संस्कृत श्लोक: "बहुभिर्न विरोद्धव्यं दुर्बलैरपि धीमता ।" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "बहुभिर्न    विरोद्धव्यं    दुर्बलैरपि   धीमता ।" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "बहुभिर्न विरोद्धव्यं दुर्बलैरपि धीमता ।" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

संस्कृत श्लोक: "बहुभिर्न    विरोद्धव्यं    दुर्बलैरपि   धीमता ।" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

जय श्री राम।
 प्रस्तुत श्लोक एक गहन नीति-सूक्ति है, जिसमें शक्ति की तुलना संख्या और एकता से की गई है। आइए इसे पूर्ण विश्लेषण के साथ प्रस्तुत करें:


श्लोक

बहुभिर्न विरोद्धव्यं दुर्बलैरपि धीमता ।
स्फुरन्तमपि नागेन्द्रं भक्षयन्ति पिपीलिकाः ॥


शब्दार्थ

  • बहुभिः — बहुतों के द्वारा
  • न विरोद्धव्यम् — विरोध नहीं करना चाहिए
  • दुर्बलैः अपि — दुर्बलों के साथ भी
  • धीमता — बुद्धिमान व्यक्ति को
  • स्फुरन्तम् अपि — फड़फड़ाते (हिलते) हुए भी
  • नागेन्द्रम् — महान सर्प (नागराज) को
  • भक्षयन्ति — खा जाती हैं
  • पिपीलिकाः — चींटियाँ

हिन्दी अनुवाद

बुद्धिमान व्यक्ति को, यदि वह भी बलशाली हो, तब भी बहुत सारे दुर्बलों से विरोध नहीं करना चाहिए। जैसे कि हिलता हुआ (बलवान) साँप भी बहुत-सी चींटियों द्वारा खा लिया जाता है।


व्याकरणिक विश्लेषण

  • बहुभिः — तृतीया विभक्ति, बहुवचन (पुंलिंग)
  • विरोध्यव्यम् — न कार्तव्यं (कर्तव्य न करने योग्य), भाववाचक शब्द
  • दुर्बलैः — तृतीया विभक्ति, पुल्लिंग, बहुवचन
  • धीमता — सप्तमी विभक्ति, एकवचन (पुंलिंग) — ‘धीमत्’ शब्द से
  • स्फुरन्तम् — क्रियाविशेषण, वर्तमान काल में हिलने वाला
  • नागेन्द्रम् — द्वितीया विभक्ति, एकवचन
  • भक्षयन्ति — लट् लकार, वर्तमान काल, बहुवचन
  • पिपीलिकाः — कर्तृवाचक, प्रथमा विभक्ति, बहुवचन

आधुनिक सन्दर्भ में व्याख्या

आज की राजनीति, समाज या संगठनात्मक कार्यों में यह नीति अत्यंत यथार्थ सिद्ध होती है।

  • कोई व्यक्ति कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, यदि वह एकता में संगठित जनसमूह से उलझता है, तो उसकी पराजय निश्चित है।
  • इतिहास में कई बार देखा गया है कि अत्याचारी शासकों को साधारण जनता ने एकजुट होकर नीचे गिराया।
  • यही संदेश हमें लोकतंत्र की शक्ति, जन-बल, और संगठन की महत्ता को समझने में सहायता करता है।
  • साथ ही यह चेतावनी भी है कि घमण्ड या व्यक्तिगत बल पर अति-आत्मविश्वास घातक हो सकता है।

नीति-सार

"सामूहिक शक्ति, व्यक्तिगत बल से कहीं अधिक प्रभावशाली होती है।"


यह रही श्लोक "बहुभिर्न विरोद्धव्यं..." पर आधारित एक छोटी, संवादात्मक नीति-कथा —


कथा शीर्षक: "अहंकारी सर्प और एकजुट चींटियाँ"

(संवादात्मक शैली में)

स्थान: वन का किनारा
पात्र:

  • सर्पराज (नागेन्द्र)
  • मुखिया पिपीलिका (चींटी समूह की नेता)
  • वनवासी गिलहरी

[प्रवेश — सर्पराज एक शिला पर विराजमान है, अभिमान से फुफकारता हुआ]

सर्पराज:
(हँसते हुए) इस वन में अब मेरी ही सत्ता चलेगी। सब मुझसे भय खाएँ। ये छोटे जीव? मेरी बराबरी? हाहाहा!

[कुछ दूर चींटियों का दल परिश्रम कर रहा है। मुखिया पिपीलिका सबको निर्देश दे रही है।]

मुखिया पिपीलिका:
बहनों! सर्पराज ने आज फिर हमारे मार्ग में विष उगल दिया। हमारे बिल की ओर जाने वाला रास्ता जला डाला उसने!

चींटी 1:
हमें तो भोजन भी नहीं मिल पा रहा। अब क्या करें मुखियाजी?

मुखिया पिपीलिका:
यदि हम संगठित हों, तो किसी भी बड़े से बड़े अहंकारी को भी सबक सिखा सकते हैं।
(कठिन स्वर में) समय आ गया है!

[रात्रि में योजना बनती है। अगली सुबह — सर्प निद्रा में है।]

चींटी 2 (धीरे से):
अब?

मुखिया पिपीलिका:
हाँ! सभी दल एक साथ चढ़ो। पहले पूँछ, फिर गर्दन!

[चींटियों की हजारों की टोली सर्प पर चढ़ जाती है — धीरे-धीरे सर्प की नींद खुलती है, वह छटपटाता है!]

सर्पराज:
(पीड़ा से कराहते हुए) अरे! यह क्या हो रहा है! मैं तो सर्पराज हूँ! मुझे कौन खा सकता है?

मुखिया पिपीलिका (चढ़कर कहती है):
राजा वही होता है जो न्याय करे, अहंकार नहीं! अब जान लो — "स्फुरन्तमपि नागेन्द्रं भक्षयन्ति पिपीलिकाः"।

[सर्प तड़पता है और अंततः निष्क्रिय हो जाता है।]

गिलहरी (देखते हुए):
बुद्धिमानों को चाहिए कि वे कभी भी छोटे, पर संगठित जन से विरोध न करें — नहीं तो उनका भी यही हाल होता है।


नैतिक शिक्षा:

"एकता में शक्ति होती है। अहंकार और अकेली शक्ति भी जनता की एकजुटता के सामने टिक नहीं सकती।"


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