🌿 पिता जी के हाथ के निशान — एक संवेदनशील संस्मरण 🌿
प्रस्तावना
जीवन में हम सब व्यस्त रहते हैं — कभी जिम्मेदारियों में, कभी संबंधों की उलझनों में। ऐसे में हमारे सबसे बड़े संरक्षक, हमारे माता-पिता, अक्सर अनजाने में उपेक्षा का शिकार हो जाते हैं। यह कथा एक ऐसे ही बेटे की भावनात्मक यात्रा है, जो अपने वृद्ध पिता की उपेक्षा करता है, पर समय बीतने के बाद पश्चाताप करता है। यह कथा केवल एक बेटे की नहीं, बल्कि हम सबकी अंतरात्मा को झकझोरने वाली है।
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पिता जी के हाथ के निशान — एक संवेदनशील संस्मरण |
1. बुज़ुर्ग पिता की चाल और दीवारों पर हाथ के निशान
पिता जी अब वृद्ध हो चले थे। चलने में कठिनाई होने लगी थी, इसलिए दीवारों का सहारा लेकर चलना उनकी आदत बन गई थी। जहाँ भी वे हाथ रखते, वहाँ दीवार का रंग उड़ जाता और उनकी उंगलियों के निशान बन जाते थे। ये निशान धीरे-धीरे पूरे घर में दिखने लगे थे — दीवारों पर, कोनों पर, गलियारों में।
2. पत्नी की शिकायतें और बेटे का क्रोध
“पिता जी, आप बार-बार दीवार क्यों छूते हैं? थोड़ा ध्यान रखा कीजिए।”
3. दीवार का सहारा छोड़ना और जीवन की अंतिम साँसें
बेटा टूट गया। उसे लगने लगा कि पिता के जाने का कारण कहीं न कहीं उसका व्यवहार भी था। वह खुद को माफ़ नहीं कर सका।
4. बेटे का पश्चाताप और पोते का भावनात्मक समर्पण
समय बीतता गया। एक दिन जब घर की पेंटिंग करवाई जा रही थी, तो पेंटर दीवारों के पुराने निशान साफ करने लगे।
“इन दीवारों पर मेरे दादाजी के हाथ के निशान हैं, इन्हें मत मिटाइए।”
पेंटर मुस्कुराया और बोला,
“हम उन्हें नहीं मिटाएँगे, बल्कि इन्हीं निशानों के चारों ओर एक सुंदर आकृति बना देंगे।”
5. समय का चक्र: अब बेटा भी वृद्ध हुआ
तभी उसका बेटा, जो अब स्वयं एक पिता बन चुका था, दौड़कर आया और बोला:
“पापा, दीवार का सहारा लीजिए, गिर जाएँगे तो क्या होगा?”
इसके बाद पोती दौड़ी चली आई। वह बोली:
“दादाजी, आप मेरा कंधा पकड़िए, मैं हूँ न!”
उसके नीचे उसने लिखा था:
“काश हर बच्चा बड़ों से इसी तरह प्यार करता।”
6. अंत में एक सीख
"समय किसी के लिए नहीं रुकता। हम भी कभी न कभी बूढ़े होंगे।इसीलिए, अपने बड़ों को नज़रों से नहीं, दिल से देखिए — और अपने बच्चों को भी यही सिखाइए।"