संस्कृत श्लोक: "यः सुन्दरस्तद्वनिता कुरूपा" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "यः सुन्दरस्तद्वनिता कुरूपा" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "यः सुन्दरस्तद्वनिता कुरूपा" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

श्लोक:
यः सुन्दरस्तद्वनिता कुरूपा या सुन्दरी सा पतिरूपहीना।
यत्रोभयं तत्र दरिद्रता च विधेर्विचित्राणि विचेष्टितानि॥

शब्दार्थ:

  • यः सुन्दरः – जो पुरुष सुंदर होता है
  • तद्वनिता – उसकी स्त्री
  • कुरूपा – कुरूप (असुंदर) होती है
  • या सुन्दरी – जो स्त्री सुंदर होती है
  • सा पतिः रूपहीनः – उसका पति कुरूप (असुंदर) होता है
  • यत्र उभयं – जहाँ दोनों (पति-पत्नी) सुंदर होते हैं
  • तत्र दरिद्रता च – वहाँ दरिद्रता (गरीबी) होती है
  • विधेः विचित्राणि विचेष्टितानि – विधाता (भाग्य) के कार्य अत्यंत विचित्र होते हैं

हिन्दी अनुवाद:

अधिकतर, सुंदर पुरुष की पत्नी सुंदर नहीं होती, और सुंदर स्त्री का पति कुरूप होता है। जहाँ दोनों ही सुंदर होते हैं, वहाँ दरिद्रता होती है। वास्तव में, विधाता (भाग्य) के कार्य बड़े विचित्र होते हैं।


भावार्थ एवं व्याख्या:

इस श्लोक में जीवन में भाग्य और संयोग की विचित्रताओं को उजागर किया गया है। यह बताता है कि संसार में हर व्यक्ति को सब कुछ संपूर्ण रूप से नहीं मिलता। भाग्य का खेल ऐसा है कि:

  1. यदि कोई पुरुष सुंदर है, तो उसकी पत्नी अपेक्षाकृत साधारण रूप की हो सकती है।
  2. यदि कोई स्त्री अत्यंत सुंदर है, तो उसका पति सुंदर नहीं होता।
  3. यदि कोई जोड़ा सुंदरता में समान हो, तो वे अक्सर गरीबी का शिकार होते हैं।

इसका गहरा संकेत यह है कि जीवन में परिपूर्णता दुर्लभ है। कोई भी व्यक्ति संपूर्ण रूप से सौभाग्यशाली नहीं होता, और विधाता का खेल हमेशा कुछ न कुछ अधूरापन छोड़ ही देता है। यह बात हमें जीवन में संतोष और यथार्थवाद की सीख देती है कि हम अपनी परिस्थिति को स्वीकार करें और उसमें प्रसन्न रहने का प्रयास करें।


दार्शनिक दृष्टिकोण:

  • अपूर्णता ही जीवन का नियम है: यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि संसार में कोई भी चीज पूर्ण नहीं होती। जीवन में किसी को सौंदर्य, किसी को बुद्धि, किसी को धन, और किसी को अच्छा स्वभाव मिलता है, लेकिन सब कुछ एक साथ मिलना दुर्लभ है।
  • भाग्य के खेल: कई बार मनुष्य अपनी योग्यता और प्रयास से बहुत कुछ प्राप्त कर सकता है, लेकिन कुछ चीजें केवल भाग्य के हाथ में होती हैं।
  • संतोष का महत्व: यदि मनुष्य संतोषी होता है, तो वह अपनी परिस्थिति में भी सुखी रह सकता है।

उपनिषदों और गीता से संबंध:

यह श्लोक गीता के निष्काम कर्म सिद्धांत से मेल खाता है, जिसमें श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य को अपने कर्म करने चाहिए, लेकिन फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। भाग्य का खेल हमेशा मनुष्य के नियंत्रण में नहीं होता, इसलिए अपने कर्तव्यों पर ध्यान देना ही श्रेष्ठ है।

🌿 "जो प्राप्त है, वही पर्याप्त है!" 🌿

🙏 जय श्री राम! 🙏

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