भागवत दर्शन

भागवत दर्शन

संस्कृत श्लोक: "दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालङ्कृतोऽपि सन्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
By -

 

संस्कृत श्लोक: "दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालङ्कृतोऽपि सन्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालङ्कृतोऽपि सन्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

संस्कृत श्लोक: "दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालङ्कृतोऽपि सन्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

🙏 जय श्री राम! सुप्रभातम्!
 प्रस्तुत यह नीति श्लोक अत्यंत प्रभावशाली है, जो चरित्र और प्रवृत्ति की प्राथमिकता को दर्शाता है – केवल बाह्य गुणों से किसी का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।


श्लोक

दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालङ्कृतोऽपि सन्।
मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयङ्करः॥


शाब्दिक विश्लेषण (पदविच्छेद):

  • दुर्जनः – दुष्ट व्यक्ति
  • परिहर्तव्यः – त्याज्य है, दूर रखना चाहिए
  • विद्यया अलङ्कृतः अपि सन् – भले ही वह विद्या से सुशोभित क्यों न हो
  • मणिना भूषितः सर्पः – रत्न से सुसज्जित सर्प
  • किम् असौ न भयङ्करः – क्या वह भयावह नहीं होता?

हिंदी भावार्थ:

जो व्यक्ति दुर्जन (कुटिल या नीच स्वभाव वाला) है, वह यदि ज्ञान से युक्त भी हो, तो भी उससे बचना चाहिए। जैसे कि एक सर्प, यदि उसके सिर पर मणि भी जड़ी हो, फिर भी वह भयावह ही होता है।


नीति-संदेश:

  • चरित्र, सज्जनता और सद्भाव ही व्यक्ति का वास्तविक गहना है।
  • ज्ञान या प्रतिष्ठा यदि दुष्ट के पास है, तो वह समाज के लिए और अधिक विनाशकारी हो सकता है।
  • जैसे सर्प का सौंदर्य उसके विष को नहीं हरता, वैसे ही दुर्जन की विद्या उसे सज्जन नहीं बनाती।

आधुनिक सन्दर्भ में व्याख्या:

  • समाज में कई लोग उच्च शिक्षित या प्रतिष्ठित होते हैं, परंतु उनका व्यवहार या स्वभाव अहंकारी, स्वार्थी या अहितकारी होता है।
  • ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखना ही हितकारी है, चाहे वे कितने भी ‘योग्य’ क्यों न प्रतीत हों।

तुलनात्मक दृष्टिकोण:

  • विद्या विनय देती है – यह तभी सत्य है जब विद्या सज्जन व्यक्ति के पास हो।
  • यदि विद्या अहंकार और अनाचार को बढ़ाए – तो वह दुर्जन के हाथों में विषधर अस्त्र बन जाती है।


नीति कथा: "रत्नजटित सर्प"

प्राचीन काल में एक वन में शृगाल (गीदड़) रहता था। वह बहुत चतुर था, परंतु स्वभाव से कपटी और स्वार्थी था। एक दिन उसने एक सर्प को देखा जिसके मस्तक पर एक चमकती मणि जड़ी थी। शृंगाल की आँखें चमक उठीं — "यदि यह मणि मुझे मिल जाए, तो मैं वन का सबसे धनी जीव बन जाऊँगा!"

वह सर्प के पास गया और मीठे शब्दों में बोला —
"हे नागराज! आपकी यह मणि अद्भुत है! आप जैसे ज्ञानी और तेजस्वी सर्प के चरणों में मैं स्वयं को धन्य मानता हूँ।"

सर्प उसकी बातों में आ गया और उससे मित्रता कर ली। अब शृंगाल प्रतिदिन उसके पास जाता, उसकी स्तुति करता और मणि को पाने की योजना बनाता।

एक दिन वह सर्प को प्रसन्न कर, मणि छीनने के लिए पास गया। जैसे ही उसने सर्प के सिर की ओर झपटा, सर्प ने अपने विषदंतों से उसे डस लिया। क्षणभर में ही वह शृंगाल भूमि पर गिर पड़ा।

मरते समय शृंगाल ने सोचा —
"मैंने केवल मणि देखी, परंतु यह भूल गया कि वह एक सर्प के सिर पर है!"


नीति सार:

"दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालङ्कृतोऽपि सन्।
मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयङ्करः॥"

यानी —

जो व्यक्ति दुष्ट है, वह कितना भी ज्ञान या सौंदर्य से युक्त क्यों न हो, वह अंततः घातक सिद्ध हो सकता है। जैसे मणिधारी सर्प भी भयावह होता है।


#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!