संत शिरोमणि तुलसीदास जी कहते हैं कि जो इस हनुमान चालीसा को जिस तरह मैंने बताया है जो समझकर बूझकर पाठ करता है।
होय सिद्धि साखी गौरीसा
वह साधक सिद्ध हो जाता है। यह गौरीसा कह रहे हैं गौरीसा यानि गौरी के ईस। अर्थात भगवान शिव।
हमारे जीवन का सारा दुःख अपना है। हम हर चीज को अपने में बांधना चाहते हैं। यहीं से दुःख शुरू होता है। सारा दुःख सीमाओं का ही दुःख है। में पूरा नहीं हूं, अधूरा हूं। मुझे पूरा होने के लिए न मालूम कितनी कितनी चीजों की जरुरत है। जैसे - जैसे चीजे मिलती जाती है, मैं पन का विस्तार होता जाता है अधूरा पन कायम ही रहता है। सब कुछ मिल जाने पर भी मैं अधूरा ही रह जाता है। जब तक मैं किसी भी काम मैं दूसरे पर निर्भर हूं तब तक में परतंत्र हूं और परतंत्रता में आनंद नहीं हो सकता। अगर हम सारे दुखो का निचोड़ निकाले तो पाएंगे परतंत्रता। आनंद का सार मूल है स्वतंत्रता। यह स्वतंत्रता है क्या ?
मन को नियंत्रित करके अपनी इन्द्रियों का स्वामी बन जाना ही स्वतंत्रता है। अपने आत्मपद में स्थिर रहना ही स्वतंत्रता है। यही स्वतंत्रता मोक्ष है। यह निर्वाण है। यही कैवल्य ही है। यही है परम सिद्धि।
अघटित घटन, सुघट बिघटन
ऐसी बिरुदावली नहिं आन की।
जो न घटने वाली घटना को घटा दे और जो घटना घटने वाली हो उसे विघटित कर दे ऐसा सामर्थ्य हनुमानजी का हैं
किसमें हैं ऐसा सामर्थ्य ? क्या स्वयं रामजी में भी नहीं।
काल सबको खाता हैं सब काल के वश में हैं लेकिन हनुमान जी महाकाल हैं। काल स्वयं इनके वश में हैं इनके हाथ का खिलौना हैं काल। ब्रज का मतलब ही है काल।
हाथ ब्रज और ध्वजा विराजे।
काँधे मूँज जनेऊ साजै॥
आपके हाथ मे बज्र और ध्वजा है और कन्धे पर मूंज के जनेऊ की शोभा है।
हाथ वज्र ओर ध्वजा विराजे।
हनुमान जी के एक हाथ मे गदा है। ये गदा उनके लिए है जो धर्म विरोधी है ओर एक हाथ मे ध्वजा है।
कौन सी ध्वजा है ?
रघुपति कीरति विमल पताका।
अर्थात् मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम सुयश और कीर्ति की ध्वजा।
काँधे मूँज जनेऊ साजै।
श्री हनुमान जी महाराज ने मूँज से बना जनेऊ धारण किया हुआ है।
धागे से नही बनी है ।
मूँज एक प्रकार की घास होती है ओर तीखी होती है। हनुमान जी ने मूँज का जनेऊ इसी लिए धारण किया है ताकि मूँज का तीखापन , चुभन हनुमान जी को बार बार प्रभु श्री राम की सेवा की याद दिलाता रहे।
दूसरे हनुमान जी इस प्रकृति से भी परे हैं।
क्योंकि इस प्रकृति प्रपंच को रघुनाथ जी ने गुण-दोष सहित रचा हैं।
सकल गुण दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संसार में ऐसा कोई नहीं जो सिर्फ़ गुणी हो या सिर्फ़ अवगुणी हो, गुण अवगुण दोनों ही सबमें रहतें है। एक हनुमान जी में ही सिर्फ़ गुण ही गुण भरे हैं।
सकल गुण निधानम्।
भगवान शिव का रुप गुरु का रुप है । ज्ञानराणा शिव है, हनुमानजी खुद रुद्रावतार है जिनके मस्तिष्क से अविरत ज्ञानगंगा का प्रवाह प्रवाहित होता रहता है । भगवान शंकर इस "हनुमान चालीसा" के साक्षी हैं
भगवान शंकर की प्रेरणा से ही तुलसदासजी ने "हनुमान चालीसा" की रचना की है । हनुमान चालीसा की शुरुआत श्री गुरु बंदना से ही शुरुआत होती है -
गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊं रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि ।।
श्री गुरु महाराज के चरण कमलों की धूलि से अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूं, जो चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला है। गुरु का मस्तिष्क ज्ञान से भरा हुआ रहता है और हनुमान चालीसा का अंत भी गुरु बंदना पर खत्म होता है ।
जय जय हनुमान गोसाई । कृपा करो गुरुदेव की नाई।।
गो + साई
गो = इंद्रियां
साईं = स्वामी
इस प्रकार शब्द गोसाई का अर्थ हुआ - (अपनी) इन्द्रियों का स्वामी
जिसका अपनी इन्द्रियों पर पूरा नियंत्रण हो।
तुलसीदासजी लिखते हैं, हे हनुमानजी आपकी जय हो ऐसा तीन बार उन्होने लिखा है, इसके पीछे गहरा अर्थ छुपा हुआ है । हम जब आपस में एक दूसरे से मिलते हैं तब, ‘जय रामजी की’ या ‘जय श्रीकृष्ण’ कहते हैं । इन में से कोई भी बोलो मगर भगवान की जय होनी चाहिए । यह सुनकर मेरे मन में एक प्रश्न खडा होता है, जबकि यह प्रश्न बोलने वाले के मन में खडा नहीं होता है बोलने वाला जोर से बोलता है ‘जय रामजी की’ परन्तु जय कहाँ होती है?
युद्ध में दोनाें में से एक की जय होती है, परन्तु यहाँ युद्ध किसके साथ है? राम के साथ या कृष्ण के साथ या हनुमानजी के साथ?
इस बात का कभी किसी ने विचार नहीं किया है । लोग कहते हैं कि आसुरी संपत्ति की लडाई है, परन्तु भगवान की लडाई किसके साथ है? भगवान का युद्ध मेरे ही साथ है ।
शरीर में दो जन है जीव और शिव । भगवान कहते है: यह शरीर मेरा है और मेरे लिए है’ और जीव कहता है, ‘यह शरीर मेरा है और मेरे लिए है’ ऐसी लडाई चल रही है । उसमें भगवान! आपकी जय होनी चाहिए । जिसके जीवन में भगवान की जय होती है उसे हम सन्त कहते हैं ।
सन्त कहते है कि, ‘यह देह भगवान का है, भगवान के लिए है’ भगवान को भी देह के उपर अपना हक्क सिद्ध करने के लिए दलीले देनी पडती है।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारतम्।
फिर भी हम समझते हैं कि देह हमारा है, हमारे लिए है, हम जैसा उपयोग करना चाहे वैसा उपयोग करेंगे ।
सबसे पहला भाव समर्पण का ही होना चाहिए तभी आप ईश्वर का प्रेम और उनका सानिध्य प्राप्त करने योग्य बन सकते हो।अब बात आती है कि समर्पण का भाव कब और कैसे आए तो उसके लिए आपके ह्रदय में ईश्वर के प्रति सच्चा विश्वास होना चाहिए क्योंकि बिना विश्वास के आपके अंदर न तो श्रद्धा ही होगी और न ही भक्ति और बिना श्रद्धा और भक्ति के किया हुआ समर्पण झूठा होगा और उसमें प्रेम की वो डोर नही बन पाएगी जिसमें बंधकर ईश्वर आपकी ओर चले आए।
हां तो तुलसीदासजी यहां इसी सिद्धि की बात कर रहें हैं। यह सिद्धि मिलती है गुरु की बताई विधि से। गुरु चरणों में अपनी मैं का सम्पूर्ण समर्पण कर देने पर गुरुभक्ति में उतरने पर।
इसी सिद्धि को, गौरीसा, यानी गौरी के ईस अर्थात शंकर जी ने अपने मानस पुत्र हनुमानजी को राम रसायन के रूप में प्रदान किया जिससे वे रामत्व को उपलब्ध होकर सदा के लिए अमर हो गए। यह सिद्धि चार तरह से मिलती है
स्वयंसिद्ध - जिसने स्वयं को सिद्ध कर लिया वह भक्तो के हित के लिए करुणा वश धराधाम पर आता है। जैसे भगवान् कृष्ण।
वंशसिद्ध - सिद्ध माता पिता की संतान भी सिद्ध होती है। जैसे हनुमान जी।
वचनसिद्ध - यह पूर्णतः गुरु अनुकम्पा का परिणाम है मोक्ष मूलं गुरु कृपा। जैसे विभीषण जी।
साधन सिद्ध - यह अपने उद्यम से मिलती है। जैसे बुद्ध, महावीर। इनमे से वचन सिद्धि ही सहज सुगम है।
तुलसीदासजी यहां इसी की बात कर रहें हैं। वह स्वयं अपने गुरु के भक्त हैं उनकी अनन्य अनुकम्पा से सिद्ध बने हैं इसलिए वह आपको भी इसी सिद्धि के लिए प्रेरित कर रहे हैं। तथा अपने भक्तो से भी कह रहे हैं ।
जो पढ़ै हनुमान चालीसा होय सिद्धि सखी गौरीसा।
यह हनुमान चालीसा उनके गुरु की स्तुति है अतः यह गुरु के द्वारा उर्जावंतित है सिद्ध है यदि उनके शिष्य इसका पाठ करेंगे तो वह भी सिद्ध हो जाएंगे।
हमारे जीवन में भगवान की जय नहीं है, पराजय है । एक दिन ऐसा आना चाहिए जब कृष्ण की जय हो, रामजी की जय हो, हनुमानजी की जय हो । ‘मेरा शरीर भगवान के लिए है’ यह बात अन्दर की वृत्ति पर निर्भर है । यह शरीर मेरा नहीं है, उसका है, उसके लिए है । हनुमानजी का शरीर भगवान राम के लिए था इसलिए उनके जीवन में भगवान की जय हुई इसीलिए तुलसदासजी लिखते हैं।
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
महापुरुष कहते हैं हमारी पहली मुलाकात भगवान के साथ होनी चाहिए।
our first appointment must be with god.
और बचा हुआ समय अपने लिये रहना चाहिए । हम ठीक इसके विपरीत करते हैं । हमारी भगवान के साथ मुलाकात अन्त में होती है । इतना ही वृत्ति मे अंतर है । यह वृत्ति जीवन में जिसने स्थिर की, उसके जीवन में अनन्यता आती है ।
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्
दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥
प्रभु हनुमानजी के जन्मोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं।
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