हिन्दी कविता: अब भी कोई गीत बचा क्या प्रियवर तुम्हें सुनाने को।

Sooraj Krishna Shastri
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हिन्दी कविता: अब भी कोई गीत बचा क्या प्रियवर तुम्हें सुनाने को।
हिन्दी कविता: अब भी कोई गीत बचा क्या प्रियवर तुम्हें सुनाने को।

हिन्दी कविता: अब भी कोई गीत बचा क्या प्रियवर तुम्हें सुनाने को।

 यह कविता एक अनुभवी, हृदय-विदीर्ण आत्मा की अंतर्वेदना को अत्यंत मार्मिक रूप में व्यक्त करती है। आदित्य विक्रम श्रीवास्तव जी ने बड़े ही भावनात्मक, दार्शनिक और जीवन के यथार्थ से जुड़े भावों को सहज किंतु सशक्त शब्दों में पिरोया है। आइए कुछ मुख्य बिंदुओं पर संक्षिप्त समीक्षा करें:


भावात्मक मूल्यांकन:

  • विषाद का सौंदर्य: संपूर्ण कविता में एक गहन विषाद है, जो विरक्ति, आत्मिक थकावट, और जीवन के उत्तरार्ध में उपजी निस्सारता की अनुभूति कराता है।

  • भावों की गहराई: विशेष रूप से ये पंक्तियाँ –

    "अब भी कोई गीत बचा क्या
    प्रियवर तुम्हें सुनाने को"

    – जीवन में सब कुछ दे चुकने के बाद अवशेष शून्यता को दर्शाती हैं।


काव्यात्मक संरचना:

  • छंद संयोजन मुक्त शैली में है, किंतु अंत्यानुप्रास एवं यमक जैसे अलंकारों का सुंदर प्रयोग हुआ है।
  • प्रत्येक अंतरे में "अब भी कोई गीत बचा क्या..." की पुनरावृत्ति कविता को एक गीतात्मक प्रवाह देती है।

दार्शनिक अंतर्दृष्टि:

  • सांसारिक संबंधों की सीमाएँ"रिश्ते कब संग संग चलते हैं..." जैसी पंक्तियाँ जीवन की कठोर सच्चाई को उभारती हैं।
  • त्याग और विरक्ति की अनुभूति – यह स्पष्ट है कि रचनाकार न केवल थका है, बल्कि सब कुछ दे चुकने के बाद अब मौन की ओर उन्मुख हो रहा है।

प्रस्तावना हेतु सुझाव (यदि संग्रह/पुस्तिका के लिए):

यह कविता एक आत्मचिंतन की यात्रा है — जहाँ कवि जीवन के विभिन्न रंगों, संबंधों, इच्छाओं, और आशाओं को जी चुका है। अब वह उस अंतिम क्षितिज की ओर देखता है जहाँ मौन ही शेष है।


अब भी कोई गीत बचा क्या 
प्रियवर तुम्हें सुनाने को


अब भी कोई गीत बचा क्या 

प्रियवर तुम्हें सुनाने को।

जीवन की घटती सांसों में 

शेष नहीं कुछ गाने को।।

अब भी कोई गीत बचा क्या 

प्रियवर तुम्हें सुनाने को।।


प्यार दिया, श्रृंगार दे चुका।

इन बाहों का हार दे चुका।

रख कर अपनी झोली खाली,

सब के सब अधिकार दे चुका।

इस ढलते,रीते जीवन में,

अब क्या बचा लुटाने को।।

अब भी कोई गीत बचा क्या 

प्रियवर तुम्हें सुनाने को।।


आशाएं मृतप्राय हो चुकीं।

सांसे भी अभिप्राय खो चुकी।

अजर अमर इच्छाएं सारी,

थक कर के निरुपाय हो चुकीं।

नीरव, पतझड़ से जीवन में,

अब क्या बचा लुभाने को।

अब भी कोई गीत बचा क्या 

प्रियवर तुम्हें सुनाने को।।


मन पीड़ा का महासमर है।

बस क्रंदन का विकट कहर है।

शून्य चेतना अब रिश्तों में,

कूट कूट कर भरा जहर है।

सपने जैसे अपने झूठे,

किसको घाव दिखाने को।

अब भी कोई गीत बचा क्या,

प्रियवर तुम्हें सुनाने को।।


रिश्ते कब संग संग चलते हैं।

ये तो बस मन को छलते हैं।

रहा जब तलक साथ,चले हम,

व्यर्थ मोह मन में पलते हैं।

जीवन का यह सत्य समझ लें,

मन को व्यर्थ दुखाने को।

अब भी कोई गीत बचा क्या 

 प्रियवर तुम्हें सुनाने को।।


रचनाकार— 

©️आदित्य विक्रम श्रीवास्तव 

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