विधना ने जो लिख दयी छठी रात्रि के अंक। राई घटे न तिल बढ़े रहो जीव निशंक।

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  ऐसी मान्यता है कि आज के ही दिन अर्थात छठी रात्रि अर्थात जन्म के छठे दिन विधाता उस बालक का भाग्य लिखते हैं ।

 परंतु इससे अलग हटकर यदि देखा जाए तो यह रात्रि उस नवजात के लिए संसार में पदार्पण करने के बाद काम, क्रोध, मद, लोभ, अहंकार एवं मोहरूपी षटबिकार से बचे रहने का संकल्प होता है , नवजात बालक जिसने अभी तक संसार नहीं देखा होता है उसके लिए विगत स्मृति बनी होती है । स्वयं वह मन ही मन इन षटबिकार से बचने का संकल्प लेकर सूतिका कक्ष से बाहर निकलता है । परंतु अपने विकास क्रम में परिवार की मोह माया में वह अपने सारे संकल्पों भूल जाता है और मोह माया में लिपटकर अज्ञानता की ओर अग्रसर हो जाता। 

  कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण जी के जन्म के छठे दिन भगवान को मारने के लिए पूतना आईं थीं ।

  पूतना नाम का अर्थ ही होता है कि " जो किसी दूसरे के पूत को ना देख सके , नाम ही था पूत - ना ।

 अंततोगत्वा भगवान कन्हैया के हाथों पूतना की मृत्यु हुई ,।

भाग्यं फ़लति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषम्”।के

भाग्य हि सर्वत्र फ़ल देता है, विद्या अथवा पौरुष नहीं। 

  महाभारत काल में पांडव महापराक्रमी एवं विद्वान है परन्तु वे सब लोग वनों में भटकते हुए जीवन गुजार रहे हैं। क्यों कि भाग्य ही सर्वत्र फल देता है। 

भाग्यहीन व्यक्ति की विद्या और उसका पुरूषार्थ निरर्थक है। दूसरा पक्ष में कुछ लोग पुरुषार्थ को ही सब कुछ मानते हैं। कर्ण कहते हैं कि

 दैवायत्तं कुले जन्म मदायत्तं तु पौरुषम्”।

मैं कहाँ जन्म हुआ, वह दैव का विधान था। परन्तु पुरुषार्थ मेरे अधीन है। मैं अपने पुरुषार्थ से अपना भाग्य वदल दुँगा। 

कोई भी व्यक्ति भाग्यवाद का त्याग कर केवल पुरुषार्थी नहीं बन सकता।

मेरा मानना है कि भाग्य और परुषार्थ दोनों का अपना अपना महत्व है।

नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्प कोटि शतैरपि।

बबाअवश्यमनुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्॥

  मनुष्य को अपना कर्म का फल अवश्य ही भोगना पडता है। विना भोग किये कोटि कोटि कल्प के पश्चात् भी अवश्यंभावी फल का क्षय नहीं होता। यही पुनर्जन्म का कारण है।

कहा गया है कि –

येन येन शरीरेण यद्यत् कर्म करोति यः।

तेन तेन शरीरेण तत्तत फलम् उपाश्नुते॥

यस्यां यस्यामवस्थायां यत् करोति शुभाशुभम्।

तस्यां तस्यामवस्थायां भुङ्क्ते जन्मनि जन्मनि॥

न नश्यति कृतं कर्म सदा पञ्चेन्द्रियैरिह।

ते ह्यस्य साक्षिणो नित्यं षष्ठ आत्मा तथैव च॥

यथा धेनुसहस्रेषु वत्सॊ विन्दति मातरम्।

एवं पूर्वंकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति॥

  मनुष्य स्थूल अथवा सूक्ष्म जिस-जिस शरीरसे जो-जो शुभ-अशुभ कर्म करता है, उसी It's से उसी-उसी शरीर से उस-उस कर्मका फल भोगता है। जिस-जिस अवस्था में वह जो-जो शुभ-अशुभ कर्म करता है, प्रत्येक जन्मकी उसी-उसी अवस्था में वह उसका फल भोगता है। पाञ्चों इन्द्रियों द्वारा किया हुआ कर्म कभी नष्ट नहीं होता है। वे पाञ्चों इन्द्रियाँ और छठा मन उस कर्मके साक्षी होते हैं। जैसे बछडा हजारों गौओं के मध्य से अपनी माता को जान लेता है, उसी प्रकार पूर्वका किया हुआ कर्म भी अपना कर्ता को जानकर उसका अनुसरण करता है।

   परन्तु मनुष्य को सब कर्म का फल सद्य प्राप्त नहीं होता। भुख लगी है। खाना खाया। सद्य फल प्राप्त हुआ। क्षुधा शान्त हो गयी। परन्तु एक बीज वोया। कालान्तर में उसका फल मिलेगा। जीवन के अन्तमें जो कर्मका फल शेष रह जाता है, उसे सञ्चित कर्म कहते हैं। अन्तके समय जो भाव मनमें सर्वोपरि होता है, उसीको चरितार्थ करने के लिये सञ्चित कर्मके आधार पर जीवात्मा एक उपयुक्त शरीरका अन्वेषण करता है। जैसे रास्ते में भुख लगने पर अपने आर्थिक स्थिति के अनुसार कोई पञ्चतारा का होटेल में जाता है तो कोइ पथप्रान्त से खाना खा लेता है। उसी प्रकार अपने पूर्व कर्म के अनुसार जीवात्मा जिस शरीर में जाता है, उस शरीर के विशेषताओं से युक्त हो जाता है।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।।

कर्मण्ये वाधिका रस्ते मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्म फल हेतुर्भूः, मा ते सड्गोऽत्स्वकर्मणि।।

  प्रारब्ध' का अर्थ ही है कि पूर्व जन्म अथवा पूर्वकाल में किए हुए अच्छे और बुरे कर्म जिसका वर्तमान में फल भोगा जा रहा हो। विशेषतया इसके दो मुख्य भेद हैं कि संचित प्रारब्ध, जो पूर्व जन्मों के कर्मों के फलस्वरूप होता है और क्रियमान प्रारब्ध, जो इस जन्म में किए हुए कर्मों के फलस्वरूप होता है।

संचित कर्म

   संचित का अर्थ है – संपूर्ण, कुलयोग अर्थात, मात्र इस जीवन के ही नहीं अपितु पूर्वजन्मों के सभी कर्म जो आपने उन जन्मों में किये हैं । आपने इन कर्मों को एकत्र करके अपने खाते में डाल लिया है ।

   उदाहरण के रूप में कोई आप का अपमान करे और आप क्रोधित हो जाएँ तो आपके संचित कर्म बढ़ जाते हैं| परन्तु,यदि कोई अपमान करे और आप क्रोध ना करें तो आप के संचित कर्म कम होते हैं ।

  इस तरह संचित कर्म का सम्बन्ध मानसिक कर्म से भी होता है जैसे ईर्ष्या,क्रोध,बदला लेने की भावना अथवा क्षमा,दया इत्यादि की भावना मनुष्य में संचित कर्मों के आधार पर ही पायी जती है अशुभ चिंतन में अशुभ संचित कर्म व शुभ चिन्तन में शुभ संचित कर्म बनते हैं। जीवन में तीन चीजों का संयोग होता है -आत्मा,मन,और शरीर। 

प्रारब्ध -

‘संचित’ का एक भाग, इस जीवन के कर्म हैं। आप सभी संचित कर्म इस जन्म में नहीं भोग सकते क्यूंकि यह बहुत से पूर्वजन्मों का बहुत बड़ा संग्रह है। इसलिए इस जीवन में आप जो कर्म करते हैं, प्रारब्ध, वो आप के संचित कर्म में से घटा दिया जायेगा। इस प्रकार इस जीवन में आप केवल प्रारब्ध भोगेंगे,जो आप के कुल कर्मों का एक भाग है।वे मानसिक कर्म होते हैं, जो स्वेच्छापूर्वक जानबूझकर, तीव्र भावनाओं से प्रेरित होकर किए जाते हैं।

इसका भोग तीन प्रकार से होता है –

अनिच्छा से - वे बातें जिन पर मनुष्य का वश नहीं और न ही विचार किया हो जैसे भूकंप आदि। 

परेच्छा से - दूसरों के द्वारा दिया गया सुख दुःख  । 

स्वेच्छा से - इस समय मनुष्य की बुद्धि ही वैसी हो जाया करती है, जिससे वह प्रारब्ध के वशीभूत अपने भोग के लिये स्वयं कारक बन जाता है 

   किसी विशेष समय में विशेष प्रकार की बुद्धि हो जाया करती है तथा उसके अनुसार निर्णय लेना प्रारब्ध है। प्रारब्ध में न हो तो मुँह तक पहुंचकर भी निवाला छीन जाता है।

क्रियमाण 

  तीसरा कर्म क्रियमाण है,कर्म शारीरिक हैं, जिनका फल प्रायः साथ के साथ ही मिलता रहता है। नशा पिया कि उन्माद आया।विष खाया कि मृत्यु हुई। शरीर जड़ तत्त्वों का बना हुआ है। भौतिक तत्त्व स्थूलता प्रधान होते हैं। उसमें तुरंत ही बदला मिलता है। अग्नि के छूते ही हाथ जल जाता है। नियम के विरुद्ध आहार–विहार करने पर रोगों की पीड़ा का, निर्बलता का अविलम्ब आक्रमण हो जाता है और उसकी शुद्धि भी शीघ्र हो जाती है।

  एक योगी के उदाहरण से रूप में समझते हैं । योगी एक वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न थे कि तभी एक व्यक्ति वह आया और उनका बहुत अपमान किया । वो शांत रहे । कोई प्रतिक्रिया नहीं हुयी (ना ब्राह्य रूप से ना आंतरिक रूप से) उन्हें क्रोध भी नहीं आया। बाद में उनके शिष्यों ने,जो सब कुछ देख सुन रहे थे,पूछा कि आप को क्रोध नहीं आया? तो उन्होंने उत्तर दिया कि संभवतः पूर्वजन्म में मैंने उसका अपमान किया था, वास्तव में मैं प्रतीक्षा में था कि वो आकर मेरा अपमान करे । अब मेरा हिसाब बराबर हो गया । अगर मैं क्रोध करता तो फिर कर्म संचित हो जाते ।

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।

भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।।

  कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों को कर्मों का इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित -- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के बाद भी होता है; परन्तु कर्म फल का त्याग करने वालों को कहीं भी नहीं होता।

  विधाता ने जिसकी मृत्यु एवं भाग्य जिस प्रकार और जिसके हाथों लिखी है; वह होकर रहती है; चाहे मनुष्य लाख प्रयास कर ले । 

यह तन धन कछु काम न आई। 

ताते नाम जपो लौ लाई ।। 

कहइ कबीर सुनो मोरे मुनियाँ। 

आप मुये पिछे डूब गयी दुनियां ।। 

  मृत्यु एक अपरिहार्य सत्य है, फिर भी मनुष्य उससे मुंह छिपाने की कोशिश करता है । सब कुछ प्राप्त कर लेने के बाद भी मृत्यु के बाद मनुष्य के साथ केवल सूखी लकड़ी ही साथ चलती है । 

रामाकार भए तिन्ह के मन।

मुक्त भए छूट भव बंधन॥

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