संस्कृत श्लोक "सूर्यं प्रति रजः क्षिप्तं स्वचक्षुषि पतिष्यति" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण
नमः श्रीरामाय 🙏
प्रस्तुत श्लोक संस्कृत नीतिशास्त्र की एक अत्यंत प्रभावशाली रचना है जो संस्कार, सम्मान और कर्तव्यबोध से संबंधित एक गहन सत्य को प्रकट करती है।
सूर्यं प्रति रजः क्षिप्तं स्वचक्षुषि पतिष्यति ।बुधान् प्रति कृतावज्ञा सा तथा तस्य भाविनी ॥
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संस्कृत श्लोक "सूर्यं प्रति रजः क्षिप्तं स्वचक्षुषि पतिष्यति" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण |
1. 🔤 हिन्दी अनुवाद:
जो धूल सूर्य की ओर फेंकी जाती है, वह लौटकर अपनी ही आँखों में गिरती है।उसी प्रकार जो व्यक्ति विद्वानों का अपमान करता है, भविष्य में वही अपमान उसी के भाग्य में लिखा होता है।
2. 📚 शाब्दिक विश्लेषण:
पद | मूल शब्द | अर्थ |
---|---|---|
सूर्यं | सूर्य | सूर्य को |
प्रति | उपसर्ग | की ओर |
रजः | रजस् (नपुं.) | धूल |
क्षिप्तं | क्षिप्त (क्रियाविशेषण) | फेंकी गई |
स्वचक्षुषि | स्व + चक्षुषि | अपनी आँख में |
पतिष्यति | √पत् धातु + भविष्यत् काल | गिरेगी |
बुधान् | बुध (विद्वान्), पुं., बहु. | विद्वानों को |
कृतावज्ञा | कृत + अवज्ञा | किया गया अपमान |
सा | सः (स्त्रीलिंग, एकव.) | वह (अवज्ञा) |
तस्य | तत् (संबंधबोधक) | उस (अपमान करने वाले) की |
भाविनी | √भू + णिनि प्रत्यय | भविष्य में घटने वाली |
3. 🧵 व्याकरणिक पक्ष:
- सूर्यं प्रति – द्वितीया विभक्ति, गति-वाचक अव्यय के साथ प्रयुक्त।
- रजः क्षिप्तं – रजः (नपुंसक) कर्ता, क्षिप्तं (क्रियाविशेषण, पूर्वकाल)।
- स्वचक्षुषि पतिष्यति – सप्तमी विभक्ति (कर्मणि प्रयोग), पतिष्यति भविष्यत् काल में धातु ‘√पत्’।
- कृतावज्ञा – कृ धातु + अवज्ञा (भाववाचक संज्ञा), स्त्रीलिंग।
- सा तस्य भाविनी – "वह (अवज्ञा), उसी (कर्त्ता) की भविष्य में होने वाली है" — यह वाक्य कर्तृवाच्य है।
4. 🪷 भावार्थ (तात्त्विक विवेचन):
🔸 प्रथम पंक्ति:
“सूर्यं प्रति रजः क्षिप्तं स्वचक्षुषि पतिष्यति”जो व्यक्ति महान्, तेजस्वी, और सर्वश्रेष्ठ को अपमानित या नीचा दिखाने का प्रयास करता है, उसका वह प्रयास सफल नहीं होता, बल्कि वही अपमान लौटकर उसे ही नुकसान पहुँचाता है।सूर्य की ओर उड़ाई गई धूल सूर्य को नहीं ढँक सकती, लेकिन उसकी आभा में उस धूल का प्रतिफलन उस व्यक्ति की आँखों में ही जलन पैदा करता है।
🔸 द्वितीय पंक्ति:
“बुधान् प्रति कृतावज्ञा सा तथा तस्य भाविनी”जो व्यक्ति ज्ञानी, विद्वान्, गुरुजनों का अपमान करता है, उनकी उपेक्षा करता है — उसके भविष्य में वही अपमान लौटकर उसकी प्रतिष्ठा को भंग कर देता है।यह कर्म का चक्र है: जो जैसा बोएगा, वैसा ही काटेगा।
5. 🌐 आधुनिक सन्दर्भ में विस्तृत विवेचन:
📌 मानसिक विकास का सन्देश:
"जो भी ज्ञान का अपमान करता है, वह स्वयं अज्ञान में डूबकर नष्ट होता है।"
📌 राजनीति और मीडिया में:
राजनीति, सोशल मीडिया या पब्लिक प्लेटफार्म पर जब सत्य बोलने वाले, निर्भीक विचारक आलोचना का शिकार होते हैं, तो वास्तव में समाज स्वयं अपनी आँखों में धूल झोंकता है।
📌 शिक्षा और विद्यालय:
छात्रों को चाहिए कि वे शिक्षकों, ज्ञानियों और शास्त्रों के प्रति श्रद्धा और विनय रखें। क्योंकि उनका अपमान अंततः स्वयं के बौद्धिक पतन का कारण बनता है।
📌 आत्मचिंतन हेतु:
यदि हमें कभी लगता है कि हम किसी के सत्य बोलने, कठोर सुधार, या विद्वत्ता से असहज हो रहे हैं, तो हमें अपने अहंकार को पहचानकर सुधार लेना चाहिए।
6. 🏁 नैतिक निष्कर्ष:
🌞 संवादात्मक नीति कथा:
🧒 पात्र:
- आरव – एक जिज्ञासु और कभी-कभी अहंकारी छात्र
- नीलिमा जी – उसकी सहृदय, लेकिन सिद्धांतप्रिय शिक्षिका
- दिया – उसकी सहपाठी, शांत स्वभाव वाली
- प्रसंग – एक संस्कृत कक्षा का वार्तालाप
📖 प्रारम्भ:
(विद्यालय की कक्षा में, संस्कृत का पाठ चल रहा है। बोर्ड पर श्लोक लिखा है…)
सूर्यं प्रति रजः क्षिप्तं स्वचक्षुषि पतिष्यति ।बुधान् प्रति कृतावज्ञा सा तथा तस्य भाविनी ॥
✨ नीति कथा आरंभ
नीलिमा जी (कहानी शैली में):
"आपके ये श्लोक अब किसी काम के नहीं! ज्ञान अब गूगल पर है!"
एक दिन गाँव में सभा लगी। पंडित जी बोले,
"बालक, सूर्य की ओर फेंकी गई धूल कभी उसे नहीं ढँकती, पर लौटकर आँखों में जरूर चुभती है।"
एक दिन उसे वही श्लोक याद आया—
"बुधान् प्रति कृतावज्ञा — तस्य एव भाविनी!"जिसे मैंने तुच्छ समझा, उसी ने मुझे तुच्छ बना दिया।
🧩 पुनरागमन
📘 कथासार (नीति):
🔹 जो विद्वानों का अपमान करता है, वह स्वयं के भविष्य में कांटे बोता है।🔹 ज्ञान का अपमान, आत्म-विनाश की ओर पहला कदम है।🔹 जैसे धूल सूर्य को नहीं ढँकती, वैसे ही अवज्ञा कभी विद्या को नीचा नहीं दिखा सकती – वह स्वयं के आँखों में चुभती है।