जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।

Sooraj Krishna Shastri
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जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।  तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। श्लोक का अर्थ और उसका विश्लेषण


"जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।"

यहाँ पर जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।  तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। का अर्थ और विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। 

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।  तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। श्लोक का अर्थ

   जिसने जन्म लिया है उसका मरण ध्रुव निश्चित है और जो मर गया है उसका जन्म ध्रुव निश्चित है इसलिये यह जन्ममरणरूप भाव अपरिहार्य है अर्थात् किसी प्रकार भी इसका प्रतिकार नहीं किया जा सकता इस अपरिहार्य विषयके निमित्त तुझे शोक करना उचित नहीं।

  क्योंकि पैदा हुए की जरूर मृत्यु होगी और मरे हुएका जरूर जन्म होगा। इस (जन्म-मरण-रूप परिवर्तन के प्रवाह) का परिहार अर्थात् निवारण नहीं हो सकता।

  अतः इस विषयमें तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। जन्मने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है; इसलिए जो अटल है अपरिहार्य - है उसके विषय में तुमको शोक नहीं करना चाहिये।।

  जो प्राणी जन्म ग्रहण करता है,उसे समय आने पर मरना भी पड़ता है और जो मरता है उसे जन्म लेना पड़ता है ,पुर्नजन्म का यह सिद्धांत सनातन धर्म की अपनी विशेषता है ।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। श्लोक का विश्लेषण

  जीवन की परिसमाप्ति मृत्यु से होती है ।इस ध्रुव सत्य को सभी ने स्वीकार किया है और यह प्रत्यक्ष भी दिखाई पड़ता है ,इसीलिए कालमृत्यु से आक्रान्त मनुष्य की रक्षा करने मे औषधि, तपश्चर्या ,दान और माता-पिता एवं बन्धु-बान्धव कोई भी समर्थ नहीं है —

"नौषधं न तपो दानं न माता न च बान्धवाः । 

शक्नुवन्ति परित्रातुं नरं कालेन पीड़ितम् ।।"

 (पद्म पुराण २/६६/१२७)


जीवात्मा और उसका कर्म

  जीवात्मा इतना सूक्ष्म होता है कि जब शरीर से निकलता है ,उस समय कोई भी मनुष्य उसे अपनी चर्मचक्षुओं से देख नहीं सकता और यही जीवात्मा अपने कर्मो के भोगो को भोगने के लिए एक अंगुष्ठ पर्व परिमित अतिवाहिक सूक्ष्म(अतीन्द्रिय) शरीर धारण करता है --

"तत्क्षणात् सोऽथ गृहणाति शारीरं चातिवाहिकम् । 

अंगुष्ठपर्वमात्रं तु स्वप्राणैरेव निर्मितम् ।।" 

(स्कन्द पुराण १/२/५०/६२)।।

 जो माता-पिता के शुक्र-शोणित द्वारा बनने वाले शरीर से भिन्न होता है -- 

"वाय्वग्रसारी तद्रूप देहमन्यत् प्रपद्ये।

 तत्कर्मयातनार्थे च न मातृपितृसम्भवम् ।।"

(ब्रह्म पुराण २१४/४६)


जैसी करनी वैसी भरनी

  इस अतीन्द्रिय शरीर से ही जीवात्मा अपने द्वारा किए हुए धर्म और अर्धम के परिणाम स्वरूप सुख-दु:ख को भोगता है तथा इसी सूक्ष्म शरीर से पाप करने वाले मनुष्य याम्यमार्ग की यातनाएं भोगते हुए यमराज के पास पहुँचते हैं एवं धार्मिक जन प्रसन्नतापूर्वक सुख भोग करते हुए धर्मराज के पास जाते हैं । 

  साथ ही यह बात ध्यान देने योग्य है कि केवल मनुष्य ही मृत्यु के पश्चात 'आतिवाहिक' सूक्ष्म (अतीन्द्रिय) शरीर धारण करते हैं ;और उसी शरीर को यमपुरूषों के द्वारा याम्यपथ से यमराज के पास ले जाया जाता है , अन्य प्राणियों को नहीं ।

 क्योंकि अन्य प्राणियों को यह सूक्ष्म शरीर प्राप्त ही नहीं होता ;वे तो तत्काल दूसरी योनियों में जन्म पा जाते हैं । पशु पक्षी आदि नाना तिर्यक-योनियों के प्राणी मृत्यु के बाद वायु रूप में विचरण करते हुए पुनः किसी योनि विशेष में जन्म-ग्रहण-हेतु उस योनि के गर्भ में आ जाते हैं।

  केवल मनुष्य को अपने शुभ और अशुभ कर्मो का अच्छा बुरा परिणाम इहलोक और में भोगना पड़ता है -

"मनुष्याः प्रतिपद्यन्ते स्वर्गं नरकमेव वा ।

 नैवान्ये प्राणिनः केचित् सर्वं ते फलभोगिनः ।।

शुभानामशुभानां वा कर्मणां भृगुनन्दन ।

सञ्चयः क्रियते लोके मनुष्यैरेव केवलम्।।

तस्मान् मनुष्यस्तु मृतो यमलोकं प्रपद्ये ।

नान्य: प्राणी महाभाग फलयोनौ व्यवस्थित:।।"

निष्कर्ष

  अपने कर्मों के फलस्वरूप मृत्यु के पश्चात जीवात्मा सूक्ष्म शरीर धारण करके स्वर्ग या नरक भोगता है और तत्पश्चात उसका पुनर्जन्म होता है या उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसलिए गीता में यह महत्वपूर्ण श्लोक कहा गया है कि -

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।  

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।

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