Sant Surdas ने अपनी आँखें क्यों त्यागी? | Why did Surdas blind himself? (True Story)

Sooraj Krishna Shastri
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Jaaniye Sant Surdas ne apni aankhen kyu tyagi? मदन मोहन से सूरदास बनने की emotional कहानी और कैसे उन्हें श्री कृष्ण की भक्ति प्राप्त हुई। पढ़ें पूरी कथा।

Surdas Ji Ki Kahani: सुंदर मदन मोहन आखिर अंधे सूरदास कैसे बने? पढिये वैराग्य और कृष्ण प्रेम का वह प्रसंग जिसने उनका जीवन बदल दिया।

Sant Surdas ने अपनी आँखें क्यों त्यागी? | Why did Surdas blind himself? (True Story)

Sant Surdas life story illustration showing Madan Mohan, washerwoman and Guru Vallabhacharya.
Sant Surdas life story illustration showing Madan Mohan, washerwoman and Guru Vallabhacharya.


🕉️ संत सूरदास जी: आँखों के त्याग से भगवत-प्राप्ति तक


1. परिचय: मदन मोहन का प्रारंभिक जीवन

संत सूरदास जी का जन्म से नाम मदन मोहन था और वे जन्म से नेत्रहीन नहीं थे। युवावस्था तक उनकी आँखें ठीक थीं। उन्होंने विद्या ग्रहण की और साथ ही संगीत व रागों का ज्ञान भी प्राप्त किया।

कहा जाता है कि जब किसी पुरुष के पास गुण और ज्ञान आ जाए, तो उसे किसी बात की कमी नहीं रहती। मदन मोहन अपनी मधुर कविताओं को गाकर सुनाते, जिसे लोग प्रेम से सुनते और उन्हें धन, वस्त्र तथा उत्तम वस्तुएं भेंट करते।

धीरे-धीरे मदन मोहन की चर्चा और यश फैलने लगा और वे एक कवि के रूप में पहचाने जाने लगे।


2. जीवन का मोड़: सौंदर्य के प्रति आसक्ति

मदन मोहन एक सुंदर नवयुवक थे। वे प्रतिदिन सरोवर के किनारे बैठकर गीत लिखते थे। एक दिन एक ऐसी घटना घटी जिसने उनके जीवन की दिशा बदल दी।

सरोवर के किनारे एक अत्यंत सुंदर नवयुवती कपड़े धो रही थी। मदन मोहन का ध्यान उसकी ओर गया और वे उसके सौंदर्य पर इतने मोहित हो गए कि उनका लेखन रुक गया। उन्हें लगा जैसे यमुना किनारे स्वयं राधिका जी बैठी हों।

युवती ने मदन मोहन को अपनी ओर एकटक देखते हुए पाया और लज्जा मिश्रित स्वर में पूछा—

संवाद

  • युवती: "क्या आप मदन मोहन हैं?"
  • मदन मोहन: "हाँ, मैं मदन मोहन कवि हूँ। गीत लिखता हूँ, गीत गाता हूँ।"
  • युवती: "गीत लिखने आए थे, तो मेरी तरफ क्यों देख रहे हैं?"
  • मदन मोहन: "क्योंकि आपका रूप अत्यंत सुंदर है। मुझे आपमें राधा का और सरोवर के किनारे अप्सरा का आभास हो रहा है।"
  • युवती: "मेरी आँखों में आपको क्या दिखाई दे रहा है?"
  • मदन मोहन: "मुझे आपकी आँखों में अपना चेहरा दिखाई दे रहा है। क्या कल भी आओगी?"
  • युवती: "हाँ, जरूर आऊँगी।"

यह सिलसिला चल पड़ा और मदन मोहन उस सौंदर्य के मोह में इतने फंस गए कि यह उनकी बदनामी का कारण बनने लगा।

पिता की नाराजगी के कारण उन्होंने घर त्याग दिया, मथुरा-वृंदावन भटके, लेकिन मन से वह छवि न गई।


3. वैराग्य और नेत्र त्याग (सूरदास बनना)

वह युवती विवाहित थी। एक दिन मदन मोहन उसके पीछे-पीछे उसके घर तक पहुँच गए और दरवाजा खटखटाया।

युवती के पति ने दरवाजा खोला और एक संत समान व्यक्ति को देखकर आदर से पूछा—

संवाद

  • पति: "बताइये महात्मा जी, क्या सेवा करूँ?"
  • मदन मोहन: "मेरी एक विनती है।"
  • पति: "अंदर आइये, जो भी कहेंगे वह किया जाएगा।"

मदन मोहन अंदर गए और उस युवती को बुलाया। जब वह सामने आई, तो मदन मोहन ने एक कठोर निर्णय लिया।

उन्होंने कहा—
"दो सलाईयां (Needles) गर्म करके ले आओ।"

दंपति समझ नहीं पाए, लेकिन सलाईयां ले आए। मदन मोहन ने सलाईयां पकड़ीं और अपने मन को धिक्कारते हुए कहा—

"देख लो, जी भर कर देख लो, फिर नहीं देखना।"

यह कहकर उन्होंने गर्म सलाईयां अपनी आँखों में चुभो लीं।

इस प्रकार, जिन आँखों ने उन्हें प्रभु से विमुख कर सांसारिक मोह में फंसाया था, उन्होंने उन आँखों का ही त्याग कर दिया और 'सूरदास' बन गए।


4. शाही दरबार और कारावास (बादशाही कोप)

नेत्रहीन होने के बाद सूरदास जी की भक्ति और गायन की ख्याति इतनी बढ़ी कि दिल्ली के बादशाह (मुगल शासक) ने उन्हें दरबार में बुलाया।

उनके गायन से प्रसन्न होकर बादशाह ने उन्हें एक कस्बे का हाकिम बना दिया। किंतु ईर्ष्यालु लोगों की चुगली के कारण बादशाह ने उन्हें वापस बुलाकर जेल में डाल दिया।

जेल में सूरदास जी ने दरोगा से उसका नाम पूछा—

  • दरोगा: "मेरा नाम 'तिमर' है।"

सूरदास (चिंतन करते हुए):
"तिमर... मेरी आँखें नहीं, मेरा जीवन भी तिमर (अंधेरे) में, यह बंदीखाना भी तिमर और रक्षक का नाम भी तिमर!"

उन्होंने वहीं एक पद की रचना की और उसे बार-बार गाने लगे। जब यह करुण गीत बादशाह तक पहुँचा, तो वे बहुत प्रभावित हुए और सूरदास जी को सम्मान सहित मुक्त कर दिया।


5. गुरु वल्लभाचार्य और ‘सूरसागर’ की रचना

मुक्त होकर सूरदास जी मथुरा-वृंदावन आ गए। वहाँ गऊ घाट पर उनकी भेंट स्वामी वल्लभाचार्य जी से हुई, जिन्हें उन्होंने अपना गुरु माना।

गुरु की आज्ञा पाकर उन्होंने 'श्रीमद्भागवत' को ब्रजभाषा की कविता में ढालना शुरू किया।

सूरदास जी बोलते जाते और एक लेखक उसे लिखता जाता। कहा जाता है कि उन्होंने सवा लाख पदों का संकल्प लिया था, जिनमें से लगभग 75,000 चरण ही लिख पाए थे कि उनका देहावसान हो गया।

उनका यह संग्रह ‘सूरसागर’ के नाम से अमर हो गया।


6. सूरदास जी की वाणी (अमृत वचन)

हरि के संग बसे हरि लोक ||
तनु मनु अरपि सरबसु सभु अरपिओ अनद सहज धुनि झोक ||१|| रहाउ ||
दरसनु पेखिभए निरबिखई पाए है सगले थोक ||
आन बसतु सिउ काजुन कछुऐ सुंदर बदन अलोक ||१||
सिआम सुंदर तजि आन जुचाहत जिउ कुसटी तनि जोक ||
सूरदास मनु प्रभि हथि लीनो दीनो इहु परलोक ||२||


भावार्थ (परमार्थ)

  • परमात्मा का सानिध्य: हरि के भक्त सदा हरि (परमात्मा) के साथ ही निवास करते हैं।
  • पूर्ण समर्पण: उन्होंने अपना तन, मन और सर्वस्व प्रभु को अर्पण कर दिया है, जिससे वे सहज आनंद और खुशी की अवस्था में रहते हैं।
  • इन्द्रिय निग्रह: भगवान के दर्शन पाकर वे विषय-विकारों (Nirbikhai) से मुक्त हो गए हैं। प्रभु की प्राप्ति ही उनके लिए सब पदार्थों की प्राप्ति है।
  • अनन्य भक्ति: उस सुंदर (श्याम) मुख के दर्शन के बाद उन्हें किसी और वस्तु या दृश्य की कामना नहीं रही।
  • चेतावनी: जो लोग श्याम सुंदर को छोड़कर अन्य सांसारिक सुखों की चाह रखते हैं, उनकी स्थिति वैसी है जैसे कोढ़ी के शरीर पर जोंक।
  • निष्कर्ष: सूरदास जी कहते हैं कि प्रभु ने मेरा मन अपने हाथों में ले लिया है और बदले में मुझे यह दिव्य परलोक प्रदान किया है।

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