इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है (इस जगत् के भोगों की तो बात ही क्या) स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुःख देने वाला है। अतः जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं॥
जो स्वर्गलोक प्राप्त करता है उसे दीर्घजीवन तथा विषयसुख की श्रेष्ठ सुविधाएँ प्राप्त होती हैं, तो भी उसे वहाँ सदा नहीं रहने दिया जाता | पुण्यकर्मों के फलों के क्षीण होने पर उसे पुनः इस पृथ्वी पर भेज दिया जाता है ।
"जन्माद्यस्य यतः"
जिसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं किया या जो समस्त कारणों के कारण कृष्ण को नहीं समझता, वह जीवन के चरमलक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता । वह बारम्बार स्वर्ग को तथा फिर पृथ्वीलोक को जाता-आता रहता है, मानो वह किसी चक्र पर स्थित हो, जो कभी ऊपर जाता है और कभी नीचे आता है , सारांश यह है कि वह वैकुण्ठलोक न जाकर स्वर्ग तथा मृत्युलोक के बीच जन्म-मृत्यु चक्र में घूमता रहता है , अच्छा तो यह होगा कि सच्चिदानन्दमय जीवन भोगने के लिए वैकुण्ठलोक की प्राप्ति की जाये, क्योंकि वहाँ से इस दुखमय संसार में लौटना नहीं होता ।
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥
स्वर्ग लोक के दैवीय सुख अस्थायी हैं। जिन लोगों को उन्नत करके स्वर्ग भेजा जाता है जहाँ वे स्वर्ग के सुखों और ऐश्वर्य का भरपूर भोग करते हैं। बाद में जब उनके पुण्य कर्म समाप्त हो जाते हैं तब उन्हें पृथ्वी लोक पर वापस भेज दिया जाता है। स्वर्गलोक को प्राप्त करने से आत्मा की चिरकालिक खोज पूरी नहीं होती। हम भी अपने अनन्त पूर्व जन्मों में वहाँ पर कई बार जा चुके हैं तथापि आत्मा की अनन्त सुख पाने की भूख अभी तक शांत नहीं हुई है। सभी वैदिक ग्रंथों में इसका समर्थन किया गया है।
तावत् प्रमोदते स्वर्गे यावत् पुण्यं समाप्यते।
क्षीणपुण्यः पतत्यगिनिच्छन् कालचालितः।।
स्वर्ग के निवासी तब तक स्वर्ग के सुखों का भोग करते हैं जब तक उनके पुण्य कर्म समाप्त नहीं हो जाते। कुछ अंतराल के बाद उन्हें अनिच्छा से बलपूर्वक निम्न लोकों में भेज दिया जाता है।
जैसे आपके बैंक अकाउंट में जमा किया गया पैसा आप तब तक निकाल सकते हो, जब तक पैसा आपके खाते में जमा है,जिस दिन पैसा खत्म उसी दिन से बैंक वाले आपको पैसा देना बंद कर देंगे।
चिंतामणिर्लोकसुखं सुरद्रुह: स्वर्गसम्पदम्।
प्रयच्छति गुरु: प्रीतो वैकुण्ठं योगिदुर्लभम्।।
यदि चिंतामणि मिल जाये तो व्यक्ति को इह लोक की सर्व सम्पदा मिल जायेगी पर जितना वह सुख नही देगी उससे सौगुना ज्यादा दुख देगी क्योकि वह नश्वर भोग ही दे पायेगी। यदि व्यक्ति को कोई कल्पवृक्ष दे दे तो भी क्या, यह कल्पवृक्ष भी अधिक से अधिक स्वर्ग सुख दे सकता है जो अन्त में कष्टकारी ही है क्योकि स्वर्ग सुख भी एक दिन छिन जाता है।
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोके विशन्ति।
स्वर्गहु स्वल्प अंत दुखदाई
यत् भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति।
अर्थात नश्वर वस्तु शास्वत सुख नही दे सकती। कोई शास्वत वस्तु ही शाश्वत सुख दे सकती है। तो शाश्वत सुख क्या है और इसे कौन दे सकता है? तो शाश्वत है अपना ही चेतन, अमल, सहज सुख राशि अमृत स्वरूप आत्मा।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।
देहधारी जीवात्माएँ 'संसार' में डूबी रहती हैं अर्थात निरंतर जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमती रहती हैं और इस अश्वत्थ वृक्ष की प्रकृति को समझने में असमर्थ रहती हैं। वे इस वृक्ष की कोंपलों को अति आकर्षक समझती हैं अर्थात वे इन्द्रिय विषयों का भोग करने के लिए लालायित रहती हैं और इनके भोग की कामना को विकसित करती हैं। इन कामनाओं की पूर्ति के लिए वे यह जाने बिना कठोर परिश्रम करती हैं कि उनके प्रयास केवल इस वृक्ष को पुनः और अधिक विकसित करते हैं। जब कामनाओं की तृप्ति की जाती है तब वे लोभ के रूप में दोगुनी गति से पुनः उदय होती हैं। जब इनकी पूर्ति में बाधा आती है तब वे क्रोध का कारण बनती हैं जिससे बुद्धि भ्रमित हो जाती है तथा अज्ञानता गहन हो जाती है।
सो परत्र दुःख पावइ , सिर धुनि धुनि पछताय ।
कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं ,मिथ्या दोष लगाय ॥
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