एक बार पूज्य गुरुदेव श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य भगवान की सेवा करते हुए एक महानुभाव (संत जी) ने पूछा -
' गुरुदेव! आप कहते हैं कि मैं शासनतंत्र को रसातल में पहुंचा दूंगा। लेकिन अपने पास सेना नहीं दिखती है।
राजनीतिक दलों के पास संख्या बहुत है । अपने पास तो गिनती के आदमी दिखते हैं और न ही अपने पास संसाधन है। यह सब होगा कैसे?
गुरुदेव ने कहा -
जब रामचंद्र वन को चले तो कितनी सेना उनके पास थी! केवल दो जन। रास्ते में जिस जिस की आवश्यकता थी, वह मिलते गए और अपनी भूमिका प्रस्तुत करते गए । उसी तरह भगवान कृष्ण के पास भी उनके हथियार जब आवश्यकता पड़ी तब आ गए। उसी तरह से यह एक युद्ध है। जब जिसकी आवश्यकता पड़ेगी वह अपने समय के अनुसार जुड़ता जायेगा। और जिस व्यक्ति का जन्म क्रान्ति के लिए ही हुआ है, वह अपनी भूमिका अवश्य निभाएगा। प्रारम्भ में जब हम इस मठ में आए तो केवल दो ही व्यक्ति थे, हम और स्वामीजी ( सचिव: स्वामी निर्विकल्पानंद सरस्वती जी) । मैंने उन्हें स्वत: नहीं बुलाया , वो खुद ही अपनी पढ़ाई छोड़कर चले आए । मठ पर उपद्रवियों से घिरा हुआ था, चारों तरफ से बंदूकें घिरी हुई थी उस दौरान यह स्वामी जी अकेले रहे । जब समय समय पर आयोजन इत्यादि होता था अकेले ही सारे मठ की सफाई इत्यादि करते जिससे अतिथियों को समस्या न हो।
एक प्रसंग सुनते हुए गुरुदेव बताने लगे कि एक बार एक व्यक्ति मठ के द्वार पर आया और मैं उस समय द्वार पर ही था और कहने लगा कि मुझे शंकराचार्य जी से मिलना है। मैं धूल - धूसरित अवस्था में था ( मठ के कार्यों में संलग्न होने के कारण)। सो मैंने संकोचवश यह हाथ से संकेत किया कि अंदर पता कर लें। जब वह अंदर गए तो अंदर वाले ने कहा कि जो गेट पर खड़े हैं, वही शंकराचार्य जी हैं। वह गुस्से से बड़बड़ाता हुआ बाहर निकल गया कि यहां के लोग आचार्य का पता भी नहीं देते।
उस अवस्था से आज तक यह जो स्थिति है और सैकड़ों व्यक्ति समर्पित भाव से तैयार हुए हैं , यह सब अपनी भूमिका के अनुसार मिलते गए हैं । आगे भी व्यक्ति अपनी भूमिका के अनुसार मिलते जायेंगे। और यह सब होगा कैसे? इसके लिए ही तो हम लोग धरती पर आते हैं, विश्वस्त रहो, हम जो कुछ कह रहे हैं, वह सब कुछ होगा और हम सब करके ही इस धरा से जायेंगे।
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