Shri Sankashtaharan Ganesh Astakam Stotra in Sanskrit with Hindi| संकट नाशक गणेश स्तोत्र

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श्रीसंकष्टहरण स्तोत्र भगवान श्रीगणेश को समर्पित एक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है, जिसका पाठ समस्त प्रकार के मानसिक, पारिवारिक, आर्थिक और आध्यात्मिक संकटों के निवारण हेतु किया जाता है। इस लेख में श्रीसंकष्टहरण स्तोत्र का शुद्ध संस्कृत विनियोग, प्रत्येक श्लोक का सरल और भावपूर्ण हिंदी अर्थ, तथा अंत में फलश्रुति को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया गया है।

विनियोग के माध्यम से साधक यह जान पाता है कि स्तोत्र के देवता कौन हैं, छन्द, बीज, शक्ति और कीलक क्या है, तथा किस उद्देश्य से इसका जप किया जाना चाहिए। यह स्तोत्र विशेष रूप से गणेश चतुर्थी, संकष्टी चतुर्थी, बुधवार एवं किसी भी संकट काल में पाठ हेतु अत्यंत फलदायी माना गया है।

यदि आप भगवान गणपति की कृपा प्राप्त कर जीवन के विघ्न-बाधाओं से मुक्ति चाहते हैं, तो यह संपूर्ण स्तोत्र-पाठ आपके लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा।

Shri Sankashtaharan Ganesh Astakam Stotra in Sanskrit with Hindi| संकट नाशक गणेश स्तोत्र

Shri Sankashtaharan Ganesh Astakam Stotra in Sanskrit with Hindi| संकट नाशक गणेश स्तोत्र
Shri Sankashtaharan Ganesh Astakam Stotra in Sanskrit with Hindi| संकट नाशक गणेश स्तोत्र


॥ श्रीसंकष्टहरण स्तोत्रम् ॥

(हिंदी अर्थ सहित)


🔹 विनियोगः

ॐ अस्य श्रीसंकष्टहरणस्तोत्रमन्त्रस्य । श्रीमहागणपतिर्देवता । अनुष्टुप् छन्दः । गं बीजम् । ह्रीं शक्तिः । क्लीं कीलकम् । मम सर्वसंकष्टनिवारणार्थे जपे विनियोगः ॥

इस मंत्र के देवता श्री महागणपति हैं और संकटों के निवारण के लिए इसका जाप किया जाता है।


🔹 श्लोक १

ॐ ॐ ॐकाररूपं त्र्यहमिति च परं यत्स्वरूपं तुरीयं,
त्रैगुण्यातीतनीलं कलयति मनसस्तेज-सिन्दूरमूर्तिम्।
योगीन्द्रैर्हृद्यहारी सकलगुणमयं श्रीमहन्द्रेण वन्द्यं,
गं गं गं गं गणेशं गजमुखमभितो व्यापकं चिन्तयन्ति ॥१॥

अर्थ:

जो ओंकार (ॐ) स्वरूप हैं, जो तीनों अवस्थाओं (जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति) और तीनों कालों से परे 'तुरीय' (परम चेतना) स्वरूप हैं। जो तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) से अतीत हैं और जिनका तेज सिन्दूर के समान लाल वर्ण का है। जो योगियों के हृदय को हरने वाले, सर्वगुण संपन्न और देवराज इन्द्र द्वारा पूजित हैं। उन "गं" बीजमंत्र स्वरूप, गजमुख (हाथी के मुख वाले) और सर्वव्यापक भगवान गणेश का हम चिंतन करते हैं।


🔹 श्लोक २

वं वं वं विघ्नराजं भजति निजभुजे दक्षिणे न्यस्तशुण्डं,
क्रों क्रों क्रों क्रोधमुद्रा-दलित-रिपुबलं कल्पवृक्षस्य मूले।
दं दं दं दन्तममेकं दधतमतिमुखं कामधेन्वा निषेव्यं,
धं धं धं धारयन्तं धनदमतिधियं सिद्धि-बुद्धि-द्वितीयम् ॥२॥

अर्थ:

जो "वं" बीजमंत्र स्वरूप विघ्नराज हैं, जिनकी सूंड दाहिनी ओर मुड़ी हुई है। जो "क्रों" बीजमंत्र रूप हैं और क्रोध मुद्रा धारण करके कल्पवृक्ष के मूल में शत्रुओं की सेना का नाश करते हैं। जो "दं" रूप होकर एकदंत धारण करते हैं और कामधेनु द्वारा सेवित हैं। जो "धं" रूप में कुबेर (धनद) और अत्यंत बुद्धिमान हैं तथा सिद्धि और बुद्धि जिनके साथ (पत्नी रूप में) विराजमान हैं, मैं उन गणेश जी को भजता हूँ।


🔹 श्लोक ३

तुं तुं तुं तुङ्गरूपं गगनपथि गतं व्याप्नुवन्तं दिगन्तान्,
क्लीं क्लीं क्लींकारनाथं गलित-मदमिलल्लोल-मत्तालिमालम्।
ह्रीं ह्रीं ह्रींकारपिङ्गं सकलमुनिवर-ध्येयमुण्डं च शुण्डं,
श्रीं श्रीं श्रीं प्रच्छयन्तं निखिल-निधिकुलं नौमि हेरम्बबिम्बम् ॥३॥

अर्थ:

जो "तुं" रूप में विशालकाय हैं और आकाश मार्ग से दसों दिशाओं में व्याप्त हैं। जो "क्लीं" बीज के स्वामी हैं और जिनके कपोलों से बहते हुए मदजल पर मतवाले भंवरों की पंक्तियाँ मंडराती रहती हैं। जो "ह्रीं" रूपी पिंगल वर्ण (सुनहरे/भूरे) वाले हैं, मुनि जिनका ध्यान करते हैं। जो "श्रीं" रूप में भक्तों को लक्ष्मी (धन) और समस्त निधियां प्रदान करते हैं, मैं उन हेरम्ब (गणपति) के विग्रह को नमन करता हूँ।


🔹 श्लोक ४

ग्लां ग्लीं ग्लौंकारमध्यं प्रणवमिव पदं मन्त्रमुक्तावलीनां,
शुद्धं विघ्नेशबीजं शशिकरसदृशं योगिनां ध्यानगम्यम्।
डं डं डं डामरूपं दलितभवभयं सूर्यकोटिप्रकाशं,
यं यं यं यज्ञनाथं जपति मुनिवरो बाह्यमभ्यन्तरं च ॥४॥

अर्थ:

जो "ग्लां ग्लीं ग्लौं" मंत्रों के मध्य में हैं, जो मंत्र रूपी मोतियों की माला में ओंकार (प्रणव) की तरह मुख्य पद पर हैं। जो चन्द्रमा की किरणों के समान शुद्ध और शीतल हैं, तथा योगियों के ध्यान द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं। जो "डं" रूपी डमरू की ध्वनि वाले, संसार के भय का नाश करने वाले और करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी हैं। "यं" रूपी उन यज्ञनाथ का मुनिजन बाहर और भीतर (मन में) जाप करते हैं।


🔹 श्लोक ५

हूं हूं हूं हेमवर्णं श्रुति-गणित-गुणं शूर्पकर्णं कृपालुं,
ध्येयं सूर्यस्य बिम्बम्युरसि च विलसत् सर्पयज्ञोपवीतम्।
स्वाहा-हुंफट् नमोऽन्तैष्ठ-ठठठ-सहितैः पल्लवैः सेव्यमानं,
मन्त्राणां सप्तकोटि-प्रगुणित-महिमाधारमीशं प्रपद्ये ॥५॥

अर्थ:

जो "हूं" बीजमंत्र स्वरूप और सोने (हेम) जैसे रंग वाले हैं, वेदों ने जिनके गुणों का गान किया है, जो सूप जैसे बड़े कानों वाले और दयालु हैं। सूर्यमंडल के बीच जिनका ध्यान किया जाता है और जिनके वक्षस्थल पर सर्प का यज्ञोपवीत (जनेऊ) सुशोभित है। जो स्वाहा, हुंफट, नमः और ठः ठः ठः आदि पल्लव मंत्रों से सेवित हैं। सात करोड़ मंत्रों से जिनकी महिमा वर्णित है, मैं उन ईश (गणपति) की शरण लेता हूँ।


🔹 श्लोक ६

(गणेश यंत्र ध्यान)

पूर्वं पीठं त्रिकोणं तदुपरि रुचिरं षट्कपत्रं पवित्रं,
यस्योर्ध्वं शुद्धरेखा वसुदलकमलं वा स्वतेजश्चतुस्रम्।
मध्ये हुङ्कारबीजं तदनु भगवतः स्वाङ्गषट्कं षडस्त्रे,
अष्टौ शक्तीश्च सिद्धीर्बहुलगणपतिर्विष्टरश्चाऽष्टकं च ॥६॥

अर्थ:

(यह श्लोक गणेश यंत्र के ध्यान का वर्णन करता है): सबसे पहले त्रिकोण पीठ है, उसके ऊपर सुंदर और पवित्र षट्कोण (छह पत्तों वाला कमल) है। उसके ऊपर अष्टदल कमल (आठ पंखुड़ियों वाला) और उसके बाहर भूपुर (चौकोर यंत्र) है। मध्य में "हुं" बीजमंत्र है। षट्कोण में भगवान के छह अंगों का न्यास है और आठों दिशाओं में आठ शक्तियां और सिद्धियां विराजमान हैं। ऐसे आसन पर गणपति विराजमान हैं।


🔹 श्लोक ७

धर्माद्यष्टौ प्रसिद्धा दशदिशि विदिता वा ध्वजाल्यः कपालं,
तस्य क्षेत्रादिनाथं मुनिकुलमखिलं मन्त्रमुद्रामहेशम्।
एवं यो भक्तियुक्तो जपति गणपतिं पुष्प-धूपा-ऽक्षताद्यैः,
नैवेद्यैर्मोदकानां स्तुतियुत-विलसद् गीतवादित्र-नादैः ॥७॥

अर्थ:

दसों दिशाओं में प्रसिद्ध धर्म आदि देवता, ध्वजा, कपाल और क्षेत्रपाल आदि भी जिनकी सेवा में हैं। जो भक्त इस प्रकार भक्तिभाव से भरकर, पुष्प, धूप, अक्षत (चावल), मोदक के नैवेद्य, स्तुति और गीत-वाद्य (संगीत) के नाद के साथ भगवान गणपति का जाप और पूजन करता है... (अगले श्लोक में इसका फल बताया गया है)।


🔹 श्लोक ८

(फलश्रुति)

राजानस्तस्य भृत्या इव युवतिकुलं दासवत् सर्वदास्ते,
लक्ष्मीः सर्वाङ्गयुक्ता श्रयति च सदनं किङ्कराः सर्वलोकाः।
पुत्राः पुत्र्यः पवित्रा रणभुवि विजयी द्यूतवादेऽपि वीरो,
यस्येशो विघ्नराजो निवसति हृदये भक्तिभाग् यस्य रुद्रः ॥८॥

अर्थ:

(उपर्युक्त विधि से पूजा करने वाले भक्त के लिए): राजा उसके लिए सेवक के समान हो जाते हैं, स्त्रियां और जन-समुदाय उसके वश में रहते हैं। अष्ट-सिद्धि नवनिधि युक्त लक्ष्मी सदा उसके घर में निवास करती हैं और सभी लोग उसके सहायक बन जाते हैं। उसके पुत्र और पुत्रियां पवित्र (संस्कारी) होते हैं। वह युद्ध में विजयी होता है और वाद-विवाद (शास्त्रार्थ या मुकदमे) में भी वीर साबित होता है। जिस भक्त के हृदय में स्वयं भगवान रुद्र (शिव) के प्रिय पुत्र विघ्नराज गणेश निवास करते हैं, उसका जीवन धन्य हो जाता है।


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