एक वृद्ध सन्यासी

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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sahdu
sadhu shankar

 एक वृद्ध सन्यासी ओंकारेश्वर क्षेत्र में एक गुफा के भीतर तपस्यारत था। शरीर की अवस्था अब ऐसी न थी कि वह यात्राएं कर सकें। सन्यासी का प्रभाव ऐसा था कि जो जंगली पशु सदा हिंसक रहते, वे गुफा के समीप आते ही शांत हो जाते।

सन्यासी का सारा समय ध्यान में गुजरता, उसे प्रतीक्षा थी किसी के आगमन की। उसे परंपरा से प्राप्त ज्ञान किसी को सौंप कर ही इस संसार से विदा लेनी थी। प्रतीक्षा लंबी होती जा रही थी, लेकिन विश्वास दृढ़ था। 

एक दिन वहां से बहती नर्मदा नदी में बाढ़ आ गई। नर्मदा का उफान देखकर किसी की हिम्मत नही थी कि कोई उसके समीप भी जा सके। पशु पक्षियों में भगदड़ मच गई, शोर मचाती नर्मदा हर तट, बांध को तोड़ती जा रही थी।

एक बालक जिसने भगवा रंग के वस्त्र पहने थे, माथे पर त्रिपुंड, शरीर पर यज्ञोपवीत, सर पर गोखुरी शिखा, गले मे रुद्राक्ष और चेहरे पर सूर्य सा तेज औऱ हाथ म् कमंडल पकड़ा हुआ था, नर्मदा के समीप आकर खड़ा हो गया। वह रुक नही सकता था, उसने शांत चित्त से नर्मदा को देखा, उफान देखकर अंदाजा हो गया कि अभी नदी को पार नही किया जा सकता। उस बाल ब्रह्मचारी ने माँ नर्मदा को प्रणाम किया औऱ नर्मदा की स्तुति करते हुए कहा,

"सबिन्दु सिन्धु सुस्खलत्तरङ्गभङ्गरंजितं

द्विषत्सु पाप जात जात कारि वारि संयुतम्।

कृतान्त दूत काल भुत भीति हारि वर्मदे

त्वदीय पाद पंकजं नमामि देवी नर्मदे ॥"

  इस नर्मदाष्टकम् को सुनकर देखते ही देखते नर्मदा उसके कमंडल में आकर समा गई।

  नदी के दूसरे छोर पर जंगल में स्थित गुफा में समाधिरत सन्यासी की आंखे खुल गई, वह जान गया कि प्रतीक्षा समाप्त हुई। तभी बाल ब्रह्चारी उसके सामने आकर खड़ा हो गया। दोनों ने एक दूसरे को देखा, ब्रह्मचारी ने सन्यासी को प्रणाम किया तो सन्यासी ने परम्परा के निर्वाहन हेतु उसे बाहर से आशीर्वाद दिया, किन्तु मन ही मन प्रणाम किया।

  सब कुछ जानते हुए भी लोकाचार की मर्यादा रखते हुए सन्यासी ने पूछा,"कौन हो तुम? अपना परिचय दो।" बाल ब्रह्चारी जो मात्र आठ वर्ष का था, उसने कहा -

"मनो बुद्धय अहंकार चित्तानि नाहं

न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे

न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥

 मैं न तो मन हूं‚ न बुद्धि‚ न अहांकार‚ न ही चित्त हूं

मैं न तो कान हूं‚ न जीभ‚ न नासिका‚ न ही नेत्र हूं

 मैं न तो आकाश हूं‚ न धरती‚ न अग्नि‚ न ही वायु हूं

       मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं॥"

  निर्वाण षट्कम् के रूप में ब्रह्चारी ने जो परिचय दिया वह सुनकर सन्यासी की आँखों से आंसू निकल आये औऱ उसने प्रेम से उस बालक को गले लगा लिया।

  सन्यासी की प्रतीक्षा औऱ ब्रह्चारी की खोज समाप्त हुई। सन्यासी गोविंद भगवत्पाद ने ब्रह्चारी शंकर को विधिवत सन्यास की दीक्षा दी औऱ परंपरागत ज्ञान को शंकर को सौंप दिया।

यही बालब्रह्मचारी शंकर, आदि गुरु शंकराचार्य बने जो स्वयं शिवावतार थे।

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