संस्कृत श्लोक: "यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्ते" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्ते" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्ते" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

संस्कृत श्लोक: "यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्ते" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

श्लोक:

यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः ॥

(कठोपनिषद् 1.3.5)


शब्दार्थ:

  • यः – जो (व्यक्ति)
  • तु – लेकिन
  • अविज्ञानवान् – अविवेकी, बिना आत्म-ज्ञान वाला
  • भवति – होता है
  • अयुक्तेन मनसा – असंयमित (अनुशासनहीन) मन के साथ
  • सदा – सदा, हमेशा
  • तस्य – उसके (उस व्यक्ति के)
  • इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ
  • अवश्यानि – वश में नहीं रहने वाली
  • दुष्टाश्वा इव – दुष्ट घोड़ों के समान
  • सारथेः – सारथी (रथ का चालक) के

हिन्दी अनुवाद:

जो व्यक्ति आत्म-ज्ञान (विवेक) से रहित होता है और जिसका मन हमेशा असंयमित रहता है, उसकी इन्द्रियाँ उसके वश में नहीं रहतीं। वे उसी प्रकार अनियंत्रित होकर विचरण करती हैं जैसे एक अयोग्य सारथी के हाथ में पड़े हुए दुष्ट (उद्दण्ड) घोड़े।


व्याख्या:

यह श्लोक कठोपनिषद् के प्रसिद्ध "रथ-उपमा" (chariot analogy) का एक महत्वपूर्ण भाग है। इसमें शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों को एक रथ के विभिन्न अंगों के रूप में वर्णित किया गया है:

  • शरीर = रथ
  • इन्द्रियाँ = रथ के घोड़े
  • मन = लगाम (rein)
  • बुद्धि = सारथी (charioteer)
  • आत्मा = रथ का स्वामी (यात्री)

यदि रथ का सारथी (बुद्धि) विवेकहीन और अशिक्षित हो, और उसके हाथ में लगाम (मन) भी ढीली हो, तो रथ के घोड़े (इन्द्रियाँ) नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं। वे जिस दिशा में चाहें भागने लगते हैं, जिससे रथ (जीवन) अस्थिर हो जाता है और मार्ग से भटक जाता है।

यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि:

  • यदि बुद्धि (सारथी) विवेकवान नहीं है,
  • यदि मन (लगाम) नियंत्रित नहीं है,
  • तो इन्द्रियाँ (घोड़े) स्वच्छंद होकर इधर-उधर भागेंगी और व्यक्ति जीवन में असंतुलन और पतन की ओर बढ़ेगा।

आध्यात्मिक संदेश:

  1. आत्मसंयम आवश्यक है: यदि मन और इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, तो व्यक्ति सांसारिक सुखों में लिप्त होकर अपने जीवन के उच्च उद्देश्य को भूल जाता है।
  2. बुद्धि को प्रशिक्षित करें: विवेकवान बुद्धि ही सही मार्गदर्शन कर सकती है। इसे शास्त्रों के अध्ययन और सत्संग से परिष्कृत करना चाहिए।
  3. मन को नियंत्रित करें: यदि मन इन्द्रियों की इच्छाओं को अनियंत्रित रूप से स्वीकार करता है, तो यह मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है। योग और ध्यान से मन को स्थिर और संयमित करना आवश्यक है।
  4. जीवन को सार्थक बनाएं: यदि रथ (शरीर) को सही दिशा में ले जाना है, तो आत्मा (यात्री) को एक कुशल सारथी (बुद्धि) और नियंत्रित घोड़ों (इन्द्रियों) की आवश्यकता होती है।

उदाहरण:

  • यदि कोई व्यक्ति मीठा खाने का बहुत शौकीन है लेकिन उसे मधुमेह (डायबिटीज़) है, फिर भी वह संयम नहीं रखता और मिठाइयाँ खाता रहता है, तो उसकी इन्द्रियाँ (रसना/जिह्वा) अनियंत्रित हैं और उसकी बुद्धि कमजोर है। परिणामस्वरूप उसका स्वास्थ्य बिगड़ जाएगा।
  • एक विद्यार्थी यदि मोबाइल, टीवी, खेल-कूद में ही उलझा रहे और पढ़ाई न करे, तो यह भी इन्द्रियों के अनियंत्रण का ही परिणाम होगा।

निष्कर्ष:

यह श्लोक हमें आत्मसंयम, मन और इन्द्रियों को नियंत्रण में रखने का महत्व समझाता है। यदि हम अपनी बुद्धि को सही मार्ग पर लगाएंगे और मन को अनुशासित करेंगे, तो हम जीवन रूपी रथ को सफलता और आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जा सकते हैं।

"योग और आत्म-चिंतन द्वारा मन और इन्द्रियों को वश में रखें, यही सच्ची आत्मसाधना है।"

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