हिन्दी कविता: इंसान से इंसानियत के चिह्न सारे मिट गए
इंसान से इंसानियत के चिह्न सारे मिट गए,
आत्मा तो मर गई बस खोल ढोते रह गए।
छल,कपट,ईर्ष्या,प्रवंचन,झूठ के भूषण सजे,
रत्न में ये गुण कहाँ , वे और फीके रह गए।
हर समय अन्याय से धन को कमाना चाहते,
न्यायसंगत बात से कोसों वो पीछे रह गए।
मान-मर्यादा औ लज्जा मनुज के गहने रहे,
आधुनिकता में दरककर नाम भर के रह गए।
सत्य-निष्ठा और करुणा आज भी सर्वोच्च हैं,
है ये परिभाषा मनुज की श्रेष्ठ जन हैं कह गए।
© डॉ निशा कान्त द्विवेदी