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महाभारत में एक प्रसंग आता है जब धर्मराज युधिष्ठिर ने विराट के दरबार में पहुँचकर कहा,
“हे राजन! मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम 'कंक' है। मैं द्यूत विद्या में निपुण हूँ। आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ।”
द्यूत... जुआ... यानि वह खेल जिसमें धर्मराज अपना सर्वस्व हार बैठे थे। कंक बन कर वही खेल वह राजा विराट को सिखाने लगे।
जिस बाहुबली के लिये रसोइये दिन रात भोजन परोसते रहते थे वह भीम बल्लभ का भेष धारण कर स्वयं रसोइया बन गया।
नकुल और सहदेव पशुओं की देखरेख करने लगे।
दासियों सी घिरी रहने वाली महारानी द्रौपदी... स्वयं एक दासी सैरंध्री बन गयी।
और वह धनुर्धर... उस युग का सबसे आकर्षक युवक, वह महाबली योद्धा, वह द्रोण का सबसे प्रिय शिष्य, वह पुरुष जिसके धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ते ही युद्ध का निर्णय हो जाता था, वह अर्जुन पौरुष का प्रतीक अर्जुन, नायकों का महानायक अर्जुन... एक नपुंसक बन गया।
एक नपुंसक?
उस युग में पौरुष को परिभाषित करने वाला अपना पौरुष त्याग कर होठों पर लाली लगा कर, आंखों में काजल लगा कर एक नपुंसक "बृह्नला" बन गया।
युधिष्ठिर राजा विराट का अपमान सहते रहे।
पौरुष के प्रतीक अर्जुन एक नपुंसक सा व्यवहार करते रहे।
नकुल और सहदेव पशुओं की देख रेख करते रहे... ।
भीम रसोई में पकवान पकाते रहे ....
और द्रौपदी.. एक दासी की तरह महारानी की सेवा करती रही।
परिवार पर एक विपदा आयी तो धर्मराज अपने परिवार को बचाने हेतु कंक बन गया। पौरुष का प्रतीक एक नपुंसक बन गया। एक महाबली साधारण रसोइया बन गया।
पांडवों के लिये वह सिर्फ अज्ञातवास ही नहीं था, बल्कि
अज्ञातवास का वह काल उनके लिये अपने परिवार के प्रति अपने समर्पण की पराकाष्ठा थी।
वह जिस रूप में रहे, जो अपमान सहते रहे... जिस कठिन दौर से गुज़रे... उसके पीछे उनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था। अज्ञातवास का वह काल परिस्थितियों को देखते हुये परिस्थितियों के अनुरूप ढल जाने का काल था!!
आज भी इस धरती में अज्ञातवास में जी रहे ना जाने कितने महायोद्धा दिखाई देते हैं। कोई धन्नासेठ की नौकरी करते हुये उससे बेवजह गाली खा रहा है क्योंकि उसे अपनी बिटिया की स्कूल की फीस भरनी है। बेटी के ब्याह के लिये पैसे इकट्ठे करता बाप एक सेल्समैन बन कर दर दर धक्के खाकर सामान बेचता दिखाई देता है। ऐसे असँख्य पुरुष निरंतर संघर्ष से हर दिन अपना सुख दुःख छोड़कर अपने परिवार के अस्तिव की लड़ाई लड़ रहे हैं।
रोज़मर्रा के जीवन में किसी संघर्षशील व्यक्ति से रूबरू हों तो उसका आदर कीजिये, उसका सम्मान कीजिये। फैक्ट्री के बाहर खड़ा गार्ड... होटल में रोटी परोसता वेटर... सेठ की गालियां खाता मुनीम... वास्तव में कंक... बल्लभ और बृह्नला के ही छोटे रूप हैं।
क्योंकि कोई भी अपनी मर्ज़ी से संघर्ष या पीड़ा नहीं चुनता है।
वे सब यहाँ कर्म करते हैं। वे अज्ञातवास जी रहे हैं...!
परंतु वह अपमान के भागी नहीं हैं, वह प्रशंसा के पात्र हैं।
यह उनकी हिम्मत है... उनकी ताकत है... उनका समर्पण है कि विपरीत परिस्थितियों में भी वह डटे हुये हैं।
वह कमजोर नहीं हैं... उनके हालात कमज़ोर हैं... ।
उनका वक्त कमज़ोर है।
याद रहे...
अज्ञातवास के बाद बृह्नला जब पुनः अर्जुन के रूप में आये तो कौरवों का नाश कर दिया। पुनः अपना यश, अपनी कीर्ति सारे विश्व में फैला दी।
वक्त बदलते वक्त नहीं लगता है, इसलिये जिसका वक्त खराब चल रहा हो, उसका उपहास और अनादर ना करें।
उसका सम्मान करें, उसका साथ दें।
क्योंकि एक दिन संघर्षशील, कर्मठ, ईमानदारी से प्रयास करने वालों का अज्ञातवास अवश्य समाप्त होगा। समय का चक्र घूमेगा और बृह्नला का छद्म रूप त्याग कर धनुर्धर अर्जुन इतिहास में ऐसे अमर हो जायेंगे... कि पीढ़ियों तक बच्चों के नाम उनके नाम पर रखे जायेंगे। इतिहास बृह्नला को भूल जायेगा। इतिहास अर्जुन को याद रखेगा।
हर संघर्षशील, लगनशील कर्मठ व्यक्ति में बृह्नला को मत देखिये, कंक को मत देखिये, बल्लभ को मत देखिये। हर संघर्षशील व्यक्ति में धनुर्धर अर्जुन को देखिये। धर्मराज युधिष्ठिर और महाबली भीम को देखिये। उसका भरपूर सहयोग करिए।
उसके ईमानदार प्रयासों को सराहें! क्योंकि याद रखना एक दिन हर संघर्षशील व्यक्ति का अज्ञातवास खत्म होगा।
यही नियति है। यही समय का चक्र है।
यही महाभारत की भी सीख है।
thanks for a lovly feedback