लोभी-लालची सुंदर कीर्ति चाहे, कामी मनुष्य निष्कलंकता (चाहे तो) क्या पा सकता है?
जैसे गरुड़ का भाग कौआ चाहे, सिंह का भाग खरगोश चाहे, बिना कारण ही क्रोध करने वाला अपनी कुशल चाहे, शिवजी से विरोध करने वाला सब प्रकार की सम्पत्ति चाहे, लोभी-लालची सुंदर कीर्ति चाहे, कामी मनुष्य निष्कलंकता चाहे तो क्या पा सकता है? और जैसे श्री हरि के चरणों से विमुख मनुष्य परमगति चाहे, हे राजाओं! सीता के लिए तुम्हारा लालच भी वैसा ही व्यर्थ है ।
देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु।।
सीताजी दुष्ट राजाओं के दुर्वचन सुनकर सोच में पड़ जाती हैं कि न जाने विधाता अब क्या करने वाले हैं।
नीच राजाओं के अनर्गल प्रलाप के प्रत्युत्तर में प्रतिष्ठावान राजाओं ने उनसे कहा कि ईर्षा, घमंड और क्रोध छोड़कर नेत्र भरकर श्री रामजी की छबि को देख लो। लक्ष्मण के क्रोध को प्रबल अग्नि जानकर उसमें पतंगे मत बनो ।
अभिमान ने देवताओं एवं मनुष्यों को ढेर कर दिया फिर मनुष्यों की क्या मजाल? चाहे राजा हो या रंक अभियान किसी का सदैव रहता नहीं है, मैं में जीने वाले प्राणी को ईश्वर की शरणागति संभव नहीं।
कोई भी मद आने पर व्यवहार संगत नहीं रहता। उच्च-तुच्छ की अज्ञानता से भरे ऐसे लोगों को भौतिक संसार में श्रेष्ठ होने का अनुभव हो सकता है।
सीताजी के स्वयंवर में श्रीराम ने धनुष तोड़ा। यह धनुष अभिमान का प्रतीक था। यही वजह है कि परशुराम श्रीराम के शरणागत हो गए। धनुष ने अहम दिखाया, उसे टूटना पड़ा। अहम की सत्ता न आदि में है, न अनंत में। न जन्म, न मृत्यु में। बेहतर है कि इसे बीच में ही तोड़ दिया जाए।
शरणागति प्रभु सापेक्ष है। दान देकर खुद को दानी बताना कहां का धर्म है? इस अहंकार में ही सारी कुरीतियां भरी है। लोभ की दवा दान है। बशर्ते उस दान में बखान ना हो। मैं की वृत्ति के विसर्जन बिना शरणागति की पाठशाला में प्रवेश नहीं मिलता।
‘मैं कृष्ण का हूँ और केवल कृष्ण ही मेरे हैं’- इस अपनेपन के समान कोई भी योग्यता, पात्रता आदि कुछ भी नहीं है।
एक बार विभीषणजी से विप्रघोष नामक गाँव में ब्रह्महत्या हो गयी। इस पर उस गाँव के लोगों ने विभीषण जी को खूब मारा-पीटा और उन्हें जंजीरों से बाँधकर एक गुफा में ले जाकर बंद कर दिया। जैसे ही रामजी को पता चला, वे पुष्पक विमान लेकर सीधे उनके पास पहुँच गये। गाँव वालों ने रामजी का बहुत आदर-सत्कार किया और उन्हें विभीषण जी के द्वारा ब्रह्महत्या के बारे में बताया। फिर कहा कि- ‘हमने इसे बहुत मारा, पर यह मरा नहीं।’ भगवान् राम ने कहा- ‘हे ब्राह्मणो। विभीषणजी को मैंने एक कल्प तक की आयु और राज्य दे रखा है, फिर वह कैसे मर सकता है ? वह तो मेरा भक्त है। सेवक का अपराध मालिक का ही माना जाता है, अतः अपने सेवक (भक्त) के लिये मैं स्वयं मरने के लिये तैयार हूँ।
कर्म से श्रेष्ठ ज्ञान है ज्ञान से श्रेष्ठ भक्ति और भक्ति की अंतिम अवस्था उसका जो मूल केन्द्र है वह शरणागति है। शरणागति के बिना भक्ति नहीं, भक्ति के बिना ज्ञान नहीं, ज्ञान के बिना कर्म नहीं। तो आधार है शरणागति । इसके बिना काम नहीं चलेगा।
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