एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। सादर सास ससुर पद पूजा।।

Sooraj Krishna Shastri
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यह चित्र एक स्त्री को दर्शाता है जो अपने सास-ससुर को आदरपूर्वक प्रणाम कर रही है। यह पारंपरिक भारतीय संस्कृति में परिवार और सम्मान के महत्व को दर्शाता है।
यह चित्र एक स्त्री को दर्शाता है जो अपने सास-ससुर को आदरपूर्वक प्रणाम कर रही है। यह पारंपरिक भारतीय संस्कृति में परिवार और सम्मान के महत्व को दर्शाता है।




  आदरपूर्वक सास-ससुर के चरणों की पूजा (सेवा) करने से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। महारानी सुनयना ने अपने बेटियों के बिदाई के समय यह बात बेटियों को समझाई थी । 

  आज कल की माता कुछ ओर ही समझा कर भेज देती हैं और जो बाकी बचता है मोबाइल से प्रतिदिन सुबह शाम (दूध में नमक की तरह ) ज्ञान बाटती रहती हैं। 

   देखिए ये बात भी पूर्ण सत्य नहीं है कि सभी पुत्रवधू अपने सास ससुर के सेवा नहीं करती लेकिन यह भी सत्य है कि सभी के सेवा में आदर ,सम्मान नहीं रहता है। कुछ ये सोच कर सेवा करती हैं कि सेवा नहीं करने पर...लोग क्या कहेंगे!, आगे मेरे साथ क्या होगा!, पाप लगेगा !, और सबसे महत्वपूर्ण बात कि कहीं नाराज होकर धन संपत्ति दूसरे को न दे दें। 

  लेकिन उपरोक्त कारणों से की गई सेवा सादर सेवा, आदर ,सम्मान पूर्वक सेवा नहीं है। भोजन दीं , पानी दीं लेकिन यह कहते हुए कि आपके और पुत्र- पुत्रवधुएँ नहीं थे क्या "? आपके सेवा करने का मुझे ठेका है क्या ? मुझे और कितने दिन झेलने होंगे ? अर्थात् वाग्वाण प्रहार युक्त सेवा जिसमें आदर सम्मान नहीं है।

  और जो पुत्रवधू आदरपूर्वक सास ससुर की सेवा करती हैं उनके लिए संसार में इससे बढ़कर धर्म है और न पूजा ही...

एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। 

सादर सास ससुर पद पूजा ।।

आपके हृदय में माता सुमित्रा समान भाव होना चाहिए। 

तुम्हरेहिं भाग राम बन जाहीं।

 दूसर हेतु तात कछु नाहीं।।

   अर्थात् आप समझें कि सभी पुत्रवधू को सास ससुर के सेवा करने का अवसर नहीं मिलता, सौभाग्य प्राप्त नहीं होता । मेरा परम सौभाग्य है जो सास ससुर के सेवा करने का अवसर मिला।

मो सम आजु धन्य नहिं दूजा। 

  हर पुत्रवधू के मन में यह हार्दिक इच्छा हो कि मुझे अपने सास ससुर के आदर सहित सेवा करने का अवसर मिले और यदि अवसर न मिले तो सीता मुख से सुनिए..

सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा।

मोर मनोरथु सफल न कीन्हा।

  मुझे आपको सेवा करने का अवसर नहीं मिला अतः मैं बहुत ही अभागन हूँ..

सुनिअ माय मैं परम अभागी। 

  पुत्रवधू के मन की ऐसी भावना ईश्वर के पूजा के समान फलदाई होता है।

"पद पूजा"- पूजा में धन्यता का भाव आवश्यक है...दशरथ जी विश्वामित्र मुनि से...

चरन पखारि कीन्हि अति पूजा।

मो सम आजु धन्य नहिं दूजा।।

अगस्त मुनि श्रीराम जी से -

सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। 

आसन बर बैठारे आनी।।

पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा।

मो सम भाग्यवंत नहिं दूजा।।

  सेवा का अवसर श्राप नहीं बल्कि परम सौभाग्य है। 

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