Sagun and Nirgun Brahman: बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना का वास्तविक अर्थ और रहस्य

Sooraj Krishna Shastri
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बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना" का गहरा अर्थ समझें। जानिए गोस्वामी तुलसीदास और भगवान जगन्नाथ का प्रसंग और सगुण-निर्गुण ब्रह्म के बीच का अद्भुत संबंध। Read more about the unity of Formless and Formed God.

Sagun and Nirgun Brahman: बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना का वास्तविक अर्थ और रहस्य

Sagun and Nirgun Brahman: बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना का वास्तविक अर्थ और रहस्य
Sagun and Nirgun Brahman: बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना का वास्तविक अर्थ और रहस्य


सगुण-निर्गुण विवेक: ब्रह्म का एकात्म स्वरूप

प्रस्तावना

भारतीय दर्शन और भक्ति मार्ग में अक्सर यह जिज्ञासा होती है कि ईश्वर निराकार है या साकार? गोस्वामी तुलसीदास जी ने बालकाण्ड में इसका समाधान अत्यंत सरल दृष्टांतों से किया है।


1. निर्गुण ब्रह्म की विलक्षणता (अचिन्त्य शक्ति)

ब्रह्म का वह स्वरूप जो इंद्रियों की पकड़ से बाहर है, उसे तुलसीदास जी ने इन प्रसिद्ध पंक्तियों में पिरोया है:

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।
कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥

आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु बानी बक्ता बड़ जोगी॥

अर्थ:
वह परमात्मा बिना पैर के चलता है (सर्वव्यापी है), बिना कान के सुनता है (सूक्ष्म ध्वनि और हृदय की पुकार जानता है), बिना हाथ के संसार के समस्त कार्य करता है और बिना मुख के भी समस्त रसों का आनंद लेता है। वह वाणी के बिना भी परम ज्ञानी वक्ता है।

भाव:
यह उस 'परम तत्व' की ओर संकेत है जो भौतिक सीमाओं (Physical Limitations) से परे है। वह हमारी हर सोच और हर श्वास का साक्षी है।


2. सगुण और निर्गुण में अभेद (Non-duality)

भक्त अक्सर भ्रमित हो जाते हैं कि वे किसकी पूजा करें? तुलसीदास जी स्पष्ट करते हैं:

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥

अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥

अद्वैत सिद्धांत:
जैसे जल और ओले (बर्फ) तत्वतः एक ही हैं, वैसे ही निराकार ब्रह्म और साकार प्रभु में कोई अंतर नहीं है।

प्रेम का वशीकरण:
जो ईश्वर अजन्मा (अज), अदृश्य (अलख) और निराकार है, वही भक्त के प्रेम के वशीभूत होकर धनुष-बाण धारी श्रीराम या मुरलीधर कृष्ण के रूप में प्रकट हो जाता है।


3. जगन्नाथ पुरी का प्रसंग: निराकार का साकार बोध

आपके द्वारा साझा की गई तुलसीदास जी और भगवान जगन्नाथ की कथा एक महान आध्यात्मिक रहस्य को उजागर करती है:

  • तुलसीदास जी का संशय:

    जब उन्होंने जगन्नाथ जी के विग्रह को बिना हाथ-पैर के देखा, तो उनकी 'साकार' मर्यादावादी दृष्टि उन्हें पहचान नहीं पाई।

  • प्रभु की लीला:

    बालक के रूप में आकर प्रभु ने स्वयं तुलसीदास जी की ही लिखी चौपाइयों (बिनु पद चलइ...) के माध्यम से उन्हें याद दिलाया कि "तुलसी, जिस निराकार का वर्णन तुम कागज़ पर कर रहे हो, वही निराकार आज तुम्हारे सामने इस रूप में खड़ा है।"

  • निष्कर्ष:

    यह प्रसंग सिद्ध करता है कि भगवान का 'अपाणिपाद' (बिना हाथ-पैर वाला) स्वरूप वास्तव में उनकी अनंत शक्ति का प्रतीक है।


4. भक्ति का विज्ञान: जल और हिम (बर्फ) का दृष्टांत

आपने जो जल और बर्फ का उदाहरण दिया, वह वेदान्त को समझने का सबसे सटीक तरीका है:

अवस्था स्वरूप विशेषता
जल (Water) निर्गुण / निराकार निराकार, सर्वत्र प्रवाहित होने वाला, जिसे किसी पात्र में नहीं बांधा जा सकता।
हिम (Ice) सगुण / साकार एक निश्चित आकार, जिसे स्पर्श किया जा सकता है, जो आँखों को दिखाई देता है।

तुलसीदास जी का तर्क:

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसे।
जलु हिम उपलु बिलग नहिं जैसे॥

जैसे ठंडी हवा के संपर्क में आकर निराकार भाप या जल 'बर्फ' बन जाता है, वैसे ही 'भक्ति की शीतलता' पाकर निर्गुण ब्रह्म साकार रूप धारण कर लेता है।


5. समर्पण की मुद्रा: हाथ ऊपर उठाकर कीर्तन क्यों?

भक्ति मार्ग में "शरणागति" का बड़ा महत्व है। जैसा कि आपने उल्लेख किया, दोनों हाथ ऊपर उठाना केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक आत्म-समर्पण (Surrender) है:

  • निरहंकारिता:

    जब हम हाथ ऊपर उठाते हैं, तो हम स्वीकार करते हैं कि हमारे पास अब अपनी रक्षा का कोई अस्त्र नहीं है, हम पूरी तरह प्रभु पर आश्रित हैं।

  • बालक भाव:

    जैसे छोटा बच्चा माँ को देखकर हाथ उठाता है कि "मुझे गोद में उठा लो", वैसे ही भक्त भवसागर की लहरों से बचने के लिए पुकारता है— "हे नाथ! मेरा हाथ पकड़ लो।"


उपसंहार

ईश्वर हमारी प्रार्थना इसलिए नहीं सुनते कि हम ऊँचे स्वर में चिल्ला रहे हैं, बल्कि इसलिए सुनते हैं क्योंकि वे हमारे हृदय के स्पंदन से भी निकट हैं। चाहे हम उन्हें निराकार मानकर ध्यान करें या साकार मानकर प्रेम, यदि समर्पण पूर्ण है, तो वे अवश्य मिलते हैं।

"परमात्मा दूर नहीं है, केवल हमारी पहचान में कमी है।"


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