श्री गुर पद नख मनि गन जोती।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवइ जासू॥
जय श्री राम प्रभु भक्तों :-
श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं। हम जिस शांति की तलाश में रहते हैं वह हमें नहीं मिल पाती है, क्यो ? क्योंकि, हम शिष्य बनने को तैयार ही नहीं है, शिष्य का मतलब इतना ही है कि जो सीखने को तैयार है, शिष्य का अहंकार झुका होना चाहियें, क्योंकि जब अहंकार झुकता है तो ही ज्ञान के रास्ते खुलते हैं। हम सभी अकड में घूमते हैं और यही वजह है कि हम जिस शांति की तलाश में रहते हैं वह हमें नहीं मिल पाती है, जिस दिन हम विनम्र हो जायें तो दोस्तो आप यकीन मानिये कि सच से हमारा परिचय हो जायेगा। अगर हमें जीवन में शांति की तलाश है या हम ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति करना चाहते हैं तो हमें अपने भीतर शिष्यभाव लाना होगा, अंहकार को मिटाना होगा,
दत्तात्रेय भगवान ने चौबीस गुरु बनाएं थे, भगवान दत्तात्रेय के थे चौबीस गुरु । ये चौबीस गुरु हैं पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, समुद्र, अजगर, कपोत, पतंगा, मछली, हिरण, हाथी, मधुमक्खी, शहद निकालने वाला, कुरर पक्षी, कुमारी कन्या, सर्प, बालक, पिंगला, वैश्या, बाण बनाने वाला, मकड़ी, और भृंगी कीट।
पृथ्वी वायुमाकाशमापोग्निश्चन्द्रमा रविः ।
कपोतोऽजगरः सिन्धुः पतङ्गः मधुकृद्गजः॥
मधुहा हरिणोमीनः पिङ्गला कुररोऽर्भकः ।
कुमारी शरकृत् सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत्॥
हमें उन सभी से सीखना होगा जो हमें कुछ सिखा सकते हैं, हमें ज्ञान नहीं चाहिये बल्कि हमें बोध चाहिये, आज कम्प्यूटर के युग में ज्ञान का कोई महत्व नहीं है, लेकिन बोध का महत्व बहुत ज्यादा बढ़ गया है,
इस समय बाहरी ज्ञान तो सर्वत्र है लेकिन उसका बोध नहीं है, हम झुकने को तैयार नहीं ?
सज्जनों, एक कहानी के माध्यम से हम सिखने की कोशिश करते हैं,
एक बहुत ही सुंदर कहानी है, एक सम्राट ने अपने दरबार के बुद्धिमानों को बुलाकर कहा, मैं जानना चाहता हूं कि लोग कहते हैं कि ब्रह्म इस जगत में ऐसे समाया है जैसे सागर के जल में नमक, तो मुझे बताओ कि यह समाया हुआ ब्रह्म कहां है ?
दरबार में सब ज्ञानी थे विद्वान नहीं
ज्ञानी कौन होता है?
न हृष्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते।
गाङ्गो ह्रद ईवाक्षोभ्यो यः स पण्डित उच्यते॥
वे मुश्किल में पड़े, सम्राट को बहुत समझाने की कोशिश की, बड़े उदारहण दिये, लेकिन सम्राट ने कहा, नहीं, मुझे दिखाओ निकालकर, जो सभी जगह छिपा हुआ है, थोड़ा-बहुत तो निकालकर कहीं से दिखाओ, हवा से निकाल दो, दीवाल से निकाल दो, मुझसे निकाल दो, खुद से निकाल दो, कहीं से तो निकालकर थोड़ी तो झलक दिखाओ।
अब क्या करें? सभी मुश्किल में पड़ गयें, सम्राट ने कहा- कल सुबह तक नहीं बता सके तो मानियें कि आप सभी की दरबार से छुट्टी, फिर लौटकर कभी मत आना, बड़ी कठिनाई हो गई सभी बुद्धिमानों को तो यह बातचीत राजा का द्वारपाल भी खड़ा हुआ सब सुन रहा था, दूसरे दिन सुबह जब विद्वान नहीं आये, तो उस द्वारपाल ने कहा, महाराज, विद्वान तो आये नहीं, समय हो गया है।
जहां तक मैं समझता हूँ कि वे अब आयेंगे भी नहीं, क्योंकि ? उत्तर होता तो कल ही दे देते, रात भर में उत्तर कैसे खोजेंगे?
कहीं रखा हुआ उत्तर थोड़े ही ले आएंगे या तैयार कर लेंगे अनुभव होता उन्हें तो कल ही बता देते, अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं उत्तर दूं, राजा ने कहा- मेरे दरबार के सभी विद्वान हार गये, और तू उत्तर देगा, उसने कहा- महाराज, यदि आपकी आज्ञा हो तो उत्तर तो मैं दे सकता हूँ।
राजा ने कहा- भीतर आ कर उत्तर दो, द्वारपाल ने भीतर आकर निवेदन किया, पहले आप सिंहासन से नीचे उतरिये, मैं सिंहासन पर बैठता हूँ ।
सम्राट को यह शर्त अजीब लगी, लेकिन उत्तर की तलाश में उसने इस अजीब मांग को मान लिया, द्वारपाल सिंहासन पर बैठते ही बोला दंडवत करो मुझे, राजा ने कहा- पागल हो गया है क्या, किस तरह की बातें करता है, तो द्वारपाल बोला- अगर आप ऐसा करेंगे तो उत्तर कभी नहीं मिलेगा, जो आपके चरणों में बैठते हैं वे कभी आपको उत्तर नहीं दे पायेंगे।
राजा एकदम घबरा गया, दरबार में कोई था भी नहीं, इसी मनोदशा में वह नीचे बैठ गया, द्वारपाल ने सिंहासन पर बैठकर राजा को दंडवत प्रणाम करने की आज्ञा दी।
सम्राट को यह शर्त अजीब लगी, राजा एकदम घबरा गया, दरबार में कोई था भी नहीं, इसी मनोदशा में वह नीचे बैठ गया, द्वारपाल ने सिंहासन पर बैठकर राजा को कहा- सिर झुकाओ, राजा ने वैसा ही किया, पहली बार राजा सिर झुका रहा था,
उसे इसमें आनंद की अनुभूति हुई, सिर अकडाये रखने में उसे बड़ी पीड़ा होती थी, पहली बार सम्राट को झुकने से आनन्द मिला।
राजा बहुत देर तक उसी स्थिति में रहा तो द्वारपाल ने कहा- राजन अब सिर ऊपर कर लीजिये और अपना सिंहासन संभालिये, राजा के नेत्र डबडबाये और जवाब दिया, द्वारपाल, मुझे अब मेरा उत्तर मिल गया, मैं अकड में था इसलिये मुझे ब्रह्म का पता नहीं मिला, अब मैंने झुकना सीख लिया तो मानो ब्रह्म को पा लिया है।
मुझे पता चला कि जिसे मैं बाहर खोजता रहा हूँ वह तो मेरे ही भीतर हैं, राजन ने द्वारपाल को अपना गुरु मान लिया, दोस्तों, शिष्य और गुरु का संबंध तो सीखने से जुड़ा है,
शिष्य का मतलब इतना ही है कि जो सीखने को तैयार है और अहंकार झुका होना चाहियें, क्योंकि जब अहंकार झुकता है तो ही ज्ञान के रास्ते खुलते हैं।
जब भी हम विनम्र होते हैं तो अपने भीतर गहरे में उतरते हैं, गहराई में ही हमें सच और अपने आप की पहचान मिलती है, इसलिये शिष्य की तरह रहों, सिखने की ललक पैदा करों, सिखने की कोई उम्र नहीं होती, जब हम अच्छे शिष्य बन जायेंगे तो गुरु को ढूंढने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी, गुरु हमारे आसपास ही हैं,
"कृष्ण वन्दे जगद्गुरुम्"
कोई गुरु नहीं मिले तो भगवान् श्री कृष्णजी को ही अपना गुरु मान लो ।
जय श्री राम🙏🙏
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