संस्कृत श्लोक: "आरोप्यते शिला शैले यत्नेन महता यथा" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "आरोप्यते  शिला शैले यत्नेन महता यथा" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "आरोप्यते शिला शैले यत्नेन महता यथा" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद


संस्कृत श्लोक: "आरोप्यते  शिला शैले यत्नेन महता यथा" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

 🙏 जय श्री राम 🙏 सुप्रभातम् 🌹

श्लोक:

आरोप्यते शिला शैले यत्नेन महता यथा।
निपात्यते क्षणेनाधस्तथात्मा गुणदोषयोः॥

हिंदी अनुवाद:

जैसे किसी पहाड़ पर एक पत्थर को चढ़ाने के लिए बहुत श्रम और प्रयास की आवश्यकता होती है, परंतु उसे एक क्षण में नीचे गिरा दिया जाता है, वैसे ही हमारे अंदर के गुण और दोष भी होते हैं, जिन्हें हम बड़े प्रयास से विकसित या नियंत्रित करते हैं, परंतु एक क्षण की असावधानी से वे बिगड़ सकते हैं।

शब्दार्थ:

  • आरोप्यते – चढ़ाया जाता है, रखा जाता है।

  • शिला – पत्थर।

  • शैले – पर्वत, पहाड़।

  • यत्नेन – प्रयास से, श्रमपूर्वक।

  • महता – महान, बड़े (अर्थ में, अधिक श्रमपूर्वक)।

  • यथा – जैसे।

  • निपात्यते – गिराया जाता है।

  • क्षणेन – एक क्षण में।

  • आध – नीचे।

  • तथा – वैसे।

  • आत्मा – आत्मा, व्यक्ति।

  • गुण – अच्छे गुण, सकारात्मक विशेषताएँ।

  • दोष – बुरे गुण, नकारात्मक विशेषताएँ।

व्याकरणात्मक विश्लेषण:

  1. आरोप्यते (धातु: आरोप्) – यह कर्ता-वाचक कर्मवाचक क्रिया है जो वर्तमान काल में है।

    • शिला (पद: संज्ञा) और शैले (पद: संज्ञा) का सामर्थ्य स्थापित करने वाली क्रिया।

  2. निपात्यते (धातु: निपात्) – यह क्रिया एक ही रूप में दर्शाती है कि किसी वस्तु का गिरना।

    • इस क्रिया के साथ क्षणेन (समीकरण काल), आध (स्थान), और तथा (तुलना) का प्रयोग हो रहा है।

  3. गुणदोषयोः – "गुण" और "दोष" के संयोजन में "यः" (के द्वारा) प्रत्यय दर्शाता है कि इन दोनों के बीच तालमेल के साथ आत्मा को प्रभावित किया जाता है।

आधुनिक संदर्भ:

यह श्लोक हमें जीवन में आत्मसंयम और आंतरिक परिश्रम का महत्व समझाता है। आज के समय में जहाँ जीवन की गति तेज है और लोग त्वरित परिणाम की आशा रखते हैं, वहां इस श्लोक से यह संदेश मिलता है कि हमारे अच्छे गुणों को स्थापित करने के लिए निरंतर श्रम और समय की आवश्यकता होती है, लेकिन एक छोटी सी लापरवाही से हमारे दोष सामने आ सकते हैं और हमें यह खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।

जैसे एक पत्थर को पहाड़ पर चढ़ाने के लिए कई कदमों की आवश्यकता होती है, वैसे ही किसी सकारात्मक आदत या गुण को अपनाने में बहुत समय और संघर्ष लगता है। लेकिन एक क्षण की असावधानी, गुस्सा, आलस्य, या अन्य नकारात्मकता से यह सब खो भी सकता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति ने वर्षों तक संयमित आहार लिया और नियमित व्यायाम किया, लेकिन एक छोटी सी लापरवाही से वह अपने स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचा सकता है।

इसी प्रकार, आत्मसंयम, संयमित जीवनशैली, और अच्छे आचार-व्यवहार के लिए हमें निरंतर मेहनत की आवश्यकता है। एक क्षण का आराम या असावधानी हमें गलत दिशा में ले जा सकती है। यह श्लोक हमें जीवन में आत्मसाक्षात्कार और आत्म-नियंत्रण की आवश्यकता की ओर संकेत करता है।

निष्कर्ष:

यह श्लोक यह शिक्षा देता है कि हमारे गुणों को सहेजने और नकारात्मकता से बचने के लिए हमें निरंतर प्रयास करना चाहिए। यदि हम थोड़ी सी लापरवाही करेंगे, तो हमारे अंदर के दोष उभर सकते हैं और हमें उसका परिणाम भुगतना पड़ सकता है। यही जीवन का संतुलन है – श्रम और संयम से गुणों को अर्जित करना और संयमहीनता से दोषों से बचना।

क्या आप इस श्लोक के संदेश से संबंधित अपने जीवन में किसी अनुभव को साझा करना चाहेंगे?

कथा: "पत्थर और पहाड़ का संघर्ष"

एक छोटे से गाँव में एक साधक अपने गुरु के साथ निवास करता था। गुरु जी ने अपने शिष्य को आत्मसाक्षात्कार की राह पर चलने के लिए कहा था, लेकिन साधक को यह मार्ग बहुत कठिन और थका देने वाला लगता था। गुरु ने उसे एक दिन कहा, "यदि तुम सच में आत्मविकास की राह पर चलना चाहते हो, तो तुम्हें निरंतर श्रम और संयम की आवश्यकता होगी।"

शिष्य ने गुरु से पूछा, "गुरुदेव, क्या आप मुझे इस मार्ग पर चलने के लिए कोई उदाहरण दे सकते हैं, जिससे मुझे यह समझने में मदद मिले?"

गुरु मुस्कुराए और बोले, "कल तुम मेरे साथ पर्वत पर चलोगे, और मैं तुम्हें एक कहानी सुनाऊँगा।"

अगले दिन, शिष्य और गुरु पर्वत की चढ़ाई पर चल पड़े। रास्ते में गुरु ने शिष्य से एक बड़ा पत्थर उठाने को कहा। शिष्य ने उस पत्थर को देखा, वह बहुत भारी था, लेकिन गुरु की बात मानकर उसने उस पत्थर को उठाया और धीरे-धीरे उसे पर्वत की चोटी तक पहुँचाया। पत्थर को चढ़ाने में उसे बहुत श्रम करना पड़ा, लेकिन वह अंततः उसे ऊपर ले गया।

गुरु ने शिष्य से पूछा, "अब तुम इस पत्थर को नीचे गिराओ।"

शिष्य चौंका, "गुरुदेव, मैंने इसे इतनी मेहनत से ऊपर चढ़ाया, क्या इसे गिराना सही होगा?"

गुरु ने उसे शांतिपूर्वक समझाया, "तुमने इस पत्थर को पहाड़ पर चढ़ाने में बहुत श्रम किया, लेकिन ध्यान रखना, इसे गिराने के लिए एक क्षण ही पर्याप्त होता है। यह जीवन का सत्य है। तुम्हें अपने अच्छे गुणों को सहेजने के लिए निरंतर प्रयास करना होगा, लेकिन एक क्षण की लापरवाही से तुम्हारे भीतर के दोष उभर सकते हैं।"

शिष्य ने पत्थर को नीचे गिराया। वह नीचे गिरते हुए भूमि पर जाकर टुकड़ों में बिखर गया। शिष्य ने गुरु की बात को समझ लिया। उसे एहसास हुआ कि उसके अंदर जो गुण थे, उन्हें बनाए रखने के लिए निरंतर श्रम और धैर्य की आवश्यकता है। अगर वह एक क्षण के लिए भी असावधान होता, तो वह अपनी आत्म-निर्मिति के रास्ते से भटक सकता था।

गुरु ने शिष्य से कहा, "जैसे उस पत्थर को पहाड़ से गिरने में एक क्षण का समय लगा, वैसे ही तुम्हारे अंदर के दोष भी एक क्षण की लापरवाही से उभर सकते हैं। लेकिन अच्छे गुण और आदतों को अपने जीवन में बनाए रखने के लिए तुम्हें निरंतर संघर्ष और प्रयास करना होगा।"

शिष्य ने गुरु के इस उपदेश को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लिया और आत्मसाक्षात्कार की राह पर नए उत्साह के साथ चल पड़ा।

सीख:

यह कथा हमें यह सिखाती है कि जीवन में अच्छे गुणों को अर्जित करने के लिए हमें कठिन संघर्ष और संयम की आवश्यकता होती है, लेकिन इन गुणों को खोने के लिए केवल एक क्षण की लापरवाही ही पर्याप्त होती है। हमें अपने गुणों और दोषों दोनों के प्रति सजग रहना चाहिए, ताकि हम जीवन में सही दिशा में चल सकें।

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