पथरीली गीली आँखों में भावों की सरयू लहराई
जब शबरी की पर्णकुटी में अवधी में बोले रघुराई
हमका भूख लगी है माई !
छोटा सा पलाश का दाेना
दोने में अधखाये फल हैं
खाने और खिलाने वाले
दोनों के ही नयन सजल हैं
मेवे पकवानों ने बेरों के जैसी किस्मत कब पाई
जब शबरी की पर्णकुटी में अवधी में बोले रघुराई
हमका भूख लगी है माई !
आज ज़रा सी पर्णकुटी से
कंचन जड़े महल जलते हैं
जंगल के फूलों की माला
से सब नीलकमल जलते हैं
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शबरी गीत: पथरीली गीली आँखों में भावों की सरयू लहराई |
एक भीलनी की सेवा से भावविभोर हुयी ठकुराई
जब शबरी की पर्णकुटी में अवधी में बोले रघुराई
हमका भूख लगी है माई !
सत्य सनातन समानता का
वैसा नाम नहीं हो पाया
और राम के बाद धरा पर
कोई राम नहीं हो पाया
किसने इतनी मर्यादा से ऊँच नीच की रेख मिटाई
जब शबरी की पर्णकुटी में अवधी में बोले रघुराई
हमका भूख लगी है माई !
-ज्ञानप्रकाश आकुल