एक बार दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाली देवी अनसूया ने अपने निकट बैठी हुई सीता से कोई परम प्रिय कथा सुनाने के लिये इस प्रकार पूछना आरम्भ किया -
'सीते ! इन यशस्वी राघवेन्द्र ने तुम्हें स्वयंवर में प्राप्त किया था,यह बात मेरे सुनने में आयी है। 'मिथिलेश नन्दिनि !मैं उस वृत्तान्त को विस्तार के साथ सुनना चाहती हूँ।अत: जो कुछ जिस प्रकार हुआ,वह सब पूर्णरूप से मुझे बताओ'।
उनके इस प्रकार आज्ञा देने पर सीता ने उन धर्मचारिणी तापसी अनसूया से कहा - 'माताजी ! सुनिये ।' ऐसा कहकर उन्होंने उस कथा को इस प्रकार कहना आरम्भ किया-
'मिथिला जनपद के वीर राजा 'जनक' नाम से प्रसिद्ध हैं। वे धर्म के ज्ञाता हैं, अतः क्षत्रियोचित कर्म में तत्पर रहकर न्यायपूर्वक पृथ्वी का पालन करते हैं।
'एक समय की बात है, वे यज्ञ के योग्य क्षेत्र को हाथ में हल लेकर जोत रहे थे; इसी समय मैं पृथ्वी को फाड़कर प्रकट हुई। इतने मात्र से ही मैं राजा जनक की पुत्री हुई।
'वे राजा उस क्षेत्र में ओषधियों को मुट्ठी में लेकर बो रहे थे। इतने ही में उनकी दृष्टि मेरे ऊपर पड़ी। मेरे सारे अङ्गों में धूल लिपटी हुई थी। उस अवस्था में मुझे देखकर राजा जनक को बड़ा विस्मय हुआ।
'उन दिनों उनके कोई दूसरी संतान नहीं थी, इसलिये स्नेहवश उन्होंने स्वयं मुझे गोद में ले लिया और 'यह मेरी बेटी है' ऐसा कहकर मुझ पर अपने हृदय का सारा स्नेह उड़ेल दिया।
'इसी समय आकाशवाणी हुई, जो स्वरूपतः मानवी भाषा में कही गयी थी (अथवा मेरे विषय में प्रकट हुई वह वाणी अमानुषी-दिव्य थी)। उसने कहा- 'नरेश्वर ! तुम्हारा कथन ठीक है, यह कन्या धर्मतः तुम्हारी ही पुत्री है'॥
'यह आकाशवाणी सुनकर मेरे धर्मात्मा पिता मिथिला नरेश बड़े प्रसन्न हुए। मुझे पाकर उन नरेश ने मानो कोई बड़ी समृद्धि पा ली थी।
'उन्होंने पुण्य कर्म परायणा बड़ी रानी को,जो उन्हें अधिक प्रिय थीं, मुझे दे दिया। उन स्नेहमयी महारानी ने मातृ समुचित सौहार्द से मेरा लालन-पालन किया।
'जब पिता ने देखा कि मेरी अवस्था विवाह के योग्य हो गयी, तब इस के लिये वे बड़ी चिन्ता में पड़े। जैसे कमाये हुए धन का नाश हो जाने से निर्धन मनुष्य को बड़ा दुःख होता है,उसी प्रकार वे मेरे विवाह की चिन्ता से बहुत दुःखी हो गये।
'संसार में कन्या के पिता को,वह भूतल पर इन्द्र के ही तुल्य क्यों न हो,वरपक्ष के लोगों से,वे अपने समान या अपने से छोटी हैसियत के ही क्यों न हों,प्रायः अपमान उठाना पड़ता है।
'वह अपमान सहन करने की घड़ी अपने लिये बहुत समीप आ गयी है,यह देखकर राजा चिन्ता के समुद्र में डूब गये। जैसे नौकारहित मनुष्य पार नहीं पहुँच पाता, उसी प्रकार मेरे पिता भी चिन्ता का पार नहीं पा रहे थे।
'मुझे अयोनिजा कन्या समझकर वे भूपाल मेरे लिये योग्य और परम सुन्दर पति का विचार करने लगे; किंतु किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके।
'सदा मेरे विवाह की चिन्ता में पड़े रहने वाले उन महाराज के मन में एक दिन यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं धर्मतः अपनी पुत्री का स्वयंवर करूँगा।
'उन्हीं दिनों उनके एक महान् यज्ञ में प्रसन्न होकर महात्मा वरुण ने उन्हें एक श्रेष्ठ दिव्य धनुष तथा अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस दिये।
'वह धनुष इतना भारी था कि मनुष्य पूरा प्रयत्न करने पर भी उसे हिला भी नहीं पाते थे। भूमण्डल के नरेश स्वप्न में भी उस धनुष को झुकाने में असमर्थ थे।
'उस धनुष को पाकर मेरे सत्यवादी पिता ने पहले भूमण्डल के राजाओं को आमन्त्रित करके उन नरेशों के समूह में यह बात कही - 'जो मनुष्य इस धनुष को उठाकर इस पर प्रत्यञ्चा - चढ़ा देगा, मेरी पुत्री सीता उसी की पत्नी होगी; इसमें संशय नहीं है।
'अपने भारीपन के कारण पहाड़ - जैसे प्रतीत होने वाले उस श्रेष्ठ धनुष को देखकर वहाँ आये हुए राजा जब उसे उठाने में समर्थ न हो सके, तब उसे प्रणाम करके चले गये।
'तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् ये महातेजस्वी रघुकुल- नन्दन सत्यपराक्रमी श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण को साथ ले विश्वामित्र जी के साथ मेरे पिता का यज्ञ देखने के लिये मिथिला में पधारे। उस समय मेरे पिता ने धर्मात्मा विश्वामित्र मुनि का बड़ा आदर-सत्कार किया।
'तब वहाँ विश्वामित्र जी मेरे पिता से बोले- 'राजन् ! ये दोनों रघुकुल भूषण श्रीराम और लक्ष्मण महाराज दशरथ के पुत्र हैं और आपके उस दिव्य धनुष का दर्शन करना चाहते हैं। आप अपना वह देवप्रदत्त धनुष राजकुमार श्रीराम को दिखाइये '।
'विप्रवर विश्वामित्र के ऐसा कहने पर पिताजी ने उस दिव्य धनुष को मँगवाया और राजकुमार श्रीराम को उसे दिखाया।
'महाबली और परम पराक्रमी श्रीराम ने पलक मारते-मारते उस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी और उसे तुरंत कान तक खींचा
'उनके वेगपूर्वक खींचते समय वह धनुष बीच से ही टूट गया और उसके दो टुकड़े हो गये। उसके टूटते समय ऐसा भयंकर शब्द हुआ मानो वहाँ वज्र टूट पड़ा हो।
'तब मेरे सत्यप्रतिज्ञ पिता ने जल का उत्तम पात्र लेकर श्रीराम के हाथ में मुझे दे देने का उद्योग किया।
'उस समय अपने पिता अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के अभिप्राय को जाने बिना श्रीराम ने राजा जनक के देने पर भी मुझे नहीं ग्रहण किया।
'तदनन्तर मेरे बूढ़े श्वशुर राजा दशरथ की अनुमति लेकर पिताजी ने आत्म ज्ञानी श्रीराम को मेरा दान कर दिया।
'तत्पश्चात् पिताजी ने स्वयं ही मेरी छोटी बहिन सती साध्वी परम सुन्दरी ऊर्मिला को लक्ष्मण की पत्नी रूप से उनके हाथ में दे दिया।
'इस प्रकार उस स्वयंवर में पिताजी ने श्रीराम के हाथ में मुझको सौंपा था। मैं धर्म के अनुसार अपने पति बलवानों में श्रेष्ठ श्रीराम में सदा अनुरक्त रहती हूँ'।
धर्मे दक्षं दशरथसूनुं पुण्यं
सीतानाथं रघुकुलधीरं वन्दे..!!
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