गुप्त वंश के पतन के बाद नये राजवंशों के उद्भव का इतिहास

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 गुप्त वंश के पतन के बाद जीन नये राजवंशों का उद्भव हुआ, उनमें मैत्रक, मौखरी, पुष्यभूति, परवर्ती गुप और गौड़ प्रमुख है। इन राजवंशों में पुष्यभूति वंश के शासकों ने सबसे विशाल साम्राज्य स्थापित किया।

पुष्यभूति वंश का संस्थापक पुष्यभूति था।। इनकी राजधानी थानेश्वर (हरियाणा प्रांत के कुरुक्षेत्र जिले में स्थित वर्तमान थानेसर नामक स्थान) थी।

प्रभाकरवर्ध्दन इस वंश की स्वतंत्रता का जन्मदाता था तथा प्रथम प्रभावशाली शासक था जिसने परमभटटारक और महाराजधिराज जैसी सम्मानजनक उपाधियाँ धारण की।

प्रभाकरवर्ध्दन की पत्नी य्शूमती से दो पुत्र राज्यवर्ध्दन और हर्षवर्ध्दन तथा एक कन्या राज्यश्री उत्पन्न हुई। राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरि राजा ग्रहवर्मा के साथ हुआ।

मालवा के शासक देवगुप्त ने ग्रहवर्मा की हत्या कर दी और राज्यश्री को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया।

राज्यवर्ध्दन ने देवगुप्त को मार डाला , परन्तु देवगुप्त के मित्र गौड़ नरेश शशांक ने धोखा देकर राज्यवर्ध्दन की हत्या कर दी।

नोट: शशांक शैव धर्म का अनुयायी था। इसने बोधिवृक्ष (बोधगया) को कटवा दिया।

राज्यवर्ध्दन की मृत्यु के बाद 606 ई. में 16 वर्ष की अवस्था में हर्षवर्ध्दन थानेश्वर की गद्दी पर बैठा। हर्ष को शिलादित्य के नाम से भी जाना जाता था। इसने परमभट्टारक नरेश की उपाधि धारण की थी।

हर्ष ने शशांक को पराजित करके कन्नौज पर अधिकार कर लिया तथा उसे अपनी राजधानी बनाया।

हर्ष और पुलकेशिन -ll के बीच नर्मदा नदी के तट पर युद्ध हुआ जिसमें हर्ष की पराजय हुई।

चीनी यात्री ह्वेनसांग हर्षवर्ध्दन के शासनकाल में भारत आया।

नोट: ह्वेनसांग को यात्रियों में राजकुमार,नीति का पंडित एवं वर्तमान शाक्यमुनि कहा जाता है। वह नालंदा विश्वविद्यालय में पढ़ने एवं बौद्ध ग्रन्थ संग्रह करने के उद्देश्य से भारत आया था।

हर्ष 641 ई.में अपने दूत चीन भेजे तथा 643 ई. एवं 645 ई. में दो चीनी दूत उसके दरबार में आये।

हर्ष ने कश्मीर के शासक से बुद्ध के दंत अवशेष बलपूर्वक प्राप्त किये।

हर्ष के पूर्वज भगवान शिव और सूर्य के अनन्य उपासक थे। प्रारम्भ में हर्ष भी अपने कुलदेवता हर्ष के पूर्वज भगवान शिव और सूर्य के अनन्य उपासक थे। प्रारंभ में हर्ष अपने कुल देवता शिव का परम भक्त था। चीनी यात्री ह्येंसाग से मिलने के बाद उसने बौध्द र्म की महायान शाखा को राज्याश्रय प्रदान किया और वह पूरण बौद्ध बन गाया।

हर्ष के समय में नालंदा महाविहार महायान बौध्द धर्म की शिक्षा का प्रधान केंद्र था।

हर्ष के समय में प्रयाग में प्रति पांचवे वर्ष एक समारोह आयोजित किया जाता था जिसे महामोक्षपरषिद कहा जाता था। ह्येंस्वांग स्वयं छठे समारोह में सम्मिलित हुआ था।

बाणभट्ट हर्ष के दरबारी कवि थे। उन्होंने हर्षचरित एवं कादम्बरी की रचना की।

प्रियदर्शिका , रत्नावली तथा नागानंद नामक तीन संस्कृत नाटक ग्रंथो की रचना हर्ष ने की थी। कहा जाता है कि धावक नामक कवि ने हर्ष से पुरस्कार लेकर उसके नाम से ये तीनों नाटक लिख दिए।

हर्ष को भारत का अंतिम हिन्दू सम्राट कहा गया है लेकिन वह न तो कट्टर हिन्दू था और न ही सारे देश का शासक ही।

हर्ष के अधीनस्थ शासक महाराज अथवा महासामन्त कहे जाते थे।

हर्ष के मंत्रीपरिषद के मंत्री को सचिव या आमात्य कहा जाता था।

प्रशासन की सुविधा के लिए हर्ष का साम्राज्य कई प्रान्तों में विभाजित था। प्रांत को भुक्ति कहा जाता था। प्रत्येक भुक्ति का शासक राजस्थानीय उपरिक अथवा राष्ट्रीय कहलाता था।

नोट: हर्षचरित में प्रांतीय शासक के लिए लोकपाल शव्द आया है।

भुक्ति का विभाजन जिलों में हुआ था। जिले की संज्ञा थी विषय जिसका प्रधान विषयपति होता था। विषय के अंतर्गत कई पाठक (आधुनिक तहसील) होते थे।

ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी। ग्राम शासन का प्रधान ग्रामाक्षपटलिक कहा जाता था।

पुलिस कर्मियों को चाट या भाट कहा गया है। दण्डपाशिक तथा दाण्डिक पुलिस विभाग के अधिकारी होते थे।

अश्व सेना के अधिकारियों को बलाधिकृत या महाबलिकृत कहा जाता था।

हर्षचरित में सिंचाई के साधन के रूप में तुलायंत्र (जलपंप) का उल्लेख मिलता है।

हर्ष के समय मथुरा सूती वस्त्रों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध था।"

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