संस्कृत श्लोक: "न दैवमिति सञ्चिन्त्य त्यजेदुद्योगमात्मनः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "न दैवमिति सञ्चिन्त्य त्यजेदुद्योगमात्मनः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "न दैवमिति सञ्चिन्त्य त्यजेदुद्योगमात्मनः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

 

संस्कृत श्लोक: "न दैवमिति सञ्चिन्त्य त्यजेदुद्योगमात्मनः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

श्लोक:

न दैवमिति सञ्चिन्त्य त्यजेदुद्योगमात्मनः।
अनुद्योगेन कस्तैलं तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति॥


हिन्दी अनुवाद:

भाग्य हमारे अनुकूल नहीं है, ऐसा सोचकर अपने प्रयासों को नहीं छोड़ना चाहिए। बिना परिश्रम किए कौन तिलों से तेल निकाल सकता है?


शाब्दिक विश्लेषण:

  • न दैवम् – भाग्य नहीं
  • इति सञ्चिन्त्य – ऐसा सोचकर
  • त्यजेत् – छोड़ देना चाहिए
  • उद्योगम् – परिश्रम, प्रयास
  • आत्मनः – अपने (स्वयं के)
  • अनुद्योगेन – बिना परिश्रम किए
  • कः – कौन
  • तैलम् – तेल
  • तिलेभ्यः – तिलों से
  • प्राप्तुमर्हति – प्राप्त करने के योग्य है

व्याकरणीय विश्लेषण:

  • त्यजेत् – लोटलकार (आगत्यर्थ), निषेधात्मक वाक्य में प्रयुक्त।
  • प्राप्तुमर्हति – धातु "अर्ह" (योग्यता) से बना हुआ, जिसका अर्थ है "योग्य होना"।
  • अनुद्योगेन – "अनुद्योग" (परिश्रम का अभाव) शब्द का तृतीया विभक्ति रूप।

आधुनिक संदर्भ में व्याख्या:

यह श्लोक कर्मयोग का अद्भुत संदेश देता है, जो आज भी अत्यंत प्रासंगिक है।

  1. मेहनत का कोई विकल्प नहीं
    सफलता भाग्य से नहीं, बल्कि परिश्रम से मिलती है। जैसे तिलों से तेल निकालने के लिए उन्हें पीसना पड़ता है, वैसे ही किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मेहनत आवश्यक है।

  2. निराशा को त्यागना चाहिए
    कई बार लोग असफलता मिलने पर यह सोचते हैं कि उनकी किस्मत ही खराब है, और वे प्रयास करना छोड़ देते हैं। यह श्लोक बताता है कि ऐसा सोचना मूर्खता है।

  3. भाग्य और कर्म का संबंध
    यह श्लोक कर्मवाद की पुष्टि करता है। यदि हम अपने कर्तव्य को नहीं निभाते, तो केवल भाग्य के भरोसे कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता।

  4. व्यवसाय, शिक्षा और जीवन में प्रेरणा

    • व्यवसाय में – व्यापार में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, लेकिन भाग्य को दोष देकर कार्य छोड़ देना मूर्खता होगी।
    • शिक्षा में – विद्यार्थी अगर मेहनत नहीं करेगा, तो केवल भाग्य के भरोसे सफलता नहीं मिलेगी।
    • व्यक्तिगत जीवन में – किसी भी परिस्थिति में हार मानने की बजाय, परिश्रम जारी रखना चाहिए।

निष्कर्ष:

यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि परिश्रम ही सफलता की कुंजी है। जो केवल भाग्य पर निर्भर रहते हैं, वे कभी भी अपने लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकते। बिना प्रयास के न तिलों से तेल निकाला जा सकता है और न ही जीवन में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल की जा सकती है।

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