पाप और पुण्य का वास्तविक मापदंड: एक संन्यासी और पथभ्रष्ट बहन की कथा

Sooraj Krishna Shastri
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🌸शीर्षक: "पाप और पुण्य का वास्तविक मापदंड: एक संन्यासी और पथभ्रष्ट बहन की कथा" 🌸


🔷 प्रस्तावना:

मानव जीवन में धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य की अवधारणाएँ अत्यंत सूक्ष्म और गूढ़ हैं। प्रायः व्यक्ति दूसरों के कर्मों को देख उनके चरित्र और भविष्य का अनुमान लगाने लगता है, परंतु ईश्वर या धर्म के न्याय का मापदंड केवल बाह्य नहीं, बल्कि अंतरात्मा की प्रायश्चित भावना और आत्मपरिवर्तन की गहराई होती है। प्रस्तुत कथा इसी सत्य का गहन संदेश देती है।

पाप और पुण्य का वास्तविक मापदंड: एक संन्यासी और पथभ्रष्ट बहन की कथा
पाप और पुण्य का वास्तविक मापदंड: एक संन्यासी और पथभ्रष्ट बहन की कथा



🔷 कथा का क्रमबद्ध प्रस्तुतीकरण:

1. पृष्ठभूमि: संन्यासी और रूपवती स्त्री

एक संन्यासी की कुटी के सामने एक सुंदर स्त्री का घर था। वह स्त्री अत्यंत रूपवती थी किंतु जीवन-पथ से भटकी हुई थी। नगर के धनी-मानी लोग उसके पास आया करते थे। संन्यासी ने यह सब देखकर एक विचित्र उपाय निकाला — जब भी कोई पुरुष उस स्त्री के पास जाता, वह उसके नाम का एक पत्थर अपनी कुटी के सामने रख देता।

2. पत्थरों का ढेर और आत्मबोध

समय के साथ पत्थरों का ढेर विशाल हो गया। एक दिन वह स्त्री घर से बाहर निकली और पत्थरों का यह ढेर देखकर चकित रह गई। उसने संन्यासी से इसका कारण पूछा। संन्यासी ने कटुता से उत्तर दिया –
"यह तुम्हारे दुष्कर्मों का प्रतीक है। एक दिन यही पत्थर तुम्हारे गले में बंधकर तुम्हें नरक में ले जाएँगे।"

यह वाक्य और दृश्य सुनकर स्त्री के अंतर्मन में प्रायश्चित की अग्नि प्रज्वलित हो उठी। वह अत्यंत ग्लानिभाव से वहीं गिरकर प्राण त्याग देती है।

3. विचित्र परिणाम: स्वर्ग और नरक का न्याय

कुछ समय पश्चात संन्यासी की भी मृत्यु हो जाती है। आश्चर्यजनक रूप से, संन्यासी को नरक और वह स्त्री स्वर्ग में पहुँची। यह देखकर संन्यासी अचंभित हुआ और यमराज से पूछा:
"मैं तो नित्य धर्म-भजन करता रहा, फिर भी मुझे नरक क्यों? और वह स्त्री, जो पाप में लिप्त थी, उसे स्वर्ग क्यों?"

4. यमराज का उत्तर – कर्म के पीछे की भावना का मापदंड

यमराज ने उत्तर दिया –
"तुम दूसरों के पापों की गणना में लगे रहे, उनके दोष खोजते रहे। यह घोर अहंकार और दम्भ का प्रतीक है। तुम्हारे भीतर आत्म-निरीक्षण का अभाव था। दूसरी ओर, उस स्त्री ने अपने जीवन के सभी पापों का एक ही क्षण में पूर्ण प्रायश्चित कर लिया — उसने ग्लानि से अपने प्राण त्याग दिए, जो उसके अंतरमन की पश्चात्ताप की चरम अवस्था थी।"

"दूसरों के कर्मों का मूल्यांकन करने का अधिकार किसी को नहीं है। तुम्हारा कर्तव्य केवल अपने पापों का निरीक्षण और शुद्धिकरण है।"


🔷 शिक्षा और संदेश:

  1. पाप-पुण्य का मूल्य बाहरी आचरण से नहीं, अंतर्मन की भावना से होता है।

  2. प्रायश्चित की शक्ति मनुष्य को ईश्वर के निकट पहुँचा सकती है, भले ही वह अतीत में कितना भी पथभ्रष्ट क्यों न रहा हो।

  3. दूसरों की निंदा या उनके दोषों की गिनती करने से स्वयं का आत्मविकास रुक जाता है।

  4. सच्चा संन्यास दूसरों की आलोचना नहीं, स्वयं की आत्म-चिंतन और सुधार से होता है।


🔷 निष्कर्ष:

यह कथा हमें यह सिखाती है कि धर्म के मार्ग पर चलने का तात्पर्य केवल बाह्य क्रिया-कलापों से नहीं, बल्कि आत्मान्वेषण, नम्रता और विनम्रता से है। दूसरों की भूलें गिनने वाला स्वयं भूल जाता है कि आत्मा का उत्थान केवल आत्मनिंदा और आत्मसुधार से ही संभव है, न कि उपदेश या निंदा से।


👉 इस कथा का सार यही है: “जो दूसरों की ओर उंगली उठाता है, उसे अपने तीनों अंगुलियाँ स्वयं की ओर उठी दिखनी चाहिए।”

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