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ब्राह्मण नागार्जुन: शून्यवाद के वैदिक शिल्पी |
ब्राह्मण नागार्जुन: शून्यवाद के वैदिक शिल्पी
दक्षिण भारत के एक वैदिक ब्राह्मण कुल में जन्मे आर्यपुत्र नागार्जुन एक महान विद्वान, दार्शनिक और शास्त्रार्थ निपुण मनीषी थे। अपने ज्ञानयात्रा के दौरान उन्होंने बौद्ध दर्शन का गहन अध्ययन किया और तत्पश्चात समस्त आर्यावर्त के बौद्ध पंडितों को शास्त्रार्थ की चुनौती दे डाली।
सनातन ज्ञान परंपरा में शास्त्रार्थ न केवल एक बौद्धिक अभ्यास रहा है, बल्कि सत्य के अन्वेषण का पवित्र माध्यम भी माना गया है। अतः नागार्जुन की चुनौती को स्वीकार करते हुए बौद्ध दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों—हीनयान, महायान, एवं उनके उपसम्प्रदायों—से विद्वान भिक्षु शास्त्रार्थ हेतु प्रस्तुत हुए। किंतु नागार्जुन की कुशाग्र बुद्धि, तार्किक कौशल एवं संवेदनशील दृष्टि के सम्मुख कोई भी टिक नहीं पाया।
उन्होंने हीनयानी मतावलम्बियों को लंका भेज दिया, आर्य विज्ञानियों के मतों को खंडित किया और महायानियों को वैचारिक बंदी बना लिया। शास्त्रार्थ में विजय के उपरांत नागार्जुन ने महायान पंथ को नया दर्शन एवं दिशा दी।
नागार्जुन की दार्शनिक रचनाएँ
नागार्जुन ने लगभग 20 ग्रंथों की रचना की, किंतु उनमें सर्वाधिक प्रभावशाली ग्रंथ है—"माध्यमिक कारिका"। इस ग्रंथ में उन्होंने "चतुष्कोणीय तर्क" या "चतुष्पाद" नामक एक नवीन तर्क संरचना प्रस्तुत की, जिसके आधार पर उन्होंने बौद्ध दर्शन की नूतन व्याख्या की।
बौद्ध धर्म में मूलतः स्वीकार्य चार आर्य सत्यों को उन्होंने दो में सीमित किया—
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दुःख है,
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दुःख का कारण है।
शेष दो को उन्होंने इन दोनों के स्वाभाविक निष्कर्ष या सहायक सिद्ध किया—
“यदि ऐसा कारण है, तो वैसा कार्य अवश्य होगा।”
अर्थात—कार्य-कारण का परिष्कृत सिद्धांत।
शून्यवाद की आधारशिला
नागार्जुन के चतुष्कोणीय तर्क के चार खंड थे—
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न अस्ति (यह नहीं है)
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न नास्ति (यह नहीं नहीं है)
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न उभयं (यह दोनों नहीं है)
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नो न उभयं (यह न दोनों नहीं है)
इस नकार की पराकाष्ठा से उन्होंने "दृश्य जगत" को मिथ्या और "परम तत्व" को अकथनीय शून्य के रूप में निरूपित किया। इस प्रकार बौद्ध दर्शन में एक नवीन शाखा—"शून्यवाद"—का उदय हुआ।
उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि—
“परम सत्य अनिर्वचनीय है। उसका केवल अनुभव किया जा सकता है। कोई भाषा, कोई परिभाषा उसे नहीं बाँध सकती।”
यहां तुलसीदास जी की पंक्ति अत्यंत उपयुक्त प्रतीत होती है—
“सोई जानहि जेहि देहु जनाई, जानत तुम्हहि तुम्हहि होइ जाई।”
नवीनता और भाषा का नवोदय
नागार्जुन ने बौद्ध साहित्य को पाली से संस्कृत में स्थानांतरित कराया। उन्होंने बुद्ध द्वारा स्थापित 7 अव्यक्त प्रश्नों को 14 अव्यक्त प्रश्नों तक विस्तारित कर दिया।
इन प्रश्नों के उत्तर देने की अपेक्षा, वे यह बताते हैं कि इनका उत्तर संभव नहीं है, क्योंकि परम सत्ता को बौद्धिक विश्लेषण या भाषिक अभिव्यक्ति से नहीं समझा जा सकता—केवल योग एवं ध्यान द्वारा प्रज्ञा के माध्यम से इसकी अनुभूति ही संभव है।
विरासत और प्रभाव
आज भी श्रीलंका, म्यांमार जैसे कुछ अपवाद देशों को छोड़कर, बौद्ध धर्म के अधिकांश अनुयायी नागार्जुन द्वारा प्रतिपादित शून्यवाद को ही बौद्ध दर्शन का मूल मानते हैं। उन्होंने बौद्ध मत को वेदों के तात्त्विक मर्म से जोड़ते हुए उसे दार्शनिक परिपक्वता प्रदान की।