गुरजिएफ

Sooraj Krishna Shastri
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 जब सूफी फकीरों की खोज में पूरब आया तो बड़ी मुश्किल में पड़ा। कैसे उनका पता लगे कि कौन आदमी है? क्योंकि वे कोई अलग--थलग दिखाई नहीं पड़ते, जीवन में रमे हैं। तो उसने लिखा है कि बामुश्किल से सूत्र मिलने शुरू हुए। बामुश्किल से!

उसने किसी मुसलमान को पूछा कि मैं सूफी फकीरों का पता लगाना चाहता हूं। दमिश्क की गलियों में भटकता था कि कहीं खोज ले। मगर कैसे पता चले? तो उसने कहा, तुम एक काम करो। तुम पता न लगा सकोगे। तुम तो जा कर मस्जिद में जितनी देर बैठ सको, नमाज पढ़ सको, पढ़ो। किसी सूफी की तुम पर नजर पड़ जाएगी तो वह तुम्हें पकड़ेगा। तुम तो नहीं पकड़ पाओगे। क्योंकि शिष्य कैसे गुरु को खोजेगा? गुरु ही शिष्य को खोज सकता है।

यह बात जंची गुरजिएफ को। वह बैठ गया मस्जिद में, दिन भर बैठा रहता, आधी-आधी रात तक वहां बैठ कर नमाज पढ़ता रहता; किसी की तो नजर पड़ेगी--और नजर पड़ी। एक बुजुर्ग उसे गौर से देखने लगा, कुछ दिन के बाद। एक दिन वह बुजुर्ग उसके पास आया, उसने कहा कि तुम मुसलमान तो नहीं मालूम होते, फिर इतनी नमाज क्यों कर रहे हो?

उसने कहा कि मैं किसी सदगुरु की तलाश में हूं और मुझे कहा गया है कि मैं तो न खोज पाऊंगा। अगर मैं यहां नमाज पढ़ता रहूं तो शायद किसी की नजर मुझ पर पड़ जाए, कोई बुजुर्गवार। और आपकी अगर नजर मुझ पर पड़ गई और अगर आप पाते हों कि मैं इस योग्य हूं कि किसी सूफी के पास मुझे भेज दें, तो मुझे बता दें।

उसने कहा कि तुम आज रात बारह बजे फलां-फलां जगह आ जाओ। वह जब वहां पहुंचा तो चकित हुआ। जिससे उसे मिलाया गया, वह होटल चलाता था, चाय इत्यादि बेचता था, चायघर चलाता था। और उस चायघर में तो गुरजिएफ कई दफे चाय पी आया था। न केवल यही, उस चाय वाले से पूछ चुका था कई बार कि अगर कोई सूफी का पता हो तो मुझे पता दे दो। तो वह चाय वाला हंसता था कि भई धर्म में मुझे कोई रुचि नहीं, तो मुझे तो कुछ पता नहीं।

वही आदमी गुरजिएफ के लिए गुरु सिद्ध हुआ। उसने गुरजिएफ से कहा कि बस अब तेरा वर्ष दो वर्ष तक तो यही काम है कि कप-प्याले साफ कर। कप-प्याले साफ करवाते-करवाते ध्यान की पहली सुध उस गुरु ने देनी शुरू की।

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