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Ramcharitamanas, bhojan karia tripit hit lagi. Tulsidas, chaupai, भोजन करिअ तृपिति हित लागी जिमि सो असन पचवै जठरागी असि हरि भगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई॥ |
भोजन करिअ तृपिति हित लागी । जिमि सो असन पचवै जठरागी ॥ असि हरि भगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई॥
प्रस्तुत चौपाई रामचरितमानस से ली गई है, और यह हरिभक्ति की सहजता, प्रभावशीलता एवं अनिवार्यता को अत्यंत सरस और उपमायुक्त शैली में व्यक्त करती है। अब हम इसका विस्तृत विश्लेषण सभी पक्षों — शब्दार्थ, प्रतीकात्मक व्याख्या, दार्शनिक पक्ष, आध्यात्मिक भाव, तथा आधुनिक सन्दर्भ — में करेंगे।
मूल चौपाई:
1. शब्दार्थ:
- भोजन करिअ तृपिति हित लागी – भोजन इसीलिए किया जाता है कि तृप्ति मिले।
- जिमि सो असन पचवै जठरागी – जैसे वह भोजन (हमारे द्वारा खाया गया) पेट की अग्नि (जठराग्नि) अपने आप पचा देती है।
- असि हरि भगति सुगम सुखदाई – वैसे ही हरि की भक्ति भी सहज, सरल और परम सुख देने वाली है।
- को अस मूढ़ न जाहि सोहाई – फिर ऐसा कौन मूर्ख होगा जिसे ऐसी भक्ति रुचिकर न लगे?
2. प्रतीकात्मक व्याख्या:
- "भोजन" — सांसारिक जीव की आवश्यक क्रिया, जो प्रत्यक्ष सुख (तृप्ति) के लिए की जाती है।
- "जठराग्नि" — ईश्वरकृपा का प्रतीक, जो हमारे प्रयासों के बिना भी अंतः क्रियाओं को सम्पन्न करती है।
- "हरि भक्ति" — ईश्वरप्राप्ति का सहज मार्ग।
- "तृप्ति" — आंतरिक संतोष, जो केवल भौतिक साधनों से नहीं, बल्कि अध्यात्म से प्राप्त होता है।
- "मूढ़" — वह जो इस सरल मार्ग को भी न अपनाए।
3. भावार्थ एवं आध्यात्मिक व्याख्या:
तुलसीदासजी इस चौपाई में भक्ति के स्वभाव, सहजता, और अनुभूति की गहराई को बहुत ही प्रभावी ढंग से समझा रहे हैं। वे कहते हैं कि जैसे हम भोजन केवल तृप्ति के लिए करते हैं, और पाचन क्रिया हमारी इच्छा या चेष्टा के बिना ही स्वाभाविक रूप से हो जाती है, वैसे ही यदि हम भक्ति को प्रारंभ कर दें, तो शेष कार्य (चिंतन, साधना, मन की स्थिरता, आत्मिक उन्नति) ईश्वर की कृपा से स्वतः सम्पन्न होने लगते हैं।
भक्ति न तो कठिन योग है, न ज्ञान का जटिल मार्ग, बल्कि यह तो एक सहज प्रेम का मार्ग है। इसे अपनाने में कोई शारीरिक या मानसिक बाध्यता नहीं होती।
4. दार्शनिक पक्ष:
यह चौपाई भगवद्गीता में व्यक्त "सहज कर्मयोग" एवं "भक्तियोग" की भी पुष्टि करती है:
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥" (गीता 9.22)
यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो अनन्य भाव से मेरी उपासना करता है, उसके योगक्षेम का भार मैं लेता हूँ। तुलसीदासजी भी यही कह रहे हैं — भोजन करो, पाचन स्वाभाविक है; भक्ति करो, उन्नति और परम सुख अपने आप आएगा।
5. मनोवैज्ञानिक पक्ष:
भक्ति का प्रभाव मानसिक संतुलन, सकारात्मकता, तनाव-निवारण, और आत्मीय संबंधों की वृद्धि में अत्यंत सहायक होता है। जैसा कि भोजन से तृप्ति मिलती है, वैसे ही भक्ति से हृदय को तृप्ति मिलती है — यह कोई कल्पना नहीं, अनुभव की बात है।
6. आधुनिक सन्दर्भ:
आज के युग में जब जटिल जीवन शैली, तनाव, और असंतोष व्याप्त हैं, तब तुलसीदासजी की यह बात अत्यंत प्रासंगिक हो जाती है। मनुष्य बाह्य साधनों में सुख खोजता है, किन्तु वह कभी तृप्त नहीं होता। भक्ति इस अतृप्ति को समाप्त करने का सहज मार्ग है।
7. तृप्ति और भक्ति का सहज भाव
जैसे भोजन किया जाता है तृप्ति के लिए और जठराग्नि उसे स्वयं पचा लेती है, वैसे ही हरि भक्ति भी सहज और सुखदाई है। जिसे यह न रुचे, वह मूढ़ ही होगा।
8. श्रीभगवान का वैश्वानर रूप (गीता)
मैं ही वैश्वानर (पाचन-अग्नि) होकर प्राणियों के शरीर में स्थित हूँ और प्राण व अपान वायु से संयुक्त होकर चार प्रकार के अन्नों को पचाता हूँ।
9. हरिभक्ति – ब्रह्म के प्रति प्रेम
भक्ति भजन है, किसका? ब्रह्म का।ब्रह्म – चेतना का शिखर, यज्ञियों में श्रेष्ठ, पूजनीयों में पूज्य, कर्मफलदाता, भक्तों का रक्षक।भक्ति योग – प्रेमी प्रकृति वालों के लिए उपयोगी मार्ग।
10. भक्ति को त्यागना – एक मूढ़ता
जो भक्ति की महिमा जानकर भी उसे त्यागकर केवल ज्ञान के लिए श्रम करते हैं, वे मूर्ख हैं – जैसे घर में खड़ी कामधेनु छोड़कर दूध के लिए मदार ढूँढने निकलते हैं।
11. प्रेम – भक्ति का मूल तत्व
ईश्वर से प्रेम करना ही भक्ति है।प्रेम – एक सार्वभौमिक संवेग।स्वार्थ से प्रेम, शरीर से प्रेम, संतान से प्रेम – सीमित प्रेम हैं।परमात्मा से प्रेम – शुद्ध, मुक्तिदायक होता है।
12. ईश्वरप्रेम – स्वार्थ से परे
जब तक भक्त स्वार्थ लेकर ईश्वर की भक्ति करता है, वह भक्तियोग नहीं है।पराभक्ति – केवल प्रेम, कोई अन्य कामना नहीं।प्रेम का सबसे बड़ा पुरस्कार प्रेम ही है।स्वयं ईश्वर प्रेमस्वरूप है।
13. विष्णुपुराण का भक्ति प्रार्थना
जैसे अज्ञानी लोगों की इन्द्रिय-विषयों में प्रीति रहती है, वैसी ही अविचल प्रीति मुझे आपमें हो और वह कभी मेरे हृदय से दूर न हो।
14. भक्ति के विभिन्न प्रकार (नवधा भक्ति)
नवधा भक्ति के रूप – श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन।
15. निर्गुण-सगुण भक्ति का भेद
भक्ति के दो भेद –1. निर्गुण भक्ति: ज्ञान, ध्यान, निवृत्ति का मार्ग – कठिन, अगम्य।2. सगुण भक्ति: ईश्वर के रूप में प्रेम – सुलभ, भावपूर्ण।
16. निष्काम प्रेम ही भक्ति है
निष्काम, अनवरत प्रेमयुक्त भक्ति ही पुरुष का परम धर्म है। यही आत्मा को प्रसन्न करती है।
17. भक्ति के स्तर – गौणी व परा
भक्ति रसामृत सिंधु के अनुसार –गौणी भक्ति: साधनावस्था की, दो प्रकार – वैधी (विधि-निषेध), रागानुगा (प्रेमप्रधान)।परा भक्ति: सिद्धावस्था की, शुद्ध प्रेम।
18. भक्तियोग की आवश्यकताएँ
आत्मसंयम, अहिंसा, ईमानदारी, निश्छलता, स्वच्छ गुण –ये सब निःस्वार्थ प्रेम (भक्ति) के लिए आवश्यक हैं।प्रारम्भ में मूर्ति, मंदिर आदि सहारा बनते हैं; पर भक्ति श्रद्धा और विश्वास पर आधारित है।
19. श्रीरामभक्ति – दुःखविनाशिनी
दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ॥
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं ।
जे मनि लागि सुजतन कराहीं ॥
जिनके हृदय में श्रीरामभक्ति रूपी मणि निवास करती है, वे दुःख से रहित होते हैं – वे ही संसार में चतुरों के शिरोमणि हैं।
20. रामभक्ति – सहज पर कृपाप्राप्त
यद्यपि रामभक्ति सहज और उपलब्ध है, किन्तु श्रीराम की कृपा के बिना कोई उसे प्राप्त नहीं कर सकता।दुर्भाग्यवश लोग उसके सुगम उपायों को भी छोड़कर इधर-उधर भटकते रहते हैं।
21. श्रद्धा का बल – निर्माण का मूल
मनुष्य जैसा विचार करता है वैसा बनता है,पर उससे भी अधिक प्रभावी होती है – उसकी श्रद्धा।
22. निष्कर्ष:
यह चौपाई एक अत्यंत प्रभावशाली भक्ति-प्रवर्तक उपमा है, जिसमें तुलसीदासजी ने स्पष्ट किया है कि:
- भक्ति कोई भारी साधना नहीं, बल्कि सहज प्रेम है।
- यह स्वयं फलदायी है — जैसे जठराग्नि पाचन कर देती है, वैसे ही हरि भक्ति आत्मा को शुद्ध कर देती है।
- जिसे यह मार्ग रुचिकर न लगे, वह मूढ़ है — यानी जिसने जीवन का मर्म नहीं समझा।