"सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू" — एक भावपूर्ण व्याख्या

Sooraj Krishna Shastri
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गोस्वामी तुलसीदासजी की इस एक चौपाई — "सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू" — में भक्तवत्सल प्रभु श्रीराम के प्रति भक्त मनुजी की भावना, भगवान की अनुकंपा, भक्त पर प्रभु की आत्मीयता तथा भगवान की सहज कृपालुता का समुच्चय समाहित है। अब आइए इसे भावगर्भित शैली में प्रस्तुत करते हैं:

"सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू" — एक भावपूर्ण व्याख्या, ramcharitamanas
"सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू" — एक भावपूर्ण व्याख्या, ramcharitamanas



"सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू" — एक भावपूर्ण व्याख्या

प्रसंग:
रामचरितमानस के बालकाण्ड में मनु और शतरूपा की कठोर तपस्या के पश्चात जब आकाशवाणी हुई – “वर मांगो”, तब मनु जी ने अत्यंत विनीत भाव से दण्डवत् प्रणाम कर प्रभु से प्रार्थना की। उस प्रार्थना में मनु जी ने भगवान को संबोधित करते हुए कहा:

"सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू।
बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥" (बालकाण्ड, 127)

यहाँ मनु जी भगवान को तीन विशेष उपमाओं से सम्बोधित करते हैं:

  1. सेवक का संरक्षक,
  2. सुरतरु (कल्पवृक्ष),
  3. सुरधेनु (कामधेनु)

सुरतरु और सुरधेनु – एक तुलनात्मक विश्लेषण

1. समानता – इच्छापूर्ति का सामर्थ्य

कल्पवृक्ष और कामधेनु, दोनों की महत्ता इसी में है कि ये इच्छाओं की पूर्ति करने वाले दिव्य प्रतीक हैं।

  • कल्पवृक्ष – वृक्ष रूप में इच्छानुसार फल देता है।
  • कामधेनु – गाय रूप में मनोवांछित दूध (या समस्त सामग्री) देती है।

इस प्रकार दोनों उपमाएं भक्त की इच्छा पूर्ति में भगवान की शक्ति को दर्शाती हैं।

2. भिन्नता – भगवान की भक्तपरायणता की गहराई

यद्यपि उद्देश्य एक है, फिर भी गोस्वामी तुलसीदासजी ने दोनों उपमाओं का एक साथ प्रयोग किया, क्योंकि इनके माध्यम से वे प्रभु की भक्त के प्रति असीम करुणा और अनन्य आत्मीयता को प्रकट करना चाहते हैं।

(क) कल्पवृक्ष – इच्छापूर्ति के लिए प्रयास आवश्यक

कल्पवृक्ष से फल प्राप्त करने के लिए साधक को:

  • वृक्ष के पास जाना पड़ता है,
  • फल तोड़ना होता है,
  • और फिर खाने के लिए दाँत और मुख का उपयोग करना पड़ता है।

यह सूचित करता है कि फल प्राप्ति के लिए कुछ न कुछ प्रयास आवश्यक होता है।

(ख) कामधेनु – इच्छापूर्ति में पूर्ण सहजता

वहीं दूसरी ओर, कामधेनु:

  • बिना बुलाए, अपने बछड़े (भक्त) के पास स्वयं आ जाती है,
  • दूध स्वयं देती है,
  • और वह दूध पीने के लिए भी मुँह चलाने की आवश्यकता नहीं, केवल सहज ग्रहण की अवस्था पर्याप्त है।

यहाँ भगवान की भूमिका पूर्णतः निष्काम सेवा और आत्मार्पण की हो जाती है। भगवान अपने भक्त की मनोवांछित वस्तु बिना प्रयास के ही प्रदान करते हैं।

इसलिए सुरधेनु की उपमा सुरतरु से अधिक विशिष्ट है

भगवान केवल इच्छापूर्ति करने वाले ही नहीं हैं, वे तो उससे भी अधिक – स्वयं पहल करने वाले, करुणामयी, आत्मीय, और भक्त के प्रति पूर्णतः समर्पित हैं। इसलिए गोस्वामीजी ने "सुरतरु" के तुरंत पश्चात "सुरधेनू" शब्द का प्रयोग कर भक्त पर उनकी करुणा की असीम गहराई को दर्शाया।


भाव का और गहराई से अवलोकन

1. भगवान – कल्पवृक्ष नहीं, कामधेनु हैं

फल पाने के लिए कल्पवृक्ष के पास जाना पड़ता है, परंतु कामधेनु बछड़े के पास स्वयं आती है।

जैसे माता अपने शिशु को बिना बुलाए दूध पिलाती है, वैसे ही भगवान अपने भक्त के हृदय की अकथ कामना को बिना कहे ही समझकर पूर्ण कर देते हैं। वे भावग्रहिणी हैं – केवल शुद्ध भावना पर प्रतिक्रिया देने वाले।


2. उदाहरण – भरद्वाज ऋषि और भरत का स्वागत

अयोध्याकाण्ड में महर्षि भरद्वाज, जब भरत के आगमन की सूचना पाते हैं, तो केवल मन में सोचते हैं कि अतिथि के स्तर के अनुरूप ही आतिथ्य होना चाहिए। वह किसी से कहते नहीं हैं। किन्तु:

"सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई।
भगति हेतु सब साज समाई॥" (अयो.का. 97/1)

भगवत् प्रेरणा से ऋद्धि-सिद्धियाँ स्वतः आ जाती हैं, क्योंकि भगवान अपने भक्तों के भाव को बिना कहे ही जान लेते हैं और उसी क्षण उनके लिए सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ कर देते हैं।


3. निष्कर्ष – ‘सुरधेनु’ शब्द क्यों?

इसलिए, गोस्वामी जी ने कल्पवृक्ष की उपमा देकर भगवान की इच्छापूर्ति करने वाली महिमा दर्शाई और कामधेनु की उपमा देकर उस महिमा की सर्वोच्चता और सहज करुणा को प्रकट किया।

"कल्पवृक्ष फल देता है – परंतु प्रयास के साथ,
कामधेनु दूध देती है – बिना प्रयास के।
कल्पवृक्ष के पास जाना पड़ता है,
परंतु कामधेनु स्वयं चलकर आती है।"


अंत में एक गूढ़ भाव

"सुनु सेवक" – इस सम्बोधन से मनुजी ने स्वयं को सेवक और भगवान को स्वामी घोषित किया।
परन्तु आगे "सुरतरु सुरधेनु" कहकर उन्होंने भगवान को सेवक की सेवा में तत्पर साधन के रूप में दर्शाया।

यहाँ सेवक के लिए स्वयं स्वामी सेवक रूप में प्रस्तुत हैं – यही है भगवान श्रीराम की भक्तपरायणता और भक्त के वश में होने का विराट भाव


उपसंहार

इस प्रकार, "सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू" एक साधारण उपमा नहीं, बल्कि यह चौपाई:

  • भक्ति की पराकाष्ठा,
  • भगवान की भक्त के प्रति सहज करुणा,
  • और उनकी कृपावशता का अद्भुत वाणी-चित्र है।

इसीलिए यह शब्द गोस्वामीजी की लेखनी से सहज बह निकले –

"सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू॥"


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