संस्कृत श्लोक: "प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे प्रियाप्रिये" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
By -
1

 

संस्कृत श्लोक: "प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे प्रियाप्रिये" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे प्रियाप्रिये" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

संस्कृत श्लोक: "प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे प्रियाप्रिये" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

श्लोक:

प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे प्रियाप्रिये ।
आत्मौपम्येन पुरुषः समाधिमधिगच्छति॥


हिन्दी अनुवाद:

(महान) व्यक्ति अस्वीकृति और दान के मामलों में, सुख और दुःख की स्थितियों में, प्रिय और अप्रिय परिस्थितियों में आत्म-समानता (स्वयं को दूसरे के स्थान पर रखकर) अपनाता है और इस प्रकार मानसिक संतुलन (समाधि) प्राप्त करता है।


शाब्दिक विश्लेषण:

  • प्रत्याख्याने – अस्वीकृति, नकार
  • दाने – दान देने की क्रिया
  • सुखदुःखे – सुख और दुःख
  • प्रियाप्रिये – प्रिय और अप्रिय बातें
  • आत्मौपम्येन – आत्म-समानता से (अपने समान समझकर)
  • पुरुषः – व्यक्ति, पुरुष
  • समाधिमधिगच्छति – समाधि (मानसिक स्थिरता) को प्राप्त करता है

व्याकरणीय विश्लेषण:

  • प्रत्याख्याने, दाने, सुखदुःखे, प्रियाप्रिये – सप्तमी विभक्ति में प्रयुक्त शब्द हैं, जो विभिन्न परिस्थितियों को दर्शाते हैं।
  • आत्मौपम्येन – तृतीया विभक्ति में प्रयुक्त है, जिसका अर्थ है "अपने समान समझकर"।
  • पुरुषः – कर्ता है, जो निष्कर्ष निकालता है।
  • समाधिमधिगच्छति – क्रिया पद है, जिसका अर्थ है "समाधि प्राप्त करता है"।

आधुनिक संदर्भ में व्याख्या:

यह श्लोक मानसिक स्थिरता (emotional intelligence) और आत्मनियंत्रण (self-control) का संदेश देता है। इसे आधुनिक संदर्भ में निम्नलिखित रूप से समझ सकते हैं—

  1. अस्वीकृति और प्रशंसा में समानता
    जब कोई हमारी बात को अस्वीकार कर देता है, तो हमें मानसिक रूप से विचलित नहीं होना चाहिए। इसी तरह, जब हम किसी को कुछ दान देते हैं, तो हमें अहंकार नहीं करना चाहिए। दोनों ही स्थितियों में संतुलित रहना चाहिए।

  2. सुख-दुःख में संतुलन
    जीवन में सुख और दुःख साथ-साथ चलते हैं। कोई भी व्यक्ति सदा सुखी या सदा दुःखी नहीं रह सकता। इसलिए, हमें सुख के समय अहंकार नहीं करना चाहिए और दुःख के समय निराश नहीं होना चाहिए।

  3. प्रिय-अप्रिय परिस्थितियों में समानता
    जीवन में हमें कभी मनचाही चीज़ मिलती है, तो कभी अप्रिय स्थितियों का सामना करना पड़ता है। एक समझदार व्यक्ति इन दोनों स्थितियों में आत्मसंयम बनाए रखता है और संतुलित दृष्टिकोण अपनाता है।

  4. आत्मौपम्य (स्वयं को दूसरे के स्थान पर रखना)
    यह श्लोक "स्वर्णिम नियम" (Golden Rule) की भावना को दर्शाता है—
    "दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो, जैसा तुम अपने लिए चाहते हो।"
    जब हम किसी स्थिति में खुद को दूसरे के स्थान पर रखते हैं, तो हमारी सहानुभूति (empathy) बढ़ती है, और हम सही निर्णय लेने में सक्षम होते हैं।


निष्कर्ष:

यह श्लोक जीवन में समता (equanimity) और आत्मसंयम (self-discipline) के महत्व को दर्शाता है। यदि हम सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय स्थितियों में धैर्य रखते हैं और अपने को दूसरों की जगह रखकर सोचते हैं, तो हमें मानसिक शांति (समाधि) की प्राप्ति होती है। यही सच्ची बुद्धिमत्ता और आध्यात्मिक परिपक्वता है।

Post a Comment

1 Comments

Post a Comment

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!