना भी शास्त्रों का ज्ञाता हो, सद्गुणों को ग्रहण नहीं कर सकता। जैसे कि एक पत्थर कल्पों तक पानी में डूबा रहे, फिर भी वह कोमल नहीं हो सकता।


आधुनिक सन्दर्भ में विवेचन:

  • यह श्लोक शिक्षा देता है कि केवल ज्ञान (information या scholarship) होना ही पर्याप्त नहीं है, जब तक उसमें मन की शुद्धता, विनम्रता, और सद्भाव न हो।
  • दुष्ट व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन भी कर ले, तो वह उसका उपयोग भी अहंकार, वाद-विवाद या छल-कपट में ही करेगा।
  • जैसे पत्थर अपने मूल गुण को नहीं छोड़ता, वैसे ही दुरात्मा, यदि आत्मचिंतन और परिष्कार न करे, तो किसी सद्गुण को धारण नहीं कर सकता।

शिक्षाप्रद निष्कर्ष:

🌿 ज्ञान तभी सार्थक है जब वह विनम्रता, करुणा और आचरण में परिलक्षित हो।
🌿 केवल ग्रंथों के पाठ से हृदय नहीं बदलता, जब तक भावनाओं की शुद्धि और संकल्प की कोमलता न हो।


🌿 प्रेरणादायक कथा: "पत्थर की विद्वता" 🌿

बहुत पुरानी बात है। एक महान संत अपने शिष्यों के साथ गंगा-तीर पर निवास करते थे। दूर-दूर से लोग ज्ञान प्राप्त करने आते थे। उन्हीं के आश्रम में एक ब्राह्मण युवक भी शिक्षा प्राप्त कर रहा था। वह वेद-शास्त्रों में अत्यंत निपुण था, श्लोकों की वृष्टि करता, तर्क में सबको पराजित करता, किंतु उसके स्वभाव में अहंकार, कठोरता और दूसरों को नीचा दिखाने की आदत थी।

एक दिन वह किसी वृद्ध साधु को अपमानित कर बैठा —
“आप जैसे मूढ़ों को यह आश्रम अपवित्र कर रहा है! क्या आपको शास्त्रों का एक अक्षर भी आता है?”

वृद्ध साधु मौन रहे, किंतु संत ने यह सब सुन लिया।

अगले दिन सुबह संत ने उस ब्राह्मण शिष्य को बुलाया और बोले —
“आज हम गंगा किनारे कुछ खोजने चलेंगे।”
वे उसे साथ लेकर नदी तट पर गए और एक बड़ी, काई-जमी पत्थर की चट्टान दिखाकर बोले —
“इस पत्थर को गंगा में डाले हुए कई कल्प बीत गए। देखो तो क्या यह मृदु हो गई?”

ब्राह्मण ने चौंकते हुए उत्तर दिया —
“नहीं गुरुदेव! यह तो अब भी कठोर है।”

संत मुस्कराए —
“ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारा हृदय।
तुमने शास्त्रों में स्नान तो कर लिया, पर मर्यादा, नम्रता, और सेवा-भाव नहीं आया।
जैसे पत्थर जल में डूबा रहकर भी कोमल नहीं होता, वैसे ही दुष्ट बुद्धि वाला शास्त्रार्थ में निष्णात होकर भी सज्जन नहीं बनता।

यह सुनकर शिष्य स्तब्ध रह गया। उसकी आँखों में पश्चाताप के आँसू छलक आए। उस दिन से उसमें परिवर्तन आ गया। धीरे-धीरे उसने अपने ज्ञान में विनय और संवेदना का भाव जोड़ा और वही शिष्य कालांतर में एक प्रख्यात और विनम्र विद्वान कहलाया।


🌟 सीख / प्रेरणा:

  • ज्ञान का अभिमान ज्ञान को ही नष्ट कर देता है।
  • विनम्रता और सदाचार के बिना शास्त्र-अधिगम भी एक पत्थर समान कठोरता बन सकता है।
  • सच्चा विद्वान वही है जो दूसरों की सेवा और सम्मान में स्वयं को विनम्र बनाए रखता है।

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