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अलंकार - अर्थ, परिभाषा और प्रकार

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अलंकार -  अर्थ,  परिभाषा और प्रकार
अलंकार -  अर्थ,  परिभाषा और प्रकार


 'अलंकार' शब्द की रचना 'अलम्+कार' के योग से हुई है। यहाँ 'अलम्' का अर्थ होता है- 'शोभा' तथा 'कार' का अर्थ होता है- 'करने वाला'। अर्थात् जो शोभा में वृद्धि करता है, उसे अलंकार कहते हैं। एक संज्ञा शब्द के रूप में इसका अर्थ 'आभूषण' होता है।

 अलंकार की परिभाषा :-

1. काव्यादर्शकार आचार्य दण्डी के अनुसार :-

"काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान् प्रचक्षते ।"

अर्थात् काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्म (शब्द या अर्थ) ही अलंकार कहलाते हैं। 

2. काव्यालंकार सूत्रवृत्तिकार आचार्य वामन के अनुसार :- "काव्यशोभायाः कर्तारो धर्माः गुणाः।

तदतिशयहेतस्त्वलंकाराः ।।"

अर्थात् काव्य की शोभा में वृद्धि करने वाले धर्म गुण कहलाते हैं तथा उनकी अतिशयता (अत्यधिक प्रयोग) अलंकार है। दूसरे शब्दों में 'गुण' काव्य के शोभाकारक हैं तथा अलंकार इसके उत्कर्ष के हेतु हैं।

3. साहित्यदर्पणकार आचार्य वामन के अनुसार :- "शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्मा शोभातिशायिनः । रसादीनुपकर्वन्तोऽल‌ङ्कारास्तेङ्गदादिवत् ।।"

अर्थात् अलंकार काव्य शब्दार्थ के अस्थिर धर्म हैं। ये केवल शोभातिशायी हैं और उसी प्रकार कविता रूपी कामिनी के शरीर की शोभा बढ़ाते हैं, जिस प्रकार कटक, कुण्डल, हार आदि आभूषण कामिनी के शरीर की शोभा बढ़ाते हैं।

4. काव्यालंकारकार आचार्य भामह के अनुसार : "न कान्तमणि निर्भूषं विभति वनितामुखम्।" अर्थात् नायिका (कामिनी) का सुन्दर मुख भी अलंकारों के बिना शोभा नहीं पाता है।

अलंकारों की विशेषताएँ -

अलंकारों की निम्न विशेषताएँ होती है -

1. अलंकार काव्य सौन्दर्य का मूल है।

2. अलंकारों का मूल वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति है।

3. अलंकार और अलंकार्य में कोई भेद नहीं है।

4. अलंकार काव्य का शोभाधायक धर्म है।

5. अलंकार काव्य का सहायक तत्त्व है।

6. स्वभावोक्ति न तो अलंकार है तथा न ही काव्य है अपितु वह केवल वार्ता है।

7. ध्वनि, रस, संधियों, वृत्तियों, गुणों, रीतियों को भी अलंकार नाम से पुकारा जा सकता है।

8. अलंकार रहित उक्ति श्रृंगाररहिता विधवा के समान है।

विशेष -

1. ऋग्वेद (वैदिक वाङ्मय) के बाद लौकिक वाङ्मय अन्तर्गत 'रामायण' एवं 'महाभारत' ग्रंथों में भी अलंकारों का व्यापक प्रयोग किया गया है।

2. लक्षण ग्रंथों के विवेचन की दृष्टि से आचार्य भरतमुनि के द्वारा स्वरचित नाट्यशास्त्र रचना में निम्नलिखित चार अलंकार स्वीकार किये गये थे-

(i)   उपमा 

ii)    यमक

(iii)  रूपक

(iv)   दीपक

3. अग्निपुराण में कुल चौदह अलंकारों का उल्लेख प्राप्त होता है।

4. अलंकार सम्प्रदाय के वास्तविक प्रवर्तक आचार्य भामह माने जाते हैं। इनके द्वारा रचित 'काव्यालंकार' रचना में कुल 38 अलंकारों का विवेचन किया गया है।

5. दण्डी, उद्भट एवं वामन आदि आचार्यों के द्वारा कुल 52 अलंकारों का विवेचन किया गया।

6. बारहवीं शताब्दी (आचार्य मम्मट) तक आते-आते अलंकारों की संख्या 103 तक पहुँच गई।

7. तदुपरान्त सत्रहवीं शताब्दी में पंडितराज जगन्नाथ के द्वारा स्वरचित 'रसगंगाधर' रचना में कुल 180 अलंकार स्वीकृत किये।

8. दण्डी अलंकारों के मूल में अतिशयोक्ति को मानते हैं। भामह ने जिसे 'वक्रोक्ति' कहा है, दण्डी ने उसे 'अतिशयोक्ति' कहा है।

1. यमक अलंकार

यमक अलंकार प्रयुक्त यमक का अर्थ है- युग्म या जोडा। जहाँ शब्दों की आवृत्ति अर्थात् एक शब्द एक से अधिक बार हो और उसका अर्थ अलग-अलग हो, वहाँ यमक अलंकार होता है।

उदाहरण

1. कनक-कनक तें सौ गुनी, मादकता अधिकाय।

वा खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।।"

2. "सारंग ले सारंग उड्यो, सारंग पुग्यो आय।

जे सारंग सारंग कहे, मुख को सारंग जाय।।"

यमक अलंकार के भेद यमक अलंकार के मुख्यतः निम्न दो भेद माने जाते है -

(i) अभंग यमक (ii) सभंग यमक

(अ) अभंग यमक  - जब किसी पद में शब्द के टुकडे किये बिना ही उसकी आवृत्ति दिखलायी पङ जाती है तो वहाँ अभंग यमक अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. "भजन कह्यो तातै भज्यौ, भज्यौ न एको बार। दूर भजन जातै कह्यो, सो तू भज्यौ गवार।।"

2. सजना है मुझे सजना के लिए।

3. दीपक ले दीपक चली, कर दीपक की ओट। जे दीपक दीपक नहीं, दीपक करता चोट ।।

4. "दीरघ सांस न लेई दुःख, सुख सोई न मूल।

दई-दई क्यों करत है, दई-दई कबूल।।"

5. "तौ पर वारौं उरबसी, सुनु राधिके सुजान। तू मोहन के उरबासी, हवै उरबसी समान।।"

(ब) सभंग यमक  -  जब किसी पद में किसी शब्द के टुकडे करने पर ही अन्य शब्द के समान आवृत्ति दिखलायी पङती है तो वहाँ सभंग यमक अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. आयो सखि सावन विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन, सलिल चहुँ की ओर तें।

2. जगमग जगमग हम जग का मग, ज्योतित प्रति पग करते जगमग ।

3. यों परदे की इज्जत परदेसी के हाथ बिकानी थी।

4. कुमोदिनी मानस मोदिनी कहीं।

5. 'मचलते चलते ये जीव हैं, दिवस में वस में रहते नहीं।

    विमलता मल ताप हटा रही, विचरते चरते सुख से सभी ।।'


श्लेष अलंकार

श्लेष अलंकार में प्रयुक्त एक ही शब्द के अलग-अलग सन्दर्भ के अनुसार अलग-अलग अर्थ हो जाते हैं तो वहाँ श्लेष अलंकार माना जाता है। 

 हिन्दी में श्लेष शब्द 'शिलष्+अण (अ)' के योग से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है- 'चिपकना' अर्थात् जहाँ एक ही शब्द से प्रसंगानुसार अनेक अर्थ प्रकट होते हैं, वहाँ श्लेष अलंकार होता है; -

1. "रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।।"

2. "चरण धरत चिन्ता करत भावत नींद न सोर।

      सुबरण को ढूँढ़त फिरै, कवि कामी अरु चोर।।"

3. "रहिमन जे गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।

बारै उजियारो करै, बढ़े अँधेरो होय।।"

श्लेष अलंकार के भेद श्लेष अलंकार के प्रमुखतः दो भेद माने जाते है :-

(अ) अभंग श्लेष

(ब) सभंग श्लेष


(अ) अभंग श्लेष :-

जब किसी पद में प्रयुक्त श्लिष्ट शब्द के टुकड़े किये बिना ही शब्दकोश या लोक-प्रसिद्धि अर्थ के अनुसार अलग-अलग अर्थ प्रयुक्त हो जाते हैं तो वहाँ अभंग श्लेष अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. "नर की अरु नलनीर की, गति एकै करि जोय। जेतो नीचो हवै चले, तेतो ऊँचो होय।।"

2. "मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय। जा तन की झाँई परै, स्यामु हरित दुति होय।।"

3. इन्द्रनील मणि महा चषक था, सोम रहित उलटा लटका।

4. "जहाँ गाँठ तहाँ रस नहीं, यह जानत सब मढ्येतर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस कोय। होय।।"

5. "नवजीवन दो घनश्याम हमें।"

6. "लाग्यो सुमनु वै है सफलु, आतप रोसु निवारि। बारी बारी आपनी सींचि सुहृदता वारि।।"


(ब) सभंग श्लेष :-

जब किसी पद में पर ही एक से अधिक अर्थ प्रकट होते हैं तो वहाँ सभंग श्लेष अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. "संतत सुरानीक हित जेही। बहुरि तेही।"

2. "चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गम्भीर।

     को घटि ए वृषभानुजा वे हलधर के बीर।।" 

3. "अजौँ तौना ही रह्यौ, श्रुति सेवत इक अंग।

      नाक बास बेसरि लह्यौ, बसि मुकुतन के संग।।"


रूपक अलंकार

  जब किसी पद में उपमान एवं उपमेय में कोई भेद नहीं रह जाता है अर्थात् उपमेय में उपमान का निषेधरहित आरोपण कर दिया जाता है तो वहाँ रूपक अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. "अवधेस के बालक चारि सदा, तुलसी मन-मंदिर में विहरें।"

रूपक अलंकार के भेद  -

रूपक अलंकार के मुख्यतः दो भेद होते है :-

(1) अभेद रूपक

(2) तद्रुप रूपक

अभेद रूपक में उपमेय और उपमान एक दिखाये जाते हैं, उनमें कोई भी भेद नहीं होता है; जबकि तद्रुष् रूपक में उपमान, उपमेय का रूप तो धारण करता है, पर एक नहीं हो पाता। उसे 'और' या 'दूसरा' कहकर व्यक्त किया जाता है।

(1) अभेद रूपक :-

अभेद रूपक के भी पुनः निम्न तीन उपभेद कर दिये जाते हैः-

(अ) सांग रूपक

(ब) निरंग रूपक

(स) परम्परित रूपक


(अ) सांग रूपक :-

जब किसी पद में उपमान का उपमेय में अंगों या अवयवों सहित आरोप किया जाता है तो वहाँ सांगरूपक अलंकार माना जाता है। दूसरे शब्दों में जब उपमेय को उपमान बनाया जाये और उपमान के अंग भी उपमेय के साथ वर्णित किये जाएं तब सांगरूपक अलंकार होता है।

इस रूपक में जिस आरोप की प्रधानता होती है, उसे 'अंगी' कहते हैं। शेष आरोप गौण रूप से उसके अंग बन कर आते है।

सामान्य पहचान के लिए जब किसी पद में एक से अधिक स्थानों पर रूपक की प्राप्ति होती है तो वहाँ सांगरूपक अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. "उदित उदयगिरि मंच पर, रघुवर बाल-पतंग ।

     बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन-भृंग।।"

2. "बीती विभावरी जाग री।

     अम्बर-पनघट में डूबो रही तारा-घट उषा नागरी।।"

3. "नारि-कुमुदिनी अवध सर रघुवर विरह दिनेश।

      अस्त भये प्रमुदित भई, निरखि राम राकेश।।"

4. "रनित भृंग घंटावली, झरत दान मधुनीर । मंद-मंद आवतु चल्यो, कुंजर कुंज समीर।।"

5. "छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोई बहुरंग कमल कुल सोहा ।।

     अरथ अनूप सुभाव सुभासा। सोई पराग मकरंद सुवासा।।"

6. "बढ़त-बढ़त सम्पत्ति सलिल मन सरोज बढ़ि जाय।

     घटत-घटत फिरि ना घटै, तरु समूल कुम्हलाय ।।"

7. "जितने कष्ट कंटकों में है, जिनका जीवन सुमन खिला।

     गौरव ग्रंथ उन्हें उतना ही, यत्र तत्र सर्वत्र मिला।।"


(ब) निरंग रूपक :-

  जब किसी पद में अंगों या अवयवों से रहित उपमान का उपमेय में आरोपण किया जाता है तो वहाँ निरंग रूपक अलंकार होता है। पहचान के लिए जब किसी पद में केवल एक जगह रूपक अलंकार की प्राप्ति होती है तो वहाँ निरंग रूपक अलंकार माना जाता है।

उदाहरण :-

1. "चरण कमल मृदु मंजु तुम्हारे ।"

2. "प्रियपति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है? दुख-जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है।"

3. "अवधेश के बालक चारि सदा, तुलसी मन-मन्दिर में विहरें।।”

4. "हरि मुख पंकज, ध्रुव धनुष, खंजन लोचन मित। बिंब अधर कुंडल मकर, बसे रहत मो चित्त।।"


(स) परम्परित रूपक :-

  जब किसी पद में कम से कम दो रूपक अवश्य होते हैं तथा उनमें से एक रूपक के द्वारा दूसरे रूपक की पुष्टि होती हैं तो वहाँ परम्परित रूपक अलंकार माना जाता है। पहचान के लिए जब किसी पद में कम से कम दो जगह आरोपण किया जाता हैं तथा उनमें एक आरोप दूसरे आरोप का कारण बनता है अथवा जब एक रूपक को हटा लिये जाने पर दूसरा रूपक स्वतः लुप्त हो जाता है तो वहाँ परम्परित रूपक अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. "जय जय जय गिरिराज किशोरी। जय महेश मुख चन्द्र चकोरी।।"

2. "राम कथा सुन्दर करतारी। संसय विहग उड़ावन हारी।।"

3. "राम कथा कलि-पन्नग भरनी। पुनि विवेक पावक कहँ अरनी।।"

4. "आशा मेरे हृदय मरु की मंजु मंदाकिनी है।"

5. "बाडव ज्वाला सोती थी, इस प्रणय सिंधु के तल में। प्यासी मछली सी आँखें थीं, विकल रूप के जल में।।"


(2) तद्रुप रूपक :-

  जब किसी पद में उपमेय को उपमान के दूसरे रूप में स्वीकार किया जाता है; वहाँ तद्रुप रूपक अलंकार माना जाता है। पहचान के लिए जब किसी पद में रूपक के साथ दूसरा, दूसरी, दूसरो, दूजा, दूजी, दूजो, अपर अथवा इनके अन्य समानार्थी शब्दों का प्रयोग हो रहा हो तो वहाँ तद्रुप रूपक अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. "अपर धनेश जनेश यह, नहिं पुष्पक आसीन।"

2. "अवधपुरी अमरावती दूजी ।।"

3. "दीपति वा मुखचन्द की, दिपति आठहूँ जाम।।"


उपमा अलंकार

 जब किसी पद में दो पदार्थों की समानता को व्यक्त किया जाता है अर्थात् किसी एक सामान्य पदार्थ को किसी प्रसिद्ध पदार्थ के समान मान लिया जाता है तो वहाँ उपमा अलंकार माना जाता है। शाब्दिक विश्लेषण की दृष्टि से उपमा शब्द 'उप+मा' के योग से बना है। यहाँ 'उप' का अर्थ होता है- 'समीप' तथा 'मा' का अर्थ होता है- 'मापना' या 'तोलना' अर्थात् समीप रखकर दो पदार्थों का मिलान करना 'उपमा' के नाम से जाना जाता है।

उदाहरण -

1. "चन्द्रमा-सा कान्तिमय मुख रूप दर्शन है तुम्हारा।"

उपमा या अर्थालंकारों के अंग :-

किसी भी सादृश्यमूलक अर्थालंकार के मुख्यतः निम्न चार अंग माने जाते हैं:-

(अ) उपमेय

(ब) उपमान

(स) वाचक शब्द

(द) साधारण धर्म

कवि जिस पदार्थ का वर्णन करता है, उस सामान्य पदार्थ को 'उपमेय' या 'प्रस्तुत पदार्थ' कहा जाता

है।

उदाहरण - उपर्युक्त पद में कवि ने 'मुख' का वर्णन करते हुए उसे चन्द्रमा के समान माना है; अतः यहाँ 'मुख' उपमेय है।

(ब) उपमान :- 

कवि अपने द्वारा वर्णित सामान्य पदार्थ की जिस प्रसिद्ध पदार्थ से समानता व्यक्त करता है अर्थात् जो उदाहरण प्रस्तुत करता है, उसे 'उपमान' या 'अप्रस्तुत पदार्थ' कहा जाता है।

उदाहरण - उपर्युक्त उदाहरण में कवि ने 'मुख' की समानता (सुन्दरता) 'चन्द्रमा' के साथ प्रकट की है। अतः यहाँ 'चन्द्रमा' उपमान है।

नोटः - संस्कृत में उपमेय को 'प्राकृत' तथा उपमान को 'सम' भी कहते है।

(स) वाचक शब्द :-

समानता के अर्थ को प्रकट करने के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है, वे वाचक शब्द कहलाते है। सा, सी, से, सम, सरिस, इव, जिमि, सदृश, लौं इत्यादि उपमा वाचक शब्द माने जाते है।

उदाहरण -  उपर्युक्त उदाहरण में 'चन्द्रमा-सा' पद में 'सा' वाचक शब्द है।

(द) साधारण धर्म :-

उपमेय (प्रस्तुत पदार्थ) तथा उपमान (अप्रस्तुत पदार्थ) दोनों में जो समान विशेषता या समान लक्षण या समान गुण पाये जाते हैं, उसे साधारण धर्म कहा जाता है।

उदाहरण -  उपर्युक्त उदाहरण में 'चन्द्रमा' (उपमान) व 'मुख' (उपमेय) दोनों को 'कान्तिकाय' बताया गया है। अतः यहाँ 'कान्तिमय' साधारण धर्म है।

उपमा अलंकार के भेद:-

 'उपमा' के मुख्यतः निम्न दो भेद माने जाते है:-

(1) पूर्णोपमा (पूर्णा+उपमा)

(2) लुप्तोपमा (लुप्ता उपमा)


(1) पूर्णोपमा :-

उपमा अलंकार के जिस पद में उपमा के चारों अंग मौजूद रहते हैं; वहाँ पूर्णोपमा अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. "राम लखन सीता सहित, सोहत पर्ण-निकेत । जिमि बस वासव अमरपुर, सची जयन्त समेत ।।"

2. "मोम सा तन घुल चुका, अब दीप सा दिल जल रहा है।" साहित्य

3. "मुख मयंक सम मंजु मनोहर"

4. "पीपर पात सरिस मन डोला।"

5. "हँसने लगे तब हरि अहा। पूर्णेन्दु सा मुख खिल गया।।"

6. "मधुकर सरिस संत गुनग्राही।"


(2) लुप्तोपमा :-

उपमा अलंकार के जिस पद में उपमा के चारों अंगों में से कोई भी एक अंग, दो अंग या तीन अंग लुप्त हो जाते हैं तो वहाँ लुप्तोपमा अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. "कोटि कुलिस सम वचन तुम्हारा।" (धर्म लुप्ता)

2. "कुलिस कठोर सुनत कटु बानी।

     बिलपत लखन सिय सब रानी।।" (वाचक लुप्ता) 

3. "नई लगनि कुल की सकुच, विकल भई अकुलाई

      दूहूँ ओर ऐंची फिरिति, फिरकीं लौं दिनु जाइ।।" (उपमेय लुप्तोपमा)

4. "तीन लोक झाँकी, ऐसी दूसरी न झाँकी जैसी।

     झाँकी हम झाँकी, बाँकी जुगलकिसोर की।।" (उपमान लुप्ता) 

5. 'चंचल हैं ज्यों मीन, अरुनारे पंकज सरिस ।

     निरखि न होय अधीन, ऐसो नरनागर कवन।।" (उपमेय लुप्तोपमा)

6. "तुम्हारी आँखों का आकाश, सरल आँखों का नीलाकाश।

     खो गया मेरा मन अनजान, मृगेक्षिणी इनमें खग अज्ञान।।" (उपमान लुप्तोपमा),

7. "नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन बारिज नयन।

      करउ सो मम उर धाम, सदा छीर सागर सयन।।"


उपमा के अन्य भेद -

(1) मालोपमा :-

जब किसी पद में एक ही उपमेय के लिए अनेक उपमानों का प्रयोग कर दिया जाता है तो वहाँ मालोपमा अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. "काम-सा रूप प्रताप दिनेश-सा। सोम-सा शील है राम महीप का।।"

2. "रूप जाल नंदलाल के, परि कहुँ बहुरि छुटै न। खंजरीट मृग-मीन से, ब्रज बनितन के नैन।।"

3. "चन्द्रमा सा कान्तिमय, मृदु कमल सा कोमल महा। नवकुसुम सा हँसता हुआ, प्राणेश्वरी का मुख रहा।"

4. "यह विचार की पुतलिका सी, विषम जगत की प्रतिछाया सी। विश्व चित्र सी सरित लहरी सी, जीवन सी छल की माया सी।।"


उपमा दी जाती है अर्थात् एक बार लिया जाता है तो वहाँ उपमेयोपमा अलंकार

(2) उपमेयोपमा :- 

जब किसी पद में उपमेय को उपमान के समान तथा माना जाता है।

उदाहरण -

1. "तो मुख सोहत है है तो मुख जैसो।" 

2. "सब मन रंजन हैं खंजन से नैन आली, 

      नैनन से खंजन हू लागत चपल हैं। 

      मीनन से महा मनमोहन हैं मोहिबे को, 

      मीन इन ही से नीके सोहत अमल हैं।

      मृगन के लोचन से लोचन हैं रोचन ये,

      मृगदृग इनहीं से सोहे पलापल हैं। 

      जू के, कमल से नैन अरु नैन से कमल हैं।।"

 जब किसी पद में उपमान या उपमेय उत्तरोत्तर उपमेय या उपमान होते जाते हैं तो वहाँ रशनोपमा 'रशनोपमा' शब्द 'रशन उपमा' के योग से बना है। 'रशना' का शाब्दिक अर्थ होता है-करधनी अर्थात् कमर में बाँधा जाने वाला आभूषण (तागड़ी)। जिस प्रकार करधनी में अनेक कड़ियों से गूँथी हुई लड़ियाँ होती हैं, वैसे ही जब किसी पद में उपमेय और उपमान की एक श्रृंखला सी बना दी जाती है तो वहाँ 'रशनोपमा' अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. 'बच सी माधुरि मूररि, मूरति सी कलकीरति । 

    कीरति लौं सब जगत में, छाइ रही तव नीति ।।"


उत्प्रेक्षा अलंकार

उत्प्रेक्षा अलंकार जब किसी पद में उपमेय को उपमान के समान तो नहीं माना जाता है, परन्तु यदि उपमेय में उपमान की सम्भावना प्रकट कर दी जाती है, तो वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार माना जाता है।

उत्प्रेक्षा वाचक शब्द

 हिन्दी के पदों में 'मानो, मनु, मनहु, जानो, जनु, जनहु' इत्यादि शब्द उत्प्रेक्षा वाचक शब्द माने जाते हैं।

उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद उपमेय में उपमान की सम्भावना वस्तु रूप में, हेतु रूप में और फल रूप में की जा सकती है। इस आधार पर उत्प्रेक्षा के मुख्यतः तीन भेद माने जाते हैं :-

1. वस्तूत्प्रेक्षा

2. हेतूत्प्रेक्षा

3. फलोत्प्रेक्षा

(अ) वस्तूत्प्रेक्षा (वस्तु उत्प्रेक्षा) -

 उत्प्रेक्षा अलंकार माना जाता है। इसे 'स्वरूपोत्प्रेक्षा' भी कहा जाता है।

उदाहरण

1."कहती हुई यों उत्तरा के, नेत्र जल से भर गये।

    हिम के कणों से पूर्ण मानो, हो गये पंकज नये ।।"

प्रस्तुत पद में आँसुओं से भरी उत्तरा की आँखों में (एक वस्तु, उपमेय) कमल पर जमा हिमकणों (अन्य वस्तु, उपमान) की 

उपमान - नीलमणि पर्वत पर प्रातःकाल पङती धूप

उत्प्रेक्षा वाचक शब्द  --  मानो, मनु मानहुँ जानो जनु जानहु।

यहाँ पीताम्बर पहने हुए भगवान श्याम (कृष्ण) की शोभा में (उपमेय) नीलमणि पर्वत पर प्रातःकाल पङती सूर्य की आभा (उपमान) की संभावना प्रकट की गई है। इस प्रकार एक वस्तु में अन्य वस्तु की संभावना होने के कारण यहाँ वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है।

3. "झीने पट में झुलमुली, झलकति ओप अपार।

     सुरतरु की मनु सिंधु में, लसति सपल्लव डार।।"

उपमेय - झीने (पतले या पारदर्शी) वस्त्रों से झलकती नायिका के शरीर की शोभा।

उपमान - स्वच्छ सिंधु में पत्तों सहित झलकती देववृक्ष की डाली

उत्प्रेक्षा वाचक शब्द मनु -

4. "नील परिधान बीच सुकुमार, खुला रहा मृदुल अधखुला अंग। 

     खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघवन बीच गुलाबी रंग।।"

उपमेय - नीले वस्त्रों में से दिखाई दे रहे कामायनी के कोमल अंग।

उपमान - बादलों के बीच से चमकती गुलाबी रंग की बिजली।

उत्प्रेक्षा वाचक शब्द - ज्यों

5. "अति कटु वचन कहति कैकई। 

       मानहु लोन जरै पर देई।"

उपमेय - कैकेयी के कटु वचन

उपमान - जले पर नमक छिङकना

उत्प्रेक्षा वाचक शब्द- मानहु

6. "स्वर्ण शालियों की कलमें थीं, दूर दूर तक फैल रहीं।

      शरद इन्दिरा के मन्दिर की, मानो कोई गैल रही।।"

उपमेय -  दूर-दूर तक फैली स्वर्ण-शालियों की कलमें।

उपमान - शरद ऋतु की शोभा

उत्प्रेक्षा वाचक शब्द - मानो

7. "लसत मंजु मुनि मंडली, मध्य सीय रघुचंद्र । 

      ज्ञान सभा जनु तनु धरे,

उपमेय - राम व सीता के

उपमान - द्वारा

उत्प्रेक्षा वाचक - माना

उदाहरण -

1. "मोर मुकुट की चन्द्रिकनु, यों राजत नंदनंद। 

      मनु ससि सेखर की अकस, किय सेखर सतचंद।।"

बिहारी द्वारा रचित प्रस्तुत पद में नायिका की सखी नायिका से मोर-मुकुटधारी श्रीकृष्ण की शोभा का वर्णन करके उसके चित्त में उस अद्भुत शोभा को देखने की लालसा उत्पन्न करना और उससे अभिसार कराना चाहते हुई कहती है-"मानो श्रीकृष्ण ने भगवान् शंकर (ससिसेखर) से ईर्ष्या करने के लिए (ईष्यावश) अपने मस्तक पर सैंकडों चन्द्रमा धारण कर लिये हैं।" यहाँ भी अहेतु में हेतु की संभावना मात्र है, अतः यहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है।

2. "मनो कठिन आँगन चली, ताते राते पाय।।"

यहाँ नायिका के पैर प्रकृति-प्रदत्त लाल (राते) हैं, पर कवि उनमें कठोर आँगन पर पैदल चलने के कारण को सम्भावित कर रहा है, अतः कारण खोजने का प्रयास मात्र होने के कारण यहाँ हेतुत्प्रेक्षा अलंकार है।

3. "घिर रहे थे घुंघराले बाल, अंस अवलंबित मुख के पास। 

      नील घन शावक से सुकुमार, सुधा भरने को विधुके पास।।"

अर्थात् कामायनी के घुंघराले बाल उसके मुख तथा कंधे तक फैले हुए थे, जिनको देखकर ऐसा लगता था मानो नीलमेघ के बालक अमृतपान करने के लिए चन्द्रमा के पास आ गये हों। यहाँ भी जो कारण बतलाया गया है, उसमें कोई वास्तविकता नहीं होकर कल्पना मात्र है। अतः यहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है।

(स) फलोत्प्रेक्षा (फल+उत्प्रेक्षा)

  जब किसी पद में अफल में फल की उसे फल के रूप में कल्पित किया जाता है तो वहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार माना जाता है। फल नहीं है,

उदाहरण -

1. "बाजि बली रघुबंसिन के मनों सूरज के रथ चूमन चाहै"

उपमेय - रघुवंश के बलवान घोडे

उपमान - सूरज के रथ को चूमने की इच्छा

वाचक शब्द मनों

2. "बढ़त ताङ को पेङ यह, मनु चूमन को आकास।"

अर्थात् शायद आकाश को चूम लेने की आशा की इच्छा से यह ताङ का पेङ इतना ऊँचा बढ़ गया है। यहाँ आकाश को  छूने (चूमने) के फल की इच्छा से ताङ का ऊँचा बढ़ना विसंगत सा लगता है, किन्तु कवि ने उसे फल रूप में चित्रित किया है। अतः अफल में फल की संभावना करने के कारण यहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार है।

3. "विकसि प्रात में जलज ये, सरजल में छबि देत। 

      पूजत भानुहि मनहु ये, सिय मुख समता हेत।।"

प्रस्तुत पद में कमलों के सरोवर में खिलने की शोभा इस दोहे का वर्ण्य विषय है, जिसमें अफल में फल की संभावना का रूप देते हुए कवि कहता है कि 'वे कमल मानो सीताजी के मुख की समता प्राप्त करने के लिए भानु (सूर्य) की पूजा करते हैं।" वस्तुतः कमलों का सरोवर में खिलना स्वाभाविक है, किन्तु उसमें सूर्यपूजा के कार्य का विधान करके अफल में फल की संभावना की गई है, अतः यहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार है।

4. "तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये। 

      झूके कूल सों जल परसन, हिल मनहुँ सुहाये।।"

यहाँ वृक्ष स्वाभाविक रूप से यमुना के जल की ओर झुक रहे हैं, पर कवि यहाँ यह कहना चाहता है कि वे जलस्पर्श के फल के लिए झुके हुए हैं। इस प्रकार अफल में फल की संभावना होने के कारण यहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार है।

5. "खंजरीट नहिं लखि परत, कछु दिन साँची बात। 

      बाल दृगन सम होन को, करत मनो तप जात।।"

प्रस्तुत पद में 'कुछ समय के लिए खंजन पक्षियों का न दिखाई देना' जैसे वर्ण्य विषय को लेकर कवि ने उसकी अदृश्यता का कारण यह सम्भावित किया है कि वे मानो उस सुंदर बाला (नायिका) के नेत्रों की शोभा प्राप्त करने के लिए हिमालय पर तपस्या करने के लिए चले गये हैं। कवि की यह कल्पना इस पद में फलोत्प्रेक्षा को प्रकट कर रही है।


सन्देह अलंकार

सन्देह अलंकार जब किसी पद में समानता के कारण उपमेय में उपमान का सन्देह उत्पन्न हो जाता है और यह सन्देह अन्त तक बना रहता है तो वहाँ सन्देह अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. वन देवी समझें तो वह होती है भोली भाली, 

    तुम्ही बताओ अतः कौन तुम, हे रमणी ! रहस्यवाली।।"

प्रस्तुत पद में रूपपरिवर्तिता शूर्पणखा को देखकर लक्ष्मणजी है अथवा किसी दानव की स्त्री है सन्देह अलंकार है।

2. "सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है। 

      सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।।"

महाभारत काल में द्रौपदी के चीर हरण के समय उसकी बढ़ती साडी (चीर) को देखकर दुःशासन के मन में यह संशय उत्पन्न हो रहा है कि यह साडी के बीच नारी (द्रौपदी) है या नारी के बीच साडी है अथवा साडी नारी की बनी हुई है या नारी साडी से निर्मित है। इस प्रकार अन्त तक संशयात्मक स्थिति उत्पन्न होने के कारण यहाँ सन्देह अलंकार है।


3. "ये हैं सरस ओस की बूँदें या हैं मंजुल मोती।।"

  प्रस्तुत पद में हंसिनी अपने सामने छायी ओस की बूँदों को देखती है, परन्तु सादृश्यकता के कारण वह यह निर्णय नहीं कर पा रही है कि ये 'ओस की बूँदें' हैं अथवा सुन्दर मोती हैं। इस प्रकार अन्त तक संशय बने रहने के कारण यहाँ सन्देह अलंकार है।


भ्रान्तिमान अलंकार

 जब किसी पद में किसी सादृश्य विशेष के कारण उपमेय में उपमान का भ्रम उत्पन्न हो जाता है तो वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार माना जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब किसी पदार्थ को देखकर हम उसे उसके समान गुणों या विशेषताओं वाले किसी अन्य पदार्थ के रूप में मान लेते हैं तो वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. "ओस बिन्दु चुग रही हंसिनी मोती उनको जान।"

प्रस्तुत पद में हंसिनी को ओस बिन्दुओं (उपमेय) में मोती (उपमान) का भ्रम उत्पन्न हो रहा है अर्थात् वह ओस की बूँदों को मोती समझकर चुग रही हैं, अतएव यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।

2. "भ्रमर परत शुक तुण्ड पर, जानत फूल पलास। 

      शुक ताको पकरन चहत, जम्बु फल की आस ।।"

3. "नाक का मोती अधर की कान्ति से, 

     बीज दाडिम का समझकर भ्रान्ति से। 

     देखकर सहसा हुआ शुक मौन है, 

      सोचता है अन्य शुक यह कौन है।।"

यहाँ नाक के आभूषण के मोती में अनार (दाडिम) के बीज का भ्रम उत्पन्न हो रहा है, अतः यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।

4. "कपि करि हृदय विचारि, दीन्हि मुद्रिका डारि तब। 

     जानि अशोक अंगार, सीय हरषि उठि कर गहेउ।।"

यहाँ सीता को मुद्रिका में अशोक पुष्प (अंगार) का भ्रम उत्पन्न हो रहा है, अतः यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।

5. विधु वदनिहि लखि बाग में, चहकन लगे चकोर। 

    वारिज वास विलास लहि, अलिकुल विपुल विभोर।।"

प्रस्तुत पद में किसी चन्द्रमुखी नायिका को देखकर चकोरी की उसके मुख में चन्द्रमा का भ्रम हो रहा है तथा उसके वदन में कमल की सुगंध पाकर (समझकर) भ्रमर आनंद विभोर हो गया है। अतः यहाँ उपमेयों (मुख व सुवास) में उपमानों (चन्द्रमा व कमल-गंध) का भ्रम उत्पन्न होने के कारण भ्रान्तिमान अलंकार है।

6. "बेसर मोती दुति झलक, परी अधर पर आनि। 

      पट पोंछति चूनो समझि, बारी निष्ट अयानि ।।"


दृष्टान्त अलंकार 

बिम्ब - प्रतिबिम्ब भाव होने पर, उपमेय वाक्य में जो बात कही जाती है, उसकी सत्यता प्रमाणित करने के लिए उसी से मिलता-जुलता दूसरा उपमान वाक्य कहा जाता है; जो प्रथम वाक्य भी सत्यता पर प्रमाणिकता की मोहर लगा देता है, तो वहाँ दृष्टान्त अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।

     रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान ।।

2. कन कन जोरै मन जुरै, खावत निबरे सोय।

    बूंद-बूँद तें घट भरै, टपकत रीता होय ।। 

3. मनुष जनम दुरलभ अहै, होय न दूजी बार। 

    पक्का फल जो गिरि परा, बहुरि न लागै डार॥


उदाहरण अलंकार

जब किसी पद में 'ज्यों, जैसे, जिमि' इत्यादि शब्दों का प्रयोग किसी कथन को उदाहरण रूप में प्रस्तुत करने के लिए किया जाता है, तो वहाँ उदाहरण अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1 . सुख बीते दुख होत है दुख बीते सुख होत।

     दिवस गये ज्यों निसि उदित, निसिगत दिवस उद्येत ।।

2. नीकी पे फीकी लगै बिन अवसर की बात।

    जैसे बरनत युद्ध में रस श्रृंगार न सुहात ।।

3. जगत जनायो जिहि सकल, सो हरि जान्यो नाहिं । 

    ज्यों आँखिन सब देखिपे, आँख न देखि जाहि ।।

4. सबै सहायक सबल के, कोऊ न निबल सहाय। 

     पवन जगावत आग ज्यों, दीपहि देत बुझाय।।


विरोधाभास अलंकार

'विरोधाभास' शब्द 'विरोध आभास' के योग से बना है, अर्थात् जब किसी पद में वास्तविकता में तो विरोध वाली कोई बात नहीं होती है, परन्तु सामान्य बुद्धि से विचार करने पर वहाँ कोई भी पाठक विरोध कर सकता है तो वहाँ विरोधाभास अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. "तन्त्री नाद कवित्त रस, सरस राग रति रंग। 

      अनबूड़े बूड़े तिरे, जे बूड़े सब अंग।।"

अर्थ तन्त्री के नाद में जो व्यक्ति नहीं डूबा वह डूब गया और जो इसमें डूब गया वह तिर गया, यह विरोधाभास का कथन प्रतीत होता है।

2. "शीतल ज्वाला जलती है, ईंधनं होता दृग जल का। 

     यह व्यर्थ साँस चल चलकर, करती है काम अनिल का।।"

3. "अवध को अपनाकर त्याग से, वन तपोवन सा प्रभु ने किया। 

      भरत ने उनके अनुराग से, भवन में वन का व्रत ले लिया।।"

अर्थ- प्रस्तुत पद में राम के द्वारा वन को तपोवन सा बनाना एवं भरत के द्वारा राजभवन में ही वन का व्रत ले लेना विरोध का सा आभास कराता है।

4. "विषमय यह गोदावरी अमृतन को फल देत। 

     केसव जीवन हार को, असेस दुख हर लेता।।"


व्यतिरेक अलंकार

जब किसी पद में उपमान की अपेक्षा उपमेय को अधिक बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है अर्थात् उपमेय का उत्कर्षपूर्ण वर्णन किया जाता है तो वहाँ व्यतिरेक अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. जिनके यश प्रताप के आगे। 

    ससि मलीन रवि सीतल लागे ।।

अर्थ यहाँ उपमेय (यश, प्रताप) के समक्ष उपमान (चन्द्रमा व सूर्य) को भी मलीन व शीतल (तेजरहित) बताया गया है, अतः यहाँ व्यतिरेक अलंकार है।

2. जनम सिंधु पुनि बंधु विष, दिन मलीन सकलंक। 

    सिय मुख समता पाव किमि, चंद बापुरो रंक ।।

अर्थ- प्रस्तुत पद में उपमान (चन्द्र) की अपेक्षा उपमेय (सिय मुख) की शोभा का उत्कर्षपूर्ण वर्णन किया गया है, अतः यहाँ व्यतिरेक अलंकार है।

3. राधा मुख को चन्द्र सा कहते हैं मतिरंक । 

    निष्कलंक है वह सदा, उसमें प्रकट कलंक ।।


असंगति अलंकार 

जब किसी पद में किसी कार्य का अपने मूल स्थान से हटकर किसी अन्य स्थान पर घटित होना पाया जात है अर्थात् जो काम जहाँ होना चाहिए, वहाँ नहीं होकर किसी अन्य स्थान पर होता है तो वहाँ असंगति अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. "गजन फल देखिय तत्काला। 

     काक होहिं पिक वकहु मराला।।"

2. "हृदय घाव मोरे, पीर रघुवीरे।"

अर्थ सामान्यतः जिस व्यक्ति के शरीर पर घाव होता है, पीड़ा भी उसी को होती है, परन्तु यहाँ घाव तो लक्ष्मण के हृदय में हो रहा है तथा उसकी पीड़ा राम के हृदय में हो रही है, अतः उपयुक्त स्थान पर कार्य नहीं होने के कारण यहाँ असंगति अलंकार माना जाता है।

3. "मेरे जीवन की उलझन, बिखरी थीं उनकी अलकें।

      पीली मधु मदिरा किसने, थीं बंद हमारी पलकें।।"

4. "पलनि पीक अंजन अधर, धरे महावर भाल।

      आजु मिलै हो भली करी, भले बनै हो लाल।।"

अर्थ सामान्यतः पान का बीड़ा मुख में रखा जाता है, अंजन (काजल) आँखों में लगाया जाता है तथा महावर पैरों पर लगाया जाता है, परन्तु यहाँ कवि बिहारी ने पान (पीक) को आँखों की पलकों में, अंजन को होठों पर तथा महावर को मस्तक (भाल) पर चित्रित किया है। इस प्रकार वास्तविक स्थान पर पदार्थ नहीं होने के कारण यहाँ असंगति अलंकार है।

5. "राज के देन कहँ सुभ दिन साधा। 

      कह्यो जान वन केहि अपराधा।।"

अर्थ - प्रस्तुत पद में राज्य देने के शुभ दिवस के स्थान पर उसके विपरित वन जान के आदेश का वर्णन होने के कारण यहाँ संगति अलंकार है।

6. "दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित्त प्रीति। 

      परत गाँठ दुरजन हिये, दई नई यह रीति।।"

अर्थ सामान्यतः जो वस्तु उलझती है वही टूटती है; जो टूटती है वही जुड़ती है तथा जो मुड़ती है, गाँठ भी उसी में पड़ती हैं, परन्तु बिहारी के इस दोहे में आँखें तो नायक-नायिका की उलझ रही हैं परन्तु टूट उनके परिवार रहे हैं। परिवार तो टूट रहे हैं परन्तु उनके हृदय में प्रेम भावना जुड़ती चली जा रही है। प्रेम तो नायक-नायिका के हृदय में जुड़ रहा है, परन्तु उसको देखकर दुर्जनों के हृदय में गाँठ पड़ रही है। विधाता की यह कैसी विचित्र लीला (रीति) है। इस प्रकार वास्तविक स्थान से अन्यत्र कार्य घटित होने के कारण यहाँ असंगति अलंकार है।


विभावना अलंकार

हमारे द्वारा जो कोई भी कार्य किया जाता है, उनके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य निहित होता है, परन्तु जब किसी पद में वास्तविक कारण के बिना ही किसी कार्य का होना पाया जाता है तो वहाँ विभावना अलंकार माना जाता है। पहचान के लिए जब किसी पद किसी पद में 'बिना, बिनु, बिन, रहित' आदि शब्दों का विभावना अलंकार माना जाता है। 

उदाहरण -

1. "निदंक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय। 

     बिन पानी साबुन बिना निर्मल करै सुभाय।।"

2. "बिनु पद चलै, सुनै बिनु काना। 

     बिनु कर करम करै विधि नाना। 

     आनन रहित सकल रस भोगी। 

     बिनु बानी बकता बड़ जोगी ।।"

अर्थ - प्रस्तुत पद में परम पिता परमेश्वर की आराधना हुए कवि तुलसीदास कहते हैं कि वह परम पिता परमेश्वर बिना पैरों के चलता है, बिना कानों के सुनता है, हाथों के बिना ही अनेक कार्य करता है, मुख से रहित होने पर भी समस्त पदार्थों का उपभोग करता है तथा जिह्वा के बिना भी बहुत बड़ा वक्ता है। यहाँ संबंधित कारणों (पैर, कान, हाथ, मुख, जिह्वा) के बिना ही चलने, सुनने, कर्म करने, रस-उपभोग करने व बोलने के कार्य हो रहे हैं, अतः यहाँ विभावना अलंकार माना जाता है।

3. "मुनि तापस जिन तें दुख नहहीं। 

      ते नरेश बिनु पावक दहहीं।।"

4. "आक धतूरे के फूल चढाये ते रीझत हैं तिहुँ लोक के साँई।"

5.   नैना नैक न मानहीं, कितो कहौं समुझाय ।

      ये मुँह जोर तुरंग लौं, ऐंचत हू चलि जाय ।। 

6. "जदपि बसे हरि जाय उत, आवन पावत नांहि।

      मिलत मोहिं नित तदपि सखि, प्रतिदिन सपने मांहि।।"

7. "देखों नील कमल से कैसे, तीखे तीर बरसते हैं।" 

8. "क्यों न उतपात होहिं बैरिन के झुण्डन में।

      कारे घन उमड़ि अँगारे बरसत हैं।"

9. "हँसत बाल के बदल में, यों छवि कथु अतूल।

      फूली चंपक बेलि तें, झरत चमेली फूल।।"

10. "पौन से जागत आगि सुनी ही पै,

        पानी सों लागत आजु मैं देखी।"

11. "सिय हिय सीतल सी लगे, जरत लंक की झार।"

12. "आग हूँ जिससे ढलकते बिन्दु हिमजल के।"

13. भयो सिन्धु तें विधु सुकवि, बरनत बिना विचार। 

       उपज्यो तो मुख इन्दु ते, प्रेम पयोधि अपार ।।

14. "देखो या विधुवदन में, रस सागर उमगात ।"

15. "कमल जुगल से निकलता, देखो निर्मल नीर।"


अन्योक्ति अलंकार

जब किसी पद में किसी को माध्यम बनाकर अन्य व्यक्ति तक वास्तविक निहितार्थ (संदेश) पहुँचा दिया जाता है, तो वहाँ अन्योक्ति अलंकार माना जाता है।

उदाहरण -

1. स्वारथ सुकृतु न श्रमु वृथा, देखि विहंग विचारि। 

    बाज पराए पानि पर तू पच्छिनू न मारि ।।

2. नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल। 

    अलि कली ही सों बन्ध्यों, आगे कौन हवाल ।।

3. माली आवत देखकर कलियन करी पुकारि। 

    फूले-फूले चुन्हि लिये, काल्हि हमारी बारि।।


समासोक्ति अलंकार

जहाँ पर कार्य, लिंग या विशेषण की समानता के कारण प्रस्तुत के कथन में अप्रस्तुत व्यवहार का समावेश होता है अथवा अप्रस्तुत का स्फुरण होता हे तो वहाँ समासोक्ति अलंकार माना जाता है। समासोक्ति में प्रयुक्त शब्दों से प्रस्तुत अर्थ के साथ-साथ एक अप्रस्तुत अर्थ भी सूचित होता है जो यद्यपि प्रसंग का विषय नहीं होता है, फिर भी ध्यान आकर्षित करता है।

उदाहरण -

1. "कुमुदिनी हुँ प्रफुल्लित भई, साँझ कलानिधि जोई।"

यहाँ प्रस्तुत अर्थ है- "संध्या के समय चन्द्र को देखकर कुमुदिनी खिल उठी।"

अर्थ इस अर्थ के साथ ही यहाँ यह अप्रस्तुत अर्थ भी निकलता है कि संध्या के समय कलाओं के निधि अर्थात् प्रियतम

2. तेरे ढिग सोहत सुखद, सुंदर स्याम तमाल।।"

3. "नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल। 

      अली कली ही सों बिन्ध्यो, आगे कौन हवाल ।।"

यहाँ भ्रमर के कली से बंधने के प्रस्तुत अर्थ के साथ-साथ राजा के नवोढ़ा रानी के साथ बंधने का अप्रस्तुत अर्थ भी प्रकट हो रहा है। अतः यहाँ समासोक्ति अलंकार है।

4. "जब तुहिन भार से चलता था धीरे धीरे मारुत सुकुमार। 

      तब कुसुमकुमारी देख-देख, उस पर जाती निस्सार।।"

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भागवत दर्शन: अलंकार - अर्थ, परिभाषा और प्रकार
अलंकार - अर्थ, परिभाषा और प्रकार
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भागवत दर्शन
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