"जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ। तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥"

Sooraj Krishna Shastri
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"जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ। तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥"
"जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ। तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥"


"जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ। तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥"

 प्रस्तुत विचार अत्यंत मार्मिक, तात्त्विक एवं आज की धार्मिक वास्तविकताओं को उकेरने वाला है। यह विचार केवल एक आलोचना नहीं, अपितु एक आत्मनिरीक्षण है—जो रामचरितमानस जैसे दिव्य ग्रंथ के अध्ययन में श्रद्धा, भाव, गुरुकृपा और आचरण की आवश्यकता को उद्घाटित करता है। नीचे इस पूरे विचार को संदर्भानुसार क्रमबद्ध, व्यवस्थित एवं सुस्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया गया है।


रामचरितमानस: श्रद्धा, संगति और सार्थकता

1. श्रद्धा और संतसंग के बिना रामचरितमानस अगम्य

"जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥"
(रामचरितमानस)

जिनके पास श्रद्धा का संबल नहीं है, जिन्हें संतों का साथ नहीं मिला है, और जिनको भगवान् रघुनाथ (राम) प्रिय नहीं हैं—उनके लिए रामचरितमानस एक अगम्य ग्रंथ है। गोस्वामी तुलसीदास स्पष्ट करते हैं कि यह केवल पढ़ने का नहीं, वरन् भावपूर्वक आत्मसात करने का विषय है।


2. मानसरोवर की उपमा – बाह्य दर्शन, भीतरी शीतलता नहीं

"जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई।
जातहिं नीद जुड़ाई होई॥
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा।
गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥"

गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस की तुलना मानसरोवर से करते हैं—जहाँ पहुँचने वाला व्यक्ति यदि भीतर की ठंड सह नहीं सकता, तो स्नान नहीं कर पाता। वह केवल बाहर से देखकर लौट आता है। वैसे ही बिना श्रद्धा, भाव और समर्पण के रामचरितमानस पढ़ना केवल शाब्दिक व्यायाम रह जाता है।


3. आध्यात्मिक आलस्य: निन्दा और उपेक्षा

"तुलसी पूरब पाप तें हरि चर्चा न सुहाय।
कै ऊँघे कै उठ चले कै दे बात चलाय॥"

कुछ लोग रामचरितमानस के पठन में ऊँघते हैं, चर्चा में ध्यान नहीं देते, और जब कोई पूछता है कि क्या पढ़ा, तो निन्दा करते हैं। यह उस आत्मा का लक्षण है, जो पूर्वजन्म के पापों के कारण हरिकथा में रुचि नहीं रखती।


4. भक्ति-सूत्र से निष्कर्ष – परम व्याकुलता ही भक्ति का प्रमाण

"तदर्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति॥"
(नारद भक्ति सूत्र)

जो व्यक्ति अपने समस्त कर्तव्यों को भगवान् को अर्पित कर देता है और उनकी स्मृति से वंचित होते ही व्याकुल हो उठता है—वही सच्चा भक्त है। जैसे मछली जल के बिना तड़पती है, वैसे ही भगवान की विस्मृति में भक्त व्याकुल होता है।


5. गीता और शिवमहापुराण से निषेध: अयोग्य को उपदेश वर्जित

"इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न च शुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥"
(भगवद्गीता 18.67)

यह उपदेश उन लोगों को नहीं देना चाहिए जो संयमी नहीं हैं, भक्ति से रहित हैं, या जो भगवान् के प्रति द्वेष रखते हैं।

"अश्रद्धाने विमुखेऽप्यशृण्वति यश चोपदेशः शिवनामपराधः॥"
(शिवमहापुराण)

जो व्यक्ति श्रद्धा रहित है, भगवान से विमुख है और सत्संग नहीं सुनता, उस पर उपदेश देना शिवनाम का भी अपराध हो जाता है।


6. रामचरितमानस का अर्थ: शुद्ध उच्चारण नहीं, हृदय में प्रतिष्ठा

"पाठ" = पठ धातु + ज्ञान का प्रकाश + हृदय में ठहराना

"पाठ" का तात्पर्य केवल जिह्वा की कसरत नहीं है, अपितु उसे हृदय में प्रतिष्ठित करना है। चौपाइयों को भाव सहित पढ़ना, समझना, और जीवन में धारण करना ही सच्चा पाठ है।


7. आज का यथार्थ: भोग, दिखावा और मनोकामनाओं की पूर्ति

  • रिश्तेदारों को न्यौता देकर, माइक-साउंड की सजावट कर, रामचरितमानस का आयोजन होता है।

  • ढोलक पीटकर गवैया बुलाकर "24 घंटे में इतिश्री" कर दी जाती है।

  • कोई भाव, कोई भक्ति, कोई तल्लीनता नहीं—केवल सामाजिक रुतबे या मनोरथपूर्ति की औपचारिकता।


8. शोक और वियोग में भी संगीत का प्रदर्शन?

  • क्या शंकर जी के सती वियोग में कजरी शोभा देती है?

  • क्या सीता जी के हरण के समय फिल्मी धुनें शोभनीय हैं?

रामचरितमानस का एक भी प्रसंग यदि ठीक से समझा जाए, तो हृदय कांप उठे। परन्तु हम उसे भी प्रदर्शन और मनोरंजन का माध्यम बना चुके हैं।


9. आत्मविश्लेषण: क्या हमने राम को हृदय में स्थान दिया?

  • क्या हमने भगवान राम को प्रिय बनाया?

  • क्या महापुरुषों के चरणों में बैठकर मानस पढ़ी?

  • क्या मानस का आयोजन भक्ति के लिए है या केवल सामाजिक दबाव/रुतबे के लिए?


10. निष्कर्ष: गुरु और तत्त्वज्ञ महापुरुषों के बिना शास्त्र पठन वर्ज्य

"इसलिए कभी इन शास्त्रों का पाठ बिना किसी गुरु या तत्त्वज्ञ महापुरुष के नहीं करना चाहिए।"

रामचरितमानस जैसे दिव्य ग्रंथ को पढ़ने के लिए श्रद्धा, संतसंग, और गुरु-कृपा अत्यावश्यक है। केवल शब्दों का उच्चारण, संगीत, साज-सज्जा, और भोजन का आयोजन—यह सब पांडित्य नहीं, अपितु शास्त्रों का अपमान है।


अंतिम निवेदन:

रामचरितमानस एक जीवन-दर्शन है। इसका पठन नहीं, पाठ करें। इसका गायन नहीं, गायनात्मक भाव  से जीएँ। इसकी चौपाइयाँ नहीं, चेतना को जगाएं।

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