Shri Krishna Thumb Sucking Leela – श्रीकृष्ण अपने पैर का अंगूठा क्यों पीते थे?
१. भूमिका : श्रीकृष्ण की लीला का रहस्य
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भक्तों के मन मोहें,
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उनके हृदय में प्रेम जगाएँ,
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और उनके भीतर छिपे अध्यात्म-रस को प्रकट करें।
इन्हीं लीलाओं में एक है—श्रीकृष्ण का अपने ही पैर का अंगूठा पीना।
२. इस लीला का भावार्थ : संतों की दृष्टि
(क) चरणकमलों की महिमा का परीक्षण
बालकृष्ण यह सोचते थे—
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ब्रह्मा, शिव, देवता, ऋषि-मुनि मेरे चरणों की ही वंदना क्यों करते हैं?
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मेरे चरणकमलों का ध्यान करने मात्र से जीवों के पाप कैसे नष्ट हो जाते हैं?
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अहिल्या का उद्धार केवल चरणस्पर्श से कैसे हो गया?
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गंगा जब मेरे चरण-अंगूठे से प्रकट हुई तो क्यों सबकी पवित्रता का कारण बन गई?
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लक्ष्मीजी इन्हीं चरणों की सेवा क्यों करती रहती हैं?
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गोपियों के हृदय इन्हीं चरणों में क्यों बस जाते हैं?
इन्हीं प्रश्नों की परीक्षा करने के लिए उन्होंने अपने चरण-अंगूठे का रसपान किया।
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Shri Krishna Thumb Sucking Leela – श्रीकृष्ण अपने पैर का अंगूठा क्यों पीते थे? |
(ख) रस की परख : अमृत से भी श्रेष्ठ
शास्त्र में यह श्लोक मिलता है—
विहाय पीयूषरसं मुनीश्वरा,ममांघ्रिराजीवरसं पिबन्ति किम्।इति स्वपादाम्बुजपानकौतुकी,स गोपबाल: श्रियमातनोतु व:।।
(ग) आत्मनिर्भरता का संकेत
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वे स्वयंभू हैं,
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अपने पोषण और आनन्द के लिए किसी पर निर्भर नहीं,
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वे स्वयं ही रसस्वरूप और आनन्दस्वरूप हैं।
यह संदेश है कि ईश्वर परिपूर्ण हैं, उन्हें किसी की आवश्यकता नहीं।
(घ) भक्तों को शिक्षा
बालकृष्ण की इस चेष्टा का गूढ़ संकेत भक्तों के लिए है—
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असली सुख बाह्य विषयों में नहीं, भीतर (स्वरूप/परमात्मा) में है।
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जैसे श्रीकृष्ण अपने चरण का रस पान कर रहे हैं, वैसे ही साधक अपने आत्मस्वरूप में रमण करे।
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जब मनुष्य अपने भीतर बसे ईश्वर का आनन्द लेगा, तभी पूर्ण तृप्ति होगी।
३. चरणकमलों की महिमा : ग्रंथों का आधार
(क) तुलसीदासजी की पंक्तियाँ
जे पद-पदुम सदा शिव के धन, सिंधु-सुता उर ते नहिं टारे।जे पद-पदुम परसि जलपावन, सुरसरि-दरस कटत अघ भारे।।
अर्थ :
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जिन चरणकमलों को शिवजी धन मानते हैं,
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जिनके स्पर्श से गंगा पवित्र बनी,
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उन्हीं चरणों को बालकृष्ण ने अपने मुख में रखा।
(ख) अहिल्या उद्धार
(ग) गंगावतरण
(घ) लक्ष्मी और गोपियाँ
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लक्ष्मीजी सदा चरणों की सेवा करती हैं।
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गोपियों का हृदय उन्हीं चरणों पर अर्पित रहता है।
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पृथ्वी (भूदेवी) ने इन्हीं चरणों को अपने आभूषण के रूप में स्वीकारा।
४. दार्शनिक दृष्टि
इस लीला में तीन प्रमुख दार्शनिक संकेत छिपे हैं—
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स्वरस-आनन्द – ईश्वर स्वयं में ही परिपूर्ण रस हैं।
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आत्म-निरपेक्षता – उन्हें किसी बाहरी साधन की आवश्यकता नहीं।
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भक्ति-मार्ग का मार्गदर्शन – भक्तों को यह शिक्षा कि वे भी अपने भीतर (ईश्वर/आत्मा में) ही वास्तविक आनन्द पाएं।
५. निष्कर्ष
श्रीकृष्ण का अपने पैर का अंगूठा पीना—
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देखने में नन्हे बालक की चेष्टा है,
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पर वास्तव में यह गूढ़ आध्यात्मिक शिक्षा है।
✨ यह हमें सिखाती है—
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ईश्वर स्वयं अपने आनन्दस्वरूप का रस पान करते हैं।
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भक्त भी बाहर नहीं, भीतर बसे चरणकमलों का ध्यान कर अमृत से भी श्रेष्ठ आनन्द पा सकते हैं।