दुखिया भी मर रहा है, और सुखिया भी एक तो अति अधिक दुःख के कारण, और दूसरा अति अधिक सुख से। किन्तु राम के जन सदा ही आनंद में रहते हैं, क्योंकि उन्होंने सुख और दुःख दोनों को दूर कर दिया है। सुख और दुःख से ऊपर जाइये। और उस आनंद (भगवान) को प्राप्त कीजिये।
संसार में जितने भी दुःखी हैं, उन सबका कारण एक कामना ही है। कामना प्रत्येक अवस्था में दुःख का अनुभव करती रहती है-जैसे पुत्र के न होने पर पुत्र होने की लालसाका दुःख, जन्मनेपर उसके पालन-पोषण, विद्याध्ययन और विवाहादि की चिन्ताका दुःख और मरनेपर अभावका दुःख होता है ।
कामना के रहने पर तो प्रत्येक हालत में दुःखी ही होगा। अतएव जिस प्रकार आशा ही परम दुःख है, उसी प्रकार निराशा - वैराग्य ही परम सुख है। स्त्री, पुत्र, परिवार-सब आज्ञाकारी मिल जायें, तब भी सुख नहीं होगा, सुख तो इनकी कामना के परित्याग से ही होगा ।
इस संसार में आकर मनुष्य दूसरे सभी कार्यों में फसकर जीवन गँवाता है, लेकिन अपने हृदय की हीरे-मोतियों से भरी हुई लाल गठरी खोलना भूल जाता है।
यही कारण है कि सबकुछ होते हुए भी मनुष्य कंगाल रह जाता है। कहने का मतलब यही है की हम संसार में फसे हैं। भगवान की माया नचा रही है। यदि उससे निकले तभी तो उस आनंद की ओर पहुंचेंगे।
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।
गीता में अर्जुन ने भगवान् से प्रश्न किया है कि 'मनुष्य पाप करना नहीं चाहता, फिर भी बलात् किसकी प्रेरणा से पाप करता है ?'
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
विषय-वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है. इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है।
इस पर भगवान् ने उत्तर में कामना को ही पाप का कारण बतलाया। जितने व्यक्ति जेल में पड़े हैं, जितने नरकों की भीषण यातना सह रहे हैं और जिनके चित्त में शोक-उद्वेग हो रहे हैं तथा जो न चाहते हुए भी पापाचार में प्रवृत्त होते हैं, उन सबमें कारण भीतर की कामना ही है।
संसार में आप जिस भी चीज से दिल लगाओगे वहीं से आपको दुःख उठाना पड़ेगा, क्योंकि ये संसार दुःख का घर है।
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।
यह संसार दुःखालय है। यहाँ संसार सुख की आश लगाये बैठा है लेकिन यहाँ सुख है ही नही। सुख मृग तृष्णा की तरह है। मनुष्य जितना उसकी ओर जाता है वह और दूर होता चला जाता है। सच्चा सुख तो केवल भगवान की भक्ति में है।
फिर आप कहोगे की संसार में किसी से प्रेम ही ना करें। बाबा बन जाएँ, संत बन जाएँ। नही, बिलकुल नही। इसका केवल एक ही उपाय है। संसार में रहो लेकिन संसार को अपने अंदर ना रहने दो। जैसे पानी में नाव है। लेकिन नाव में पानी आ गया तो क्या होगा? नाव डूब जाएगी। इसलिए संसार में रहते हुए सब सम्बन्ध अच्छे से निभाइए। लेकिन किसी से कोई भी आशा मत कीजिये।
संसार के प्रति आशा ही दुःख का कारण है। आशा आप लगते हों और आपकी इच्छा पूरी नही होती है तो आपको दुःख होता है। इस सम्बन्ध में भगवान दत्तात्रेय और पिंगला वैश्या की कथा आती है।इसलिए संतो ने कह दिया है —
आशा एक राम जी सों, दूजी आशा छोड़ दे।
नाता एक राम जी सों दूजा नाता तोड़ दे।।
रामचरितमानस जी में श्री हनुमान जी महाराज कह रहे हैं—
कह हनुमंत विपति प्रभु सोई।
जब तक सुमिरन भजन न होई ।।
हनुमानजी ने कहा- हे प्रभु! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन-स्मरण न हो।
कोयले की खदान में चाहे जितनी गहरी खुदाई करो, कोयला ही मिलेगा। कोयले की क्वालिटी अच्छी ख़राब हो सकती है किन्तु मिलेगा कोयला ही।
'तब बचिहो जब रामहिं जानी'
इस दुःख से तभी बचोगे जब राम को जान लोगे ।
हमरे देखत सकल जग लूटा ।
दास कबीर राम कहि छूटा।।
देखते ही देखते प्रजा से लेकर चक्रवर्ती सम्राट तक लूट लिए गए किन्तु दास कबीर राम का आश्रय लेकर इस माया के चंगुल से छूट गया। एक अन्य स्थल पर कबीर ने कहा कि संसार में लोग परस्पर कुशल ही पूछते हैं ।
कुशल कहत कहत जग बिनसे, कुशल काल की फांसी ।
कह कबीर एक राम भजे बिन, बाँधे जमपुर जासी ।।
बुजुर्गों से उनकी कुशलता न पूंछे तो वह दुःखी हो जाते हैं। वह सोचते हैं हमारी इतनी उम्र हो गई और हमें पूछा तक नहीं ! यदि किसी ने पूछ लिया तो कहते हैं - हाँ ! बहु बड़ी होनहार है, साक्षात् लक्ष्मी है, बड़ी सेवा करती है। पोता पैदा हुआ है, बेटे का प्रमोशन हो गया, बृद्ध पेंशन भी मिल रहा है। यह कुशल, वह कुशल, कहते कहते लोग मरते जा रहे है। यह कुशल नहीं काल का फेंका हुआ फंदा है। वह क्षण आ गया जो इस शरीर की आयु का अंतिम क्षण है। पौत्र का मुंह तो हमने देखा लेकिन
जिसके लिए यह दुर्लभ तन मिला था, उसके लिए तो हमने सोचा ही नहीं । दो कदम चले नहीं इतने में प्राण पखेरू उड़ गए। अतः भैया, बाबू जी अभी भी समय है राम का नाम ले लो।
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं।
अंत राम कहि आवत नाहीं॥
ईश्वरीय नियम है कि हर मनुष्य स्वयं सदाचारी जीवन बितावे और दूसरों को अनीति पर न चलने देने के लिये भरसक प्रयत्न करे। यदि कोई देश या जाति अपने तुच्छ स्वार्थों में संलग्न होकर दूसरों के कुकर्मों को रोकने और सदाचार बढ़ाने का प्रयत्न नहीं करती तो उसे भी दूसरों का पाप लगता है। उसी स्वार्थपरता के सामूहिक पाप से सामूहिक दण्ड मिलता है। भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, महामारी, महायुद्ध के मूल कारण इस प्रकार के ही सामूहिक दुष्कर्म होते हैं जिनमें स्वार्थ परता को प्रधानता दी जाती है और परोपकार की उपेक्षा की जाती है।
देखा जाता है कि अन्याय करने वाली अमीरों की अपेक्षा मूक पशु की तरह जीवन बिताने वाले भोले भाले लोगों पर दैवी प्रकोप अधिक होते हैं। अतिवृष्टि का कष्ट गरीब किसानों को ही अधिक सहन करना पड़ता है। इसका कारण यह है कि अन्याय करने वाले से अन्याय सहने वाला अधिक बड़ा पापी होता है। कहते है कि —
बुज़दिल जालिम का बाप होता है।
कायरता में यह गुण है कि वह अपने ऊपर जुल्म करने के लिये किसी न किसी को न्योत ही बुलाता है। भेड़ की ऊन एक गड़रिया छोड़ देगा तो दूसरा कोई न कोई उसे काट लेगा। कायरता, कमजोरी, अविद्या स्वयं बड़े भारी पातक हैं। ऐसे पातकियों पर यदि भौतिक कोप अधिक हो तो कुछ आश्चर्य नहीं? सम्भवतः उनकी कायरता को दूर करने एवं स्वाभाविक सतेजता जगा कर निष्पाप बना देने के लिये अदृश्य सत्ता द्वारा यह घटनाएं उपस्थित होती हैं। यह भौतिक दुर्घटनायें सृष्टि के दोष नहीं है वरन् अपने ही दोष हैं। अग्नि में तपा कर सोने की तरह हमें शुद्ध करने के लिये यह कष्ट बार-बार कृपा पूर्वक आया करते हैं।
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