इन्द्र, मरुद्गण और अगस्त्य की कथा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
0

  इन्द्र ने मरुतो को सबोधित किया, मरुद्गण किस सौभाग्य के कारण आप सम वयस्क हैं, समस्थानी हैं, समशोभायुक्त हैं? आप किस देश से आये है ? आपका मंतव्य क्या है? वृष्टिकारक आप क्या धन की कामना से शक्ति की पूजा करते हैं?"

"ऐश्वर्यशालिन । मरुतो ने कहा, "आपने बहुत कर्म किये हैं। परन्तु वह सब हमारी सयुक्त शक्ति के कारण सपादित हुए हैं। महाबलिन् । हम लोगो ने भी बहुत कर्म किये हैं और अपने कर्म द्वारा अपनी इच्छानुसार हम मरुत् हैं।" 1

"मरुद्गण!" इन्द्र ने मरूतों की गर्वोक्ति का उत्तर दिया, " मैने अपने पराक्रम से, अपने उग्र क्रोध से वृत्र का वध किया है। मै वज धर हूँ । मैने प्राणियों के निमित्त निर्मल, मृदु गतिशील सलिल का सृजन किया हैं।"

 अगस्त्य ऋषि तप कर रहे थे। अपने तप द्वारा इन्द्र तथा मरूतों के संवाद को जान लिया।

 तिरोभाव अगस्त्य ने दोनों की मैत्री की कामना करते हुए कहा, " मरुद्गण आपकी मनुष्य स्तुति करते हैं। अपने मित्रों के समीप शीघ्रता पूर्वक गमनशील होइये । उत्तम धनों की प्राप्ति के साधन होते हुए लोगों में कर्म की प्रेरणा कीजिए।"

 अगस्त्य ने इन्द्र निमित्त एक हविष्य का निर्माण किया। तत्पश्चात् वेगपूर्वक इन्द्र के समीप गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मरूतों तथा इन्द्र की स्तुति की। उन्होंने इन्द्र तथा मरुतों के मध्य सन्धि स्थापित करने के विचार से मरूतों को वह हवि देने का निर्णय किया जिसे वे इन्द्र को देना चाहते थे।

 अगस्त्य की दाहक भावना इन्द्र समझ गये। इन्द्र ने अगस्त्य को संबोधित किया।

"अगस्त्य आज तथा कल कुछ नही है, जिसका कभी अस्तित्व ही नही रहा उसको कौन जानता है? जिनका मन चंचल है वे चिन्तन किये हुए विषय को भी भूल जाते हैं।"

"इन्द्रा अगस्त्य ने कहा, " मरूतों के साथ अच्छी तरह आप यज्ञ का भाग स्वीकार कीजिए। मरुद्गण आपके भ्राता हैं।"

"आप मित्रों के आश्रय हैं। आप मरुतों के समान हैं। हमारी हवि स्वीकार कीजिए।"

अगस्त्य की बातों से इन्द्र प्रसन्न हुए । अगस्त्य ने मरुतों को हवि समर्पित की । सोम बनाया गया। इन्द्र ने मरुतों के साथ सोमपान किया। अगस्त्य ने मरुतों की स्तुति की। इन्द्र की स्तुति की। जहाँ-जहाँ इन्द्र मरुतों के साथ गये वहाँ वे मरुत्वत् हुए।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

thanks for a lovly feedback

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top