भारतीय नव वर्ष की शुभकामना |
अनन्त कोटि ब्राह्मण्डों की अधीश्वरी भगवती श्रीदुर्गा ही सम्पूर्ण विश्व को सत्ता और स्फूर्ति प्रदान करती हैं। इन्हीं की शक्ति से ब्रह्मादि देवता उत्पन्न होते हैं, जिनसे विश्व की उत्पत्ति होती है। इन्हीं की शक्ति से विष्णु और शिव प्रकट होकर विश्व का पालन और संहार करते हैं। ये ही गोलोक में श्रीराधा, साकेत में श्रीसीता, क्षीरसागर में लक्ष्मी, दक्षकन्या सती तथा दुर्गतिनाशिनी दुर्गा हैं।
शिवपुराण के अनुसार भगवती श्रीदुर्गा के आविर्भाव की कथा इस प्रकार है- प्राचीन काल में दुर्गम नामक एक महाबली दैत्य उत्पन्न हुआ। उसने ब्रह्माजी के वरदान से चारों वेदों को लुप्त कर दिया। वेदों के अदृश्य हो जाने से सारी वैदिक क्रिया बन्द हो गयी। उस समय ब्राह्मण और देवता भी दुराचारी हो गये। न कहीं दान होता था, न तप किया जाता था। न यज्ञ होता था, न होम ही किया जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि पृथ्वी पर सौ वर्षों तक वर्षा बन्द हो गयी। तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। सब लोग अत्यन्त दु:खी हो गये। कुआँ, बावड़ी, सरोवर, सरिता और समुद्र सभी सूख गये। सभी लोग भूख-प्यास से संतप्त होकर मरने लगे। प्रजा के महान् दु:ख को देखकर सभी देवता महेश्वरी योगमाया की शरण में गये।
देवताओं ने भगवती से कहा- ‘महामाये ! अपनी सारी प्रजा की रक्षा करो। सभी लोग अकाल पड़ने से भोजन और पानी के अभाव में चेतनाहीन हो रहे हैं। तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि मची है। माँ ! जैसे आपने शुम्भ-निशुम्भ, चण्ड-मुण्ड, रक्तबीज, मधु-कैटभ तथा महिष आदि असुरों का वध करके हमारी रक्षा की थी, वैसे ही दुर्गमासुर के अत्याचार से हमारी रक्षा कीजिये।’ ‘श्रीजी की चरण सेवा‘की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें तथा अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें।
देवताओं की प्रार्थना सुनकर कृपामयी देवी ने उन्हें अपने अनन्त नेत्रों से युक्त स्वरूप का दर्शन कराया ! तदनन्तर पराम्बा भगवती ने अपने अनन्त नेत्रों से अश्रुजलकी सहस्रों धाराएँ प्रवाहित कीं। उन धाराओं से सब लोग तृप्त हो गये और समस्त औषधियाँ भी सिंच गयीं। सरिताओं और समुद्रों में अगाध जल भर गया। पृथ्वी पर शाक और फल-मूल के अंकुर उत्पन्न होने लगे। देवी की इस कृपा से देवता और मनुष्यों सहित सभी प्राणी तृप्त हो गये। उसके बाद देवी ने देवताओं से पूछा- ‘अब मैं तुम लोगों का और कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ ?’ देवताओं ने कहा- ‘माँ ! जैसे आपने समस्त विश्व पर आये अनावृष्टि के संकट को हटाकर सबके प्राणों की रक्षा की है; वैसे ही दुष्ट दुर्गामासुर को मारकर और उसके द्वारा अपहृत वेदों को लाकर धर्म की रक्षा कीजिये।’ देवी ने ‘एवमस्तु’ कहकर देवताओं को संतुष्ट कर दिया। देवता उन्हें प्रणाम करके अपने स्थान को लौट गये। तीनों लोकों में आनन्द छा गया। जब दुर्गमासुर को इस रहस्य का ज्ञान हुआ, तब उसने अपनी आसुरी सेना को लेकर देवलोक को घेर लिया। करुणाममयी माँ ने देवताओं को बचाने के लिये देवलोक के चारों ओर अपने तेजोमण्डल की एक चहारदीवारी खड़ी कर दी और स्वयं घेरे के बाहर आ डटीं।
देवी को देखते ही दैत्यों ने उन पर आक्रमण कर दिया। इसी बीच देवी के दिव्य शरीर से- काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगलामुखी, धूमावती, त्रिपुरसुन्दरी और मातंगी- ये दस महाविद्याएँ अस्त्र-शस्त्र लिये निकलीं तथा असंख्य मातृकाएँ भी प्रकट हुईं। उन सबने अपने मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट धारण कर रखा था। इन शक्तियों ने देखते-ही-देखते दुर्गामासुर की सौ अक्षौहिणी सेना को काट डाला। इसके बाद देवी ने दुर्गमासुर का अपने तीखे त्रिशूल से वध कर डाला और वेदों का उद्धार कर उन्हें देवताओं को दे दिया। दुर्गमासुर को मारने के कारण उनका दुर्गा नाम प्रसिद्ध हुआ। शताक्षी और शाकम्भरी भी उन्हीं के नाम हैं। दुर्गतिनाशिनी होने के कारण भी वे दुर्गा कहलाती हैं।
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